#pradepsinghप्रदीप सिंह।

बॉलीवुड में इन दिनों बायकॉट की बड़ी चर्चा हो रही है। सोशल मीडिया पर इसे लेकर अभियान चलाए जा रहे हैं। इसके बाद से सारी लेफ्ट-लिबरल बिरादरी यह जताने में लग गई है कि देखो कितना गलत हो रहा है, कितना अन्याय हो रहा है। एथिक्स का सवाल उठाया जा रहा है। मुझे यह पढ़कर और देखकर हंसी आई कि ‘ये लोग’ एथिक्स की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आप बिना फिल्म देखे कैसे फिल्म का बायकॉट कर सकते हैं, यह तो अनएथिकल है। इसके अलावा यह कह कर इमोशनल ब्लैकमेल की कोशिश कर रहे हैं कि फिल्म से हजारों लोगों का रोजगार जुड़ा है। कलाकार, डिस्ट्रीब्यूटर और दूसरे लोग जो फिल्म के निर्माण में लगे हुए हैं उनके रोजगार का क्या होगा, उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ रहा है, उनके परिवार के बारे में सोचिए।

शुरुआत कैसे हुई

आपने कभी इस देश के बारे में सोचा- आपने कभी इस देश की संस्कृति, 100 करोड़ से ज्यादा हिंदुओं के बारे में सोचा- नहीं सोचा। आपको लगा कि यह ऐसी कौम है जिस पर कोई भी अत्याचार करो, ये जब एक हजार साल की गुलामी सह सकते हैं तो हम कुछ भी कहें, कुछ भी बनाएं, कुछ भी दिखाएं- सब बर्दाश्त कर लेंगे। जिस परिवर्तन की मैं बात करता हूं वह यही हुआ है। जो सनातनी अभी तक सब कुछ बर्दाश्त करता था उसने कह दिया कि अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे। बॉलीवुड का यह जो स्वरूप आपको देखने को मिल रहा है जिसका बायकॉट करने की नौबत आई है- उसकी शुरुआत कैसे हुई? पहली मूक फिल्म बनी थी 1913 में जिसका नाम था राजा हरिश्चंद्र। दादा साहब फाल्के ने पत्नी के गहने बेचकर यह फिल्म बनाई थी। यह फिल्म भारतीय संस्कृति का प्रतीक थी- सनातन संस्कृति के अनुरूप थी- इस देश का जो मूल स्वरूप है उसके अनुरूप थी। उसके बाद पहली बोलने वाली फिल्म 1931 में बनी जिसका नाम था आलम-आरा। मुस्लिम थीम पर बनी थी। वहां से यह सिलसिला शुरू हुआ। बोलने वाली फिल्म के साथ ही उर्दू, अरबी, फारसी शब्दों का फिल्मों में धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा। 1936 में प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसिएशन की कॉन्फ्रेंस हुई। उसमें तय हुआ कि हमारी जो विचारधारा है, हमारी जो सोच है, हम जो लोगों को बताना, दिखाना और पढ़ाना चाहते हैं- उसको उसके अनुसार अमल में लाने का, उसको जमीन पर उतारने का समय आ गया है।

इप्टा का गठन

इसके लिए 1941 में बना इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन)। इसमें जो लोग थे उसी से आपको सब समझ में आ जाएगा। इसमें घोर इस्लामिस्ट और वामपंथी लोग थे। इससे बाहर के किसी आदमी की इसमें एंट्री भी नहीं थी। इसके लिए ऐसे ही लेखक, गीतकार, डायरेक्टर और एक्टर चुने गए। उनमें कोई फर्क मत कीजिए कि वे हिंदू थे या मुसलमान, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान उनका एजेंडा एक ही था और वह आज तक है। जो आमिर खान करते हैं वही अजय देवगन और अक्षय कुमार भी करते हैं। भले ही अक्षय कुमार और अजय देवगन से प्रधानमंत्री के बड़े अच्छे संबंध हों लेकिन इनमें और आमिर खान में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। इसलिए बायकॉट का असर इनकी फिल्मों पर भी पड़ रहा है। यह जो बायकॉट हो रहा है वह इसलिए नहीं हो रहा है कि फिल्म में क्या है। लोग कह रहे हैं कि फिल्मों को देखे बिना आपने बायकॉट कर दिया, यह तो अनएथिकल है। सही बात है, फिल्म को देखकर तो यह नहीं कर सकते कि इसको देखा जाना चाहिए या नहीं। देखने से पहले ही तो उसको देखने या न देखने का फैसला होगा। देखने के बाद कैसे बायकॉट कर सकते हैं। सवाल यह है कि बायकॉट किसलिए किया जा रहा है? यह बात अभी तक आपकी समझ में नहीं आई है। आप जो ये रोना रो रहे हैं कि कितने लोग जुड़े हैं इससे, उनका क्या होगा- तो भाई कहीं भी वैक्यूम नहीं रहता है। दक्षिण की फिल्में, खासतौर से तेलुगु और तमिल की फिल्में बंपर कमाई कर रही हैं और उससे जुड़े लोगों का भला हो रहा है, उसका विस्तार हो रहा है। कहीं कमी तो कहीं ज्यादा- यह तो होता ही रहता है। सवाल यह है कि तेलुगु और तमिल की फिल्में क्यों नहीं फ्लॉप हो रही हैं- इनका बायकॉट क्यों नहीं हो रहा है- क्यों इन फिल्मों को देखने के लिए लोग घंटों लाइन में लगकर टिकट खरीद रहे हैं। जबकि आपकी फिल्में जिस दिन थिएटर में लगती हैं उसी दिन लोग तय कर लेते हैं कि देखने नहीं जाना है। इसके बारे में कुछ तो सोचिए।

