स्मरण: बिशन सिंह बेदी (25 सितम्बर 1946 – 23 अक्टूबर 2023)
परवेज अहमद ।
बिशन सिंह बेदी यानी आल-इन वन। बेबाकी, साफ़गोई, आक्रमक्ता के लिए ‘बदनाम’… जज़्बाती भी उतने ही… मोम-सा दिल… एक इशारे में पिघलने के लिए तैयार…।
बात 1999-2000 की है। मैं ज़ी न्यूज़ में था। मैच फ़िक्सिंग का मामला अपने शबाब पर चल रहा था। मैंने बिशन पा जी को फ़ोन किया और उनके सामने रात नौ बजे प्राइम टाइम में हिस्सा लेने का प्रस्ताव रखा।
उनका सवाल था, “दस हज़ार रुपए मिल जाएंगे न?”
यह सच था कि वह कोई भी काम मुफ़्त में नहीं करना चाहते थे। वह अपनी ‘महारत’ का जाइज़ मेहनताना लेना चाहते थे। उसमें कुछ गलत भी नहीं था। उन दिनों भी गुड़गांव से नौएडा आने में एक घंटा तो लग ही जाता था। कई बार वह इस तवील सफ़र की कोफ़्त से बचना भी चाहते थे।
मैंने कहा, “पा जी… यह कुछ ज़्यादा नहीं है?”
उनका सादा-सा जवाब था, “आप देख लो। “
मेरी इज़्ज़त भी दांव पर लगी थी क्योंकि मैंने उन्हें प्राइम टाइम में लाने की ज़िम्मेदरी ली थी। मैंने कहा, “पा जी, मेरा आपका एक रिश्ता और भी है। आप 1965 में, नार्थ ज़ोन इंटर्वर्सिटी क्रिकेट खेलने उज्जैन आए थे न, पंजाब यूनिवर्सिटी के साथ?”
काफ़ी देर सोचने के बाद वह बोले, “हां… आया था।”
“तब आपको टैम्पो में बैठाकर उज्जैन किसने घुमाया था। क्षिप्रा नदी, कालियादेह पैलेस, महाकाल मंदिर देखने आप किसके साथ गए थे?”
उन्होंने हैरानी से पूछा, “आप उज्जैन से हो… पहले कभी बताया नहीं!”
मैंने कहा, “मौक़ा ही नहीं मिला… हो सकता आज के लिए बचा कर रखा हो… ट्रम्प कार्ड…।”
उनका जाना पहचाना-सा क़हक़हा उभरा, फिर बोले, “गाड़ी भेज दो।“
मैंने उन्हें समझाया कि गाड़ी के आने-जाने में बहुत समय लग जाएगा। आप अपनी गाड़ी से आएं, सब ख़्याल रख लिया जाएगा।
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ठीक साढ़े आठ बजे वह ज़ी न्यूज़, सेक्टर-16-नौएडा, पहुंच चुके थे। बड़ी गर्मजोशी से गले मिले और हैरानी से बोले, “आपने इतनी पुरानी बात याद रखी ?“
मैंने बताया, “पा जी… यूनिवर्सिटी लेवल पर कोई नामी-खिलाड़ी तो आते नहीं थे। पूरे शहर को सिर्फ़ एक ही खिलाड़ी का इंतज़ार था… बिशन सिंह बेदी… क्योंकि आप पंजाब की तरफ़ से रणजी ट्राफ़ी खेल चुके थे और पहले ही सीज़न में दिल्ली जैसी मज़बूत टीम के ख़िलाफ़, दोनों इंनिग्ज़ में छह छह… यानी मैच में बारह विकेट ले चुके थे। एक और बात…..उसी मैच में दिल्ली के कप्तान नवाब पटौदी ने दोनों पारियों में शतक जमाए थे। उस टूर्नामेंट से आपके अलावा जो दूसरा खिलाड़ी भारत की टीम से खेला, वह थे पार्थसारथी शर्मा… वह जयपुर यूनिवर्सिटी से आए थे।
उनके चेहरे पर मुस्कुराहकट थी और आंखों में आश्चर्य, “इतना सब कुछ याद है आपको?”
