प्रदीप सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिन नीतियों पर काम कर रहे हैं- उनको अगर तात्कालिक लाभ के नजरिये से देखेंगे तो आप गलत नतीजे पर पहुंचेंगे। ये जो काम कर रहे हैं वो 2024 या 2027 के चुनाव की दृष्टि से नहीं कर रहे हैं। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इसका चुनाव से कोई मतलब नहीं है। ये दोनों बुनियादी परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में तीन काम ऐसे हुए हैं जिनकी कल्पना उनके विरोधी क्या, उनके बड़े से बड़े समर्थक भी नहीं कर सकते थे। उनकी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है कि यह कितना बड़ा काम हो रहा है। पहला- मदरसों का सर्वे, दूसरा- उत्तर प्रदेश के 7 अप्रैल,1989 के शासनादेश को रद्द किया जाना। यह शासनादेश वक्फ संपत्ति के बारे में था जिसमें कहा गया था कि ऊसर, बंजर और भीते की जमीन को वक्फ की संपत्ति के रूप में रजिस्टर कराया जा सकता है। शासनादेश रद्द करने के साथ ही वक्फ की सारी संपत्तियों की जांच कराने का भी आदेश दिया गया है। इसके अलावा तीसरा काम हुआ है पीएफआई (पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया) पर देशव्यापी छापे।
बिना हाथ जलाए होम नहीं होता
ये जो तीनों काम हुए हैं उसे एक दिन या एक रात में फैसला लेकर नहीं किया गया है। इसकी तैयारी करके, इसके दूरगामी प्रभावों का आकलन करके- देश की राजनीति, समाज और राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसका क्या असर होगा- मौजूदा सांप्रदायिक स्थिति- उन सब बातों को ध्यान में रखते हुए लंबे समय से योजना बनाकर इन्हें कार्यान्वित किया गया है। पहले बात करता हूं मदरसों के सर्वे की। इससे आमतौर पर यही लगता है कि सर्वे से यही पता लगाया जाएगा कि कौन से मदरसे रजिस्टर्ड नहीं हैं या कौन से अवैध रूप से चल रहे हैं। मगर बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। बात यह है कि मदरसे की जो तालीम है वह रेडिकल इस्लामिस्ट (कट्टरपंथी इस्लामवादी) पैदा कर रही है। दुनिया भर में मदरसों से निकले हुए आतंकवादियों, वहाबियों और तालिबानियों की संख्या देखिए कितने बड़े पैमाने पर हैं। दरअसल मदरसों का मूल चरित्र बदलने की कोशिश हो रही है जो इससे पहले कभी नहीं हुआ। पहला मदरसा शुरू किया था मोहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने। उस पहले मदरसे की मौलवी एक महिला थी। वहां से- यानी इस्लाम की लगभग शुरुआत से लेकर- आज तक मदरसों का मूल चरित्र बदलने के बारे में क्या किसी ने सोचा था, क्या किसी ने इसकी कोशिश की थी। मुस्लिम शासन में तो इसकी उम्मीद नहीं ही कर सकते थे लेकिन ब्रिटिश राज में भी लगभग 200 साल और आजादी के बाद 75 साल में किसी प्रधानमंत्री ने इस बारे में सोचने की जरूरत नहीं समझी। सबको लगता था कि यह ऐसा मामला है जो छुएगा उसका हाथ जलेगा। इसलिए कोई अपना हाथ जलाना नहीं चाहता था लेकिन हाथ जलाए बिना होम नहीं होता है। होम में हाथ जलाना ही पड़ता है। यह होम हो रहा है मौजूदा परिस्थिति को, व्यक्ति को और समाज को बदलने के लिए।
मदरसों का चरित्र बदलने का प्रयास