भारतीय संस्कृति के विरोध का नैरेटिव

आप कह रहे हैं कि उस फिल्म का कंटेंट अच्छा नहीं था लेकिन इस फिल्म का तो अच्छा था, उसका भी बायकॉट कर दिया। बायकॉट इसलिए नहीं किया कि फिल्म का कंटेंट अच्छा है या खराब है, फिल्में पहले भी फ्लॉप और सुपरहिट होती रही हैं, यह कोई नया ट्रेंड नहीं है, यह एक मैसेज देने की कोशिश है जिसको आप समझ नहीं पा रहे हैं। आप कह रहे हैं कि गलती हो जाती है, अरे भाई गलती हो जाती है तो माफी तो मांगो। किसी ने माफी मांगी, बॉलीवुड के अभिनेता, लेखक, निर्माता, निर्देशक ने माफी मांगी कि हमसे गलती हो गई। हम जो दिखा रहे थे नहीं दिखाना चाहिए था, हम जो बता रहे थे नहीं बताना चाहिए था। यह सिर्फ फिल्मों में नहीं हुआ है यह हमारे पाठ्यपुस्तकों में भी हुआ है। एनसीईआरटी की किताबें जो उस समय बनी थी उसे आप देख लीजिए। उनमें यही सब पढ़ाया गया, मुगलों और मुसलमानों का वर्चस्व दिखाया गया और हिंदू और सनातनी को घटिया दिखाया गया, उनको कमतर दिखाया गया। यह पढ़ाया भी जाता रहा, दिखाया और सुनाया भी जाता रहा- गीतों, कविताओं के माध्यम से, कहानियों और उपन्यास के माध्यम से। एक तरह का नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश हुई और उनको भारी सफलता भी मिली। हम उस नैरेटिव का मूक समर्थन करते रहे। वह नैरेटिव था हिंदू विरोध का, सनातन के विरोध का, हर उस चीज के विरोध का जो भारतीय है, जो भारत से जुड़ा हुआ है और जो भारत की मूल आत्मा से जुड़ा हुआ है। उससे जुड़ी हर चीज को खराब बताओ, उसकी निंदा करो, उसका मजाक उड़ाओ।

बंद हो सनातन विरोधी एजेंडा

फिल्मों में आप देखिए कि हत्या करने वाला या बलात्कारी, जितने भी इस तरह के कैरेक्टर मिलेंगे- पहली बात तो ये कि सब टीका लगाए हुए होंगे। वो हत्या या बलात्कार करने जा रहा होगा तो या तो पूजा कर रहा होगा या उसके माथे पर तिलक लगा होगा। कभी आपको किसी दूसरे मजहब के बारे में एक शब्द देखने को नहीं मिलेगा। कभी मिलेगा भी तो उसको सही ठहराने की कोशिश की जाएगी। एक फिल्म आई थी निकाह। उसमें हलाला जैसी घटिया हरकत को भी जस्टिफाई किया गया। ये जो घटिया परंपरा है जिसे परंपरा कहने में भी शर्म आती है उसको जस्टिफाई किया गया। एक मौलाना को बुला कर उससे जस्टिफिकेशन दिलाया गया। ये जो विरोध हो रहा है वह इसके लिए हो रहा है। यह किसी ‘लाल सिंह चड्ढा’, किसी ‘दोबारा’ के लिए या उसके राइटर कौन हैं, उसका एक्टर-डायरेक्टर कौन है इसलिए नहीं हो रहा है। मूल बात तो आप समझ ही नहीं रहे हैं कि हिंदू विरोध का एजेंडा बंद करो। सिर्फ एक वाक्य की यही मांग है कि सनातन धर्म के विरोध का, भारत के विरोध का जो एजेंडा है उसको बंद करो। ऐसी फिल्में बनाना बंद करो, नहीं तो उसका नतीजा जो अभी हो रहा है, वही होता रहेगा। ऐसे लोगों से फिल्में लिखवाना बंद करो जिनके दिमाग में हिंदू विरोध का लावा भरा है। उनको बस मौका चाहिए। कम्युनिस्ट खुद को नास्तिक कहते हैं। ये सिर्फ हिंदू धर्म के मामले में नास्तिक हैं। हिंदू धर्म का विरोध ही इनकी नास्तिकता की पहचान है। और किसी मजहब के बारे में उनकी ऐसी सोच नहीं है।