मैंने कहा, “इसीलिए तो आप यहां बैठे हैं।“
प्राइम टाइम प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद उनको कार में बैठाते ही मैंने एक लिफ़ाफ़ा उनकी तरफ़ बढाया, “पा जी… आज तक हमने किसी को दो हज़ार रुपए से ज़्यादा नहीं दिए हैं… आपके लिए पांच हज़ार हैं।“
उन्होंने कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए… आज तो मैं तो आपके लिए आया हूं।“
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, “यह तो कम्पनी दे रही है, मैं नहीं दे रहा हूं।“
लेकिन वह अपने फ़ैसले पर क़ायम थे।
मैंने कहा, “चलिए अपनी गाड़ी से आएं हैं, पेट्रोल और ड्राइवर के लिए ले लीजिए।“
उन्होंने लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ से लिया। उसमें से पांच पांच सौ के तीन नोट निकाले और लिफ़ाफ़ा वापस कर दिया।
चेहरे पर वही जानी-पहचानी मुस्कुराहट।
कमाल की फ़राग़-दिली
उनकी फ़राग़-दिली भी कमाल की थी।
बात 1972 की है। टॉनी ल्युइस की इंग्लैंड टीम और भारत के बीच, दिल्ली में पहला टेस्ट मैच खेला गया था। हमें पहली बार टेस्ट मैच देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हम भी हज़ारों क्रिकेट प्रेमियों की भीड़ का हिस्सा थे।वह मैच इंग्लैंड के खाते में गया। भारतीय टीम बड़ी थकी-थकाई दिखाई पड़ रही थी। इंग्लैंड की दोनों पारियों में, सलामी बल्लेबाज़ डेनिस एमिस के विकेट बेदी के हिस्से में आए थे। मैच के बाद कई खिलाड़ी नेट प्रैक्टिस के लिए मैदान में उतर आए थे। उनमें डेनिस एमिस भी पैड-वैड बांधकर बैटिंग कर रहे थे। हैरानी की बात यह थी कि उन्हें बेदी अपनी बॉलिंग पर प्रैक्टिस करवा रहे थे। हमने सोचा दोनों इंग्लिश काउंटी क्रिकेट में खेलते हैं इसीलिए दोस्ती होगी। लेकिन दूसरे दिन के अख़बारों में इसी बात के लिए बेदी की आलोचना की गई थी। सभी का कहना था कि जब दोनों देशों के बीच सीरीज़ चल रही हो तो दोस्तियां नहीं निबाही जातीं। यह तो दुश्मन के क़दमों में अपने हथियार रखने जैसा है। लेकिन बेदी तो बेदी थे। दूसरा टेस्ट कलकत्ता में खेला गया। डेनिस एमिस का विकेट फिर बेदी के हिस्सें में आया। इस तरह उन्होंने साबित कर दिया कि उनकी कला और क्रॉफ़्ट को समझ पाना बच्चों का खेल नहीं है।
रन-अप, बॉलिंग एक्शन, लेंग्थ, लाइन, स्पिन… सब कुछ एक लय में… एक धागे में पिरोई गई माला की तरह।
जाने माने पत्रकार राजू भारतन ने बेदी की इसी कला को पांच शब्दों में क्या ख़ूब बयान किया था। अंग्रेज़ी साप्ताहिक-पत्रिका इलस्ट्रेटैड वीकली में राजू भारतन ने स्पिन-तिकड़ी यानी प्रसन्ना, चंद्रशेखर और बेदी पर एक तफ़सीली लेख लिखा था। लेख तो ज़बरदस्त था ही लेकिन उन्होंने इन तीनों महान बॉलरों की, बॉलिंग एक्शन वाली तस्वीरों के साथ जो कैप्शन लगाए थे, वह उस पूरे लेख की जान थे।
सबसे पहले प्रसन्ना की तस्वीर थी, जिसके नीचे लिखा था, “He thinks, then he bowls.”
दूसरी तस्वीर चंद्रशेखर की थी। जिसके नीचे लिखा था, “He bowls, then he thinks.”
तीसरी तस्वीर बेदी की थी जिसके नीचे लिखा था, “Bowling…thinking…. in one action.”
जैसी ब़ॉलिंग, वैसी ही शख़्सियत
अगर अपने फ़न में उनका कोई जोड़ नहीं था… तो शख़्सियत में भी उनका कोई तोड़ नहीं था।
सन 1971, वह उनका पहला वेस्टइंडीज़ दौरा था। पहले टेस्ट मैच की पूर्व संध्या को टीम मीटिंग में कप्तान अजित वाडेकर ने कहा, “हमें जैसे-तैसे पहला टेस्ट ड्रॉ करवाना होगा।“
बेदी तुरंत खड़े हो गए, ”Why to draw… Captain? Why not to win?”