इसके जरिये मदरसों का स्थायी चरित्र बदला जा रहा है। आखिर मदरसों का चरित्र है क्या जिसको बदलने की बात हो रही है। मदरसों का मूल चरित्र है दीनी शिक्षा- यानी धर्म की शिक्षा। इसके बारे में बहुत से लोग कह चुके हैं, खासकर केरल के गवर्नर आरिफ मोहम्मद खान कि मदरसों में मौजूदा समय में जो पढ़ाया जा रहा है उसे बदलने की जरूरत है। उसकी शिक्षा से जो मानसिकता पैदा होती है वह सांप्रदायिक विद्वेष का कारण बनती है, वह हिंदू-मुस्लिम झगड़े की जड़ है। मदरसों का केवल आधुनिकीकरण नहीं हो रहा है। वहां पर साइंस, मैथ और कंप्यूटर भी पढ़ाया जाए, मामला यहीं तक सीमित नहीं है। वहां जो मजहबी शिक्षा है उसको घटाकर 20 फीसदी पर लाना है। उसके लिए देखिए किस तरह से घेरेबंदी हो रही है। मदरसों के लिए जरूरी है कि वह सोसायटी एक्ट में रजिस्टर्ड हो। मदरसों के सर्वे से पहले योगी सरकार ने यह आदेश दिया कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मदरसों में झंडारोहण होगा और राष्ट्रगान होगा। इससे पहले इसकी कल्पना कौन कर सकता था। उसके बाद मदरसों का एक पोर्टल बनवाया जिसमें प्रदेश के सभी मदरसों को यह बताने के लिए कहा गया कि वे बताएं कि उनके यहां कितने छात्र हैं, किस कक्षा में हैं, किस पृष्ठभूमि के हैं, कितने शिक्षक हैं, उनकी सैलरी का स्ट्रक्चर क्या है, अटेंडेंस क्या है। उसके बाद अभी हाल ही में यह कह दिया गया है कि मदरसों में शिक्षकों की भर्ती उसी तरह से होगी जैसे यूपी बोर्ड या माध्यमिक शिक्षा परिषद में होती है। भर्ती का, उनके चयन का तरीका वही होगा और वेतमान भी वही होगा। पैसा सीधे उनके खाते में जाएगा। इससे बीच का जो धंधा था वह बंद हो गया। अब अगला कदम है मदरसा बोर्ड को यूपी बोर्ड की तरह परीक्षा बोर्ड की शक्ल में बदल देना। इससे मदरसा बोर्ड को परीक्षाएं करवाने, कॉपी जंचवाने और रिजल्ट तैयार करवाने के अलावा और कोई अधिकार नहीं होगा। छात्रों के एडमिशन, मदरसों को चलाने और शिक्षकों की नियुक्ति में उसकी कोई भूमिका नहीं होगी। सब कुछ सरकारी होगा- यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड। अब आप इस बात को समझ गए होंगे कि यूनिफॉर्म सिविल कोड आया नहीं है लेकिन जमीन पर उसकी तैयारी शुरू हो चुकी है। मदरसों और सामान्य स्कूलों को बराबरी पर लाने की तैयारी हो रही है।
फंडिंग पर कड़ी नजर
इसके बाद मैं जो दूसरी बात कह रहा था कि उसमें आप याद कीजिए कि मदरसों के सर्वे की जब घोषणा हुई तो देवबंदियों, वहाबियों और तालिबानियों ने इसका विरोध किया। जबकि जमीयत उलेमा ए हिंद के अरशद मदनी और महमूद मदनी ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि वे मदरसों के सर्वे के खिलाफ नहीं हैं। महमूद मदनी ने मदरसा बोर्ड से कहा कि आप अपने अकाउंट दुरुस्त कर लीजिए, मतलब अब ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) की एंट्री होगी कि मदरसों की फंडिंग कहां से हो रही है। ये शुरुआत हुई है भारत-नेपाल सीमा पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मदरसों और मस्जिदों को देखने के बाद। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य सरकारों को लिखा है जिन राज्यों की सीमा अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगती है वे अपने यहां इस बात पर निगरानी रखें कि किस तरह की मदद से मस्जिदें खुल रही हैं और कहां से पैसा आ रहा है। मदरसों की फंडिंग पर आकर ही सारा मामला फंसेगा और यहीं से बदलाव शुरू होगा। दूसरा है वक्फ बोर्ड का। वक्फ बोर्ड का जो आतंक है वह भारत को सेमीइस्लामिक स्टेट बनाने का प्रोजेक्ट था जिसको कांग्रेस पार्टी ने चलाया-बढ़ाया, उसको पाला-पोसा, अब उस पर अंकुश लगने जा रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने 7 अप्रैल,1989 के शासनादेश को रद्द करने का जो फैसला किया है उसके बाद लाखों नहीं तो हजारों एकड़ वक्फ की जमीन मुक्त होने वाली है। आप मान कर चलिए वक्फ बोर्ड पर भी देर-सवेर ताला लगने वाला है। वक्फ बोर्ड का जो आतंक था, जो साम्राज्य था वह टूटने वाला है। उसके टूटने का मतलब है उसके पास जो संपत्ति है- यानी जो आर्थिक संसाधन हैं- उसका सीमित होना। जो फंडिंग आ रही है उसको रोकना। यानी मदरसा बोर्ड की जान जिस तोते में है सरकार ने उसकी गर्दन पकड़ ली है। तोते की गर्दन जितनी कसती जाएगी वह उतना ही फड़फड़ाएगा। आने वाले दिनों में यह सब सुनने को मिलेगा।
पीएफआई पर एक्शन
देखिए माहौल कैसे बदल रहा है। अभी दो-ढाई महीने पहले उलेमाओं के सम्मेलन में यही अरशद मदनी गरजते हुए कह रहे थे कि यह मुल्क तो मुसलमानों का है, हिंदुओं को अगर ऐतराज है तो वह छोड़कर चले जाएं। अब वही मदनी बंधु मदरसों के सर्वे का समर्थन कर रहे हैं। तीसरा बहुत बड़ा काम पीएफआई पर एक्शन का हुआ है। पीएफआई इस देश में गृह युद्ध की तैयारी कर रहा था। इसको सामान्य तरीके से मत लीजिए। सीएए विरोधी आंदोलन- दिल्ली दंगा- उत्तर प्रदेश के कानपुर, सहारनपुर और प्रयागराज के दंगे- कर्नाटक का हिजाब आंदोलन- सबमें पीएफआई की सक्रिय भूमिका की बात सामने आई है। अभी सबसे ताजा खबर यह है कि पीएफआई पर छापों के बाद केरल में बंद का आह्वान किया था इस संगठन ने। इस दौरान पांच-छह जिलों में हिंसा हुई है। केरल हाईकोर्ट ने उस हिंसा का स्वतः संज्ञान लिया। इससे पहले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। पीएफआई की जो ताकत थी, वह थी इस देश में वैमनस्य बढ़ाने की, हिंदू-मुस्लिम तनाव, धार्मिक उन्माद पैदा करना, आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा देना- उस पर एक्शन हुआ है। अभी तक हम सभी लोग- जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं- यही सोच कर आश्चर्यचकित होते थे कि आखिर केंद्र सरकार पीएफआई पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा रही है। देश विरोधी इतनी सारी गतिविधियों में पीएफआई शामिल रही है, उसके बावजूद सरकार इस पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा रही है। सरकार को यह मालूम है कि प्रतिबंध से कोई हल नहीं निकलता है। प्रतिबंध लगा देंगे तो वे विक्टिम कार्ड खेलेंगे और दूसरे नाम से नया संगठन बना लेंगे। ये जो बैन है वह ‘बैंडेड’ और अब जो हुआ है वह है ‘सर्जरी’। इस फर्क को समझिए। बैंडेड लगाकर आप कैंसर का इलाज नहीं कर सकते, उसके लिए सर्जरी ही करनी पड़ती है और वही सर्जरी की गई है।
मोदी, योगी और भागवत का त्रिकोण