मजाक उड़ाना बंद करो

अब देखिए कि किस-किस तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। लाल सिंह चड्ढा के बारे में कहा जा रहा है कि यह फिल्म भारत में भले फ्लॉप हो गई विदेश में तो सफल हो गई। बिल्कुल होगी- क्यों नहीं होगी- आप उनकी मर्जी के मुताबिक कंटेंट दे रहे हैं तो सफल तो होगी ही। आप भारतीय सेना को घटिया दिखाएंगे, आप भारत को, हिंदू धर्म को, भारतीय संस्कृति को घटिया दिखाएंगे, उसका मखौल उड़ाएंगे तो निश्चित रूप से वह फिल्म विदेश में चलेगी ही। बाहर फिल्म चलने का एक और कारण होता है कालाधन को सफेद करने का, यह सबसे बड़ा जरिया बन गया है। इसलिए आप देखिए कि ज्यादातर फिल्म स्टार्स ओवरसीज राइट्स खरीदने में सबसे आगे रहते हैं। वे जो बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं उनमें ज्यादा हिस्सा कालेधन का होता है, उसको सफेद करने का भी एक धंधा है। फिल्म विदेश में चली या नहीं चली, इससे कोई मतलब नहीं है। जहां तक भारतीय समाज की बात है तो भारतीय समाज ने एक बात तय कर ली है कि हमारे देश को जो घटिया बताएगा, हमारी संस्कृति को, धर्म को जो घटिया बताएगा, उसका मजाक उड़ाएगा उसकी फिल्म नहीं देखेंगे। लाल सिंह चड्ढा को यह सजा नहीं मिली है, आमिर खान ने पीके में जो किया उसकी सजा मिली है। कायदे से यह सजा जब पीके बनी थी तभी मिलनी चाहिए तो शायद यह ट्रेंड रुक गया होता लेकिन तब तक हम लोग सो रहे थे। अब जागे हैं, अब समझ में आ रहा है कि हम अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे थे। हम ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रहे थे जो हमारी संस्कृति, धर्म, सभ्यता, रीति-रिवाज के खिलाफ काम कर रहे थे, उसका मजाक उड़ाने का काम कर रहे थे। उनके लिए हमारी संस्कृति, धर्म का मजाक उड़ाना पैसा कमाने का जरिया बन गया और हम सब उसमें सहायक बने रहे।

रुदाली ब्रिगेड की बातों में मत आइए

ये जो रुदाली ब्रिगेड चल रही है- ये जो किराये के रोने वाले आए हैं- उनकी इन बातों में मत आइएगा कि फिल्मों से कितने लोग जुड़े हुए हैं, उनके रोजगार का क्या होगा। कभी देश और संस्कृति के बारे में भी इस तरह से सोचा था इन लोगों ने कि लोगों के दिलों पर क्या गुजरती होगी जब भगवान का मजाक उड़ाते हो, फिल्मों में जब ऐसे डायलॉग लिखते हो तब यह बात समझ में आती थी। अभी भी यह बात समझ में नहीं आ रही है। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वे कुछ गलत कर रहे थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है वह धमकी जो अर्जुन कपूर ने दी कि बॉलीवुड को इकट्ठा होकर इनको जवाब देना चाहिए। अरे भाई किसको जवाब दोगे, घटिया प्रॉडक्ट बनाने वाली कंपनी अपने ग्राहक को जवाब देगी, धमकी देगी, कमाल है। इसका मतलब यह है कि ये दिमागी रूप से दिवालिया हैं, इनको समझ में नहीं आता है कि ये जो बोल रहे हैं उसका मतलब क्या है। एक फ्लॉप अभिनेता जिसको परिवार की वजह से फिल्में मिलती हैं, उनमें भी कुछ चलती हैं कुछ नहीं चलती हैं वह दर्शकों को धमकी दे रहा है कि अब हम जवाब देंगे तुमको। जवाब किसे मिल रहा है ये देख लें। अभी और बहुत से लोगों को जवाब मिलेगा। इस बात में बिल्कुल मत आइएगा कि कितने लोग जुड़े हुए हैं, उनका क्या होगा क्योंकि आजकल फिल्मों के तमाम राइट्स बिकते हैं। फिल्म केवल थिएटर में नहीं चलती है, उनके म्यूजिक्स राइट्स बिकते हैं, ओटीटी राइट्स, ओवरसीज राइट्स तमाम तरह के राइट्स से फिल्म की लागत निकल ही आती है। जो लोग फिल्म निर्माण से जुड़े होते हैं उनको फिल्म बनते समय ही पैसा मिल जाता है।