इससे पहले वेस्ट इंडीज़ में, वेस्ट इंडीज़ जैसी ताक़तवर टीम के ख़िलाफ़ जीत की बात किसी ने सोची तक नहीं थी। हो सकता है उस मीटिंग में भी बेदी की बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया हो… लेकिन जैसा कि माना जाता है ‘बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी’। बात निकली… बहुत दूर तलक गई भी… उसने खिलाड़ियों के मन-मस्तिष्क में जगह बनाई और बहुत जल्द… यानी उसी दौरे पर ऐतिहासिक नतीजे सबके सामने आए। गैरी सोबर्स की शक्तिशाली टीम के सामने, उनके ही मैदान पर भारतीय टीम ने तिरंगा फहरा दिया।
अंधेरे उजाले
हर खिलाड़ी के जीवन में उरूज और ज़वाल आता है। उरूज यानी चकमक, ज़वाल… घुप्प अंधेरा।
सन 1978 में पाकिस्तान के उस दौरे पर भारतीय टीम के साथ मैं भी गया था। कराची में सीरीज़ का आंतिम टेस्ट, अंतिम दिन, टी-टाइम के बाद मैच में संघर्षमय स्थिति बनी हुई थी। दोनों पारियों में सुनील गावस्कर के शतकों के बावजूद मैच भारत के हाथों से फिसलता दिखाई दे रहा था। तभी भारतीय क्रिकेट बोर्ड की तरफ़ ऐलान हुआ जिसके तहत, वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ खेली जानेवाली घरेलू सीरीज़ के लिए बेदी के स्थान पर सुनील गावस्कर को कप्तान बना दिया गया। बेदी मैदान में डटे हुए थे… सब जानते थे… उनके सिर से कप्तानी का ताज उतारा जा चुका था। उसी रात, एक भव्य समारोह में, वह पाकिस्तान के तानाशाह ज़िया उल हक़ के हाथों ट्रॉफ़ी ले रहे थे। सबको पता था, जो कप्तान ट्रॉफ़ी ले रहा था, दरअसल वह अब कप्तान था ही नहीं। उगते सूरज को सलाम करने की पुरानी परम्परा है… उसमें किसी का दोष नहीं। टीम के खिलाड़ी गावस्कर के आसपास मंडराने लगे थे। लेकिन जो शख़्स दूल्हा की तरह घोड़े पर सवार हो कर आया था… बाराती की तरह लौट रहा था। सीरीज़ हार का मलाल और इस अपमान की रेखाएं… बेदी के चाहरे पर साफ़ पढ़ी जा सकती थीं।
तीसरा टेस्ट ख़त्म होने के दूसरे ही दिन ही टीम को स्वदेश वापस आना था। यह बात आज तक समझ में नहीं आई कि अपने कप्तान की इज़्ज़त के ख़ातिर… कप्तान बदलने का फ़ैसला सिर्फ़ एक दिन के लिए क्यों नहीं रोका जा सकता था?
आखिरी मुलाक़ात बेहद दिलचस्प
उनसे मेरी आखिरी मुलाक़ात बेहद दिलचस्प रही। चार-पांच साल पहले की बात है। डीडीसीए मेनेजमैंट के खिलाफ़ कीर्ति आज़ाद के नेतृत्व में आन्दोलन चल रहा था। बिशन बेदी भी उनके साथ थे। एक दिन मैं भी फ़ीरोज़शाह कोटला स्टेडियम गया। वहां बिशन पा जी से मुलाक़ात हुई। थोड़ी देर बातचीत के बाद उन्होंने कहा, “आपने मुझे अपना नम्बर नहीं दिया?”
“मैंने कई बार आपको फ़ोन किए हैं… आपने नम्बर सेव नहीं किया होगा।“
“बोलो”
मैंने अपना नम्बर बोला
नम्बर लिखकर उन्होंने कहा, “अरे…यह तो मेरा नम्बर है ?”
मैंने कहा, “पा जी… यह मेरा नम्बर है।”
“ठीक से देखो आप….मेरा नम्बर ही मुझे दे रहे हो।”
मैंने अपने फ़ोन में उनका नम्बर निकाला। मैं भी आश्चर्यचकित था। इससे पहले मैंने भी कभी ध्यान नहीं दिया था।
मैंने दोनों नम्बर उनके सामने रखे और बताया, “आपके और मेरे सेल नम्बर में सिर्फ़ एक अंक का फ़र्क़ है। मेरे अंतिम तीन अंक हैं….371, और आपके अंतिम तीन नम्बर हैं 671… बाक़ी पूरे नम्बर एक से ही हैं।“
उनके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई, “अच्छा… हम इतने क़रीब हैं।”
मैंने कहा, “जी, इतने करीब हैं और… इतने ही क़रीब रहेंगे।“
उनका चेहरा तरोताज़ा फूल की तरह खिल गया था। मैंने उस चेहरे को अपनी आंखों में क़ैद कर लिया था… जो आज भी मेरे साथ है और हमेशा साथ रहेगा।
अलबिदा… बिशन पा जी… आप जैसा कोई नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)