इसके अलावा सरसंघचालक मोहन भागवत की मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाकात का भी मैंने विरोध था। मेरी नजर में उन लोगों से मिलने का कोई फायदा नहीं है। सरसंघचालक ऐसे लोगों से मिलते हैं तो इनको अपने समाज में लेजिटिमेसी मिलती है कि हमारी आवाज सुनी जाती है, हमसे पूछा जाता है- इसलिए मैंने विरोध किया था। इनकी सोच या अप्रोच का विरोध नहीं है- उसमें कोई गलती नहीं है। इमामों के संगठन के मुखिया से भी भागवत मिले जिसको मैं बहुत बड़ा डेवलपमेंट मानता हूं। आप उसको जोड़िए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के कदमों से। जो वे कर रहे हैं वही मोहन भागवत कर रहे हैं। ये एक त्रिकोण बन रहा है। भारत के मुस्लिम समाज में जो एक फॉल्टलाइन है वह है देवबंदी, वहाबी, तालिबानी और तब्लीगी जमात। दूसरे हैं बरेलवी जो सुन्नी हैं। ये मजार और दरगाह चलाते हैं। बरेलवियों को ये देवबंदी, वहाबी, तब्लीगी और तालिबानी मजार पुजवा मुसलमान कहते हैं। 95 फीसदी सुन्नी बरेलवियों के साथ हैं लेकिन देवबंद की ताकत आपको ज्यादा दिखाई देती है क्योंकि देवबंद के पास इंटरनेशनल पावर है। उन्हें विदेशों से पैसा और समर्थन मिलता है। विदेशी ताकतें, खासतौर से इस्लामी देश जब उनके साथ खड़े होते हैं तो संख्या में कम होने के बावजूद उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है। नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार देवबंदियों की उपेक्षा की है। ये जो आप उबाल देखते हैं यह उसी वजह से है। इन्हीं लोगों के बीच में उबाल है। दूसरा है तब्लीगी जमात जिसका काम ही है गांव-गांव में घूमकर बरेलवियों के खिलाफ माहौल बनाना, दीनी तालीम को आगे बढ़ाना और मुसलमान कैसे सच्चे मुसलमान बन सकते हैं इसके बारे में बताना।
बुनियादी बदलाव का प्रयास
आप याद कीजिए कि कोरोना के दौरान मार्च 2020 में जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल तब्लीगी जमात के मौलाना साद से मिलने गए थे तो बड़ा हल्ला मचा था। वह दिन है और आज का दिन- आपने उसके बाद तब्लीगी जमात का नाम सुना- मौलाना साद को कहीं बोलते सुना- तब्लीगी जमात शांत हो गई है। क्या हुआ मुझे नहीं मालूम। डोभाल ने उनसे क्या कहा, क्या आश्वासन लिया, क्या आदेश दिया, किस तरह से उनको डराया या समझाया- कुछ नहीं मालूम। लेकिन तब्लीगी जमात तब से बिल्कुल सन्नाटे में है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2021 में उनका सम्मेलन होना था जिसकी इजाजत प्रशासन ने पहले दे दी लेकिन बाद में रोक लगा दी। वे चुपचाप मान गए, विरोध में कहीं से एक भी आदमी खड़ा नहीं हुआ। इस परिवर्तन को देखिए, इस देश की सामाजिक संरचना में बुनियादी परिवर्तन का प्रयास हो रहा है। इसको सिर्फ चुनाव की दृष्टि और चुनावी लाभ-हानि के चश्मे से मत देखिए। संघ, मोदी, योगी इस तिकड़ी को याद रखिए- ये जो कर रहे हैं आने वाली पीढ़ियों के लिए कर रहे हैं। ये सिर्फ अपनी सरकार बनाने के लिए या चुनाव जीतने के लिए नहीं कर रहे हैं- चुनाव में जीत तो इसका फ्रिंज बेनिफिट है। चुनाव तो छोटी लड़ाई है- असली युद्ध तो वह है जिसमें ये जुटे हुए हैं।
मोदी-योगी सरकार के ये तीन कदम और उसमें संघ के कदम को मिला दें तो ये भारत की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था में बुनियादी फर्क लाने वाले हैं। यह लंबी रेस है, इसमें 100 मीटर के आधार पर विजेता तय नहीं होगा। इसलिए इनके कदम को आप परंपरागत राजनेताओं के कदमों- खासतौर से जो सत्ता में हैं उनके कदमों- की तरह देखना बंद कर दीजिए और नए तरीके से देखिए। ये नए भारत का निर्माण कर रहे हैं।