दर्शकों ने उतारा स्टारडम का नशा

ऐसा नहीं है कि कोई भूखा मर रहा है लेकिन हां, सुपरस्टार का, स्टारडम का जो भूत था वह भारत के लोगों ने उतार दिया। हम सुपरस्टार हैं और उसी स्टारडम का वह भूत था जिसने करीना कपूर से बुलवाया कि अगर हमारी फिल्में नहीं देखना चाहते तो मत जाओ देखने के लिए… अब नहीं जा रहे हैं तो रो रहे हैं। भाई, यह तय कर लो कि जाएं या न जाएं। स्टारडम का भूत कि यह फिल्म फलां सुपरस्टार की है, बादशाह की है, किंग की है तो चलेगी ही, उनकी फिल्म को कौन रोक सकता है- स्टारडम के इस नशे को लोगों ने उतार दिया। उनको जमीन पर ला दिया। इनको अपनी असली औकात पता चल गई कि जो कुछ हैं वो दर्शक हैं। अच्छी स्क्रिप्ट होगी, अच्छी एक्टिंग होगी, अच्छा लेखन होगा, अच्छी फोटोग्राफी, टेक्निकली अच्छी फिल्म होगी और किसी का मजाक उड़ाने, किसी एजेंडे के मकसद से नहीं बनी होगी तो चलेगी ही, लोग देखेंगे। लेकिन अगर पहले से तय है कि हमारा एजेंडा क्या है और उसी एजेंडे पर फिल्म बनेगी तो आपको पता चलेगा कि उसका हश्र वही होगा जो लाल सिंह चड्ढा और दोबारा का हुआ और आने वाले समय में यह और होने वाला है। यह जरूर होना चाहिए। किसी भी परिवर्तन के लिए जरूरी है यथास्थिति को तोड़ना। अगर आप यथास्थिति को तोड़ेंगे नहीं तो बदलाव होगा नहीं- और बदलाव इसी दबाव से होगा। कोई नहीं कह रहा है कि आप हिंदू धर्म के जयकारे पर फिल्म बनाइए- लेकिन हिंदू धर्म का मजाक तो मत उड़ाइए। इतनी छोटी सी तो मांग है कि जो सही है वह दिखाइए- झूठ दिखाना बंद कर दीजिए- हम लोगों को बरगलाना बंद कर दीजिए- गलत इतिहास को दिखाना बंद कर दीजिए। अक्षय कुमार की फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के बारे मं  यह कहा जाता है कि सरकार ने उसके लिए अभियान चलाया। वह तो सरकार के करीबी लोगों ने बनाई थी फिर भी फ्लॉप हो गई। आप पृथ्वीराज चौहान से उर्दू और फारसी के शब्द बुलवा रहे हैं… किस जमाने की बात कर रहे हैं… गलत इतिहास दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। पृथ्वीराज रासो जिसके आधार पर यह फिल्म बनी उसकी प्रमाणिकता पर ही सवाल है। उसमें जो बातें कही गई हैं वह कितनी सच हैं उसी पर सवाल है।

कंटेंट इज किंग। फिल्म हो, चाहे मीडिया- कंटेंट खराब होगा तो नहीं चलेगा। खराब कंटेंट को अभी तक लोग चला रहे थे। अब लोगों ने उसको चलाना बंद कर दिया। सिर्फ इतना फर्क पड़ा है। किसी स्टार से, किसी हिंदू से, मुसलमान से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ एक बात से लेना-देना है कि सच दिखाओ और इस देश का और इस देश की संस्कृति का उपहास करना बंद कर दो। इतनी छोटी सी मांग है। यह इनके समझ में नहीं आ रहा है तो फिर भुगतने के लिए तैयार रहें।