सत्यदेव त्रिपाठी ।

पिछले चार दशकों से सुबह-सुबह टहलने के लिए अपने घर से जुहू बीच की तरफ जाते हुए इस व्यावसायिक राजधानी मुम्बई की विपन्नता के एक से एक मंजर देखते-देखते दिल-दिमाग इसका अभ्यस्त हो चला था, लेकिन हलचल मचा दी कुछ सालों से पुष्पा नरसी उद्यान के दक्षिण-पश्चिमी कोने की ओर दसवें रोड के तिराहे पर बसे तीन प्राणियों के एक कुनबे ने।


 

अद्भुत नजारा

छह बजे के आसपास जाते हुए वह कुनबा (स्त्री-पुरुष के बीच एक कुत्ता) सड़क की रेलिंग से सटकर फुटपाथ पर सोया रहता। पीछे एक छोटी-सी गाड़ी पर लदा दिखता उनका घर। और साढ़े सात बजे के आसपास टहलकर लौटते हुए स्त्री-पुरुष प्राय: चाय पीते होते या फिर ईटें खड़ी करके बने चूल्हे पर स्त्री कुछ बनाती रहती और पुरुष खेलता होता कुत्ते के साथ। हर हाल में बजता रहता रेडियो। ये खस्ता हाली और ये मस्ती… अद्भुत नजारा!

बेखुदी बेसबब भी नहीं

और यह पूरा दृश्य मुझे सब कुछ जानने के लिए बेतरह खींचता, पर उस मर्द के चेहरे के कठोर अविकारी भाव को देखकर कुछ कहने की हिम्मत न होती। लेकिन इस विरल जीवन का यह अद्भुत नजारा मेरा घर और पूरा मित्र-मण्डल तो जान ही गया। अब इस स्तम्भ के लिए लिखने ने उस दिन हिम्मत जुटा दी, क्योंकि हाशिए की खांटी जिन्दगी तो यही है। लिहाजा निठुर (बोल्ड) होते हुए उस पुरुष के पास जा खड़ा हुआ। और बैठने के लिए इधर-उधर देख ही रहा था कि उसने एक ठीहे (लकड़ी का बैठने जितना बड़ा टुकड़ा) की तरफ इशारा किया और मैं मुतमइन हो उठा कि बात होगी- बने, न बने।

पता लगा कि उसका नाम दिलशेर है और दिलशेर को अपने जन्म व बचपन का कुछ खास पता नहीं- सिवाय इसके कि मुम्बई सेंट्रल में पैदा हुआ। भटकते-भटकते यहां तक पहुंचा। पिता की तरफ से मूल निवास अलीगढ़ है, जहां घर है। उसके भाई लोग रहते हैं। कुछ खेत भी है, लेकिन दिलशेर के लिए ‘वहां कुछ नहीं है, सब मतलबी हैं’। वैसे ‘सब मतलबी हैं’ तकियाकलाम है दिलशेर का और उसे याद न हो, ऐसी बात नहीं, पर वह बताना या बताकर उस दुख को यादों में फिर-फिर जीना नहीं चाहता- ‘रहिमन निज की व्यथा, मन ही राखहु गोय’। और उसकी पोशीदा बयानी को देखते हुए मेरा कयास है कि दिलशेर अपने पिता की दूसरी पत्नी का बेटा होगा, जो उम्मीदन मुम्बई की रही होंगी, जिसके कारण अलीगढ़ के बच्चे इसे भाई नहीं मानते- सो, ये ‘बेखुदी बेसबब भी नहीं’! जो भी हो, लेकिन पूरी दुनिया में है वह अकेला ही।

वह कुछ लगती नहीं, बस साथ रहती है

फिर 25-30 साल के आसपास की उम्र वाले दिलशेर के साथ जो 40-45 साल की महिला रहती हैं, वह भी कुछ लगती नहीं, बस साथ रहती है। आज की ‘लिव-इन’ का उसे पता नहीं, पर ‘दो दुखों के एक सुख’ वाली जिदगी की जरूरत में अनोखे ‘लिव इन’ की एक मिसाल ही है यह। और व्यक्ति-स्वातंत्र्य व आपसी समझदारी की आधुनिकता यह कि ‘शांति नाम है इनका, बाकी आप इन्हीं से पूछ लो कि उन्हें अपने बारे में बताना है या नहीं बताना है’। और सचमुच ही शांति ने अपने गुजरात की होने और परिवार वालों के बोरिवली में रहने के अलावा कुछ भी बताने से साफ इनकार कर दिया। इनके अलावा इसी सड़क से मिला वो टाइगर (कुत्ता) ही है दिलशेर का अपना, जो उसी की तरह सड़क का है, सड़क पर ही मिला भी है और शायद शेष दुनिया की तरह मतलबी नहीं है।

लोग उसे फुटपाथ पर भी रहने नहीं देना चाहते

बाकी तो इस दुनिया के सभी लोग दिलशेर को बिजली-पानी, छत-छांव से महरूम इस फुटपाथ पर भी रहने नहीं देना चाहते। ‘बासी भात में खुदा का साझा’ की तरह गुंडे-बदमाश-बेवड़े आए-दिन आके इस लुटे-पिटे दिलशेर को लूटते-खसोटते हैं। कुछ कहने पर मारते भी हैं। अत: चुप लगाके जो चाहें, ले जाने देने के अलावा दूसरा चारा नहीं। किंतु चुप रहने पर भी जाते-जाते एक-दो हाथ लगा ही देते हैं। सौ कदम पर ‘जुहू पुलिस चौकी’ है, लेकिन दिलशेर शिकायत करने नहीं जाता, क्योंकि ‘पुलिस वाले क्या बचायेंगे साहेब, वे लोग तो खुद ही यहां रहने देने का हफ्ता लेते हैं। ऊपर से रोज दम भी देते हैं- जैसे फुटपाथ उनके बाप का हो। म्युनिसिपैलिटी वाले अलग से फाइन मारते हैं- 1200 रुपये एक बार का और सामान गायब हो जाते हैं ऊपर से। महीने में 2-3 बार तो ले ही जाते हैं।’

इतना पैसा पाता कहां से है

तो फिर इतना पैसा दिलशेर पाता कहां से है? क्या चटाई बनाने के अपने हुनर से? ‘नहीं साहेब, चटाई बिकती कहां है इतनी? फिर मुझसे अकेले कैसे बनेगी? आदमी रखते हैं, वो भी भाग-भाग जाते हैं! जो थोड़ी-बहुत बनती भी है, बिकती नहीं। जो बिकती भी है, सड़क का माल समझकर लोग पैसे नहीं देते… औने-पौने भाव में देना पड़ जाता है’। इस तरह वो काम भी नहीं के बराबर है। कई सारी वहां पड़ी हुई चटाइयां इसका प्रमाण दे रही थीं। तो फिर काम न रहने पर दिलशेर दसवें रोड पर ही दिन भर भीख मांगता है, जिससे औसतन 200 रुपये रोज का कमा लेता है। यही उसकी मुख्य आमदनी है, जिसके लिए दोनो पांवों का जन्म से पोलियोग्रस्त होना बहुत मुफीद सिद्ध होता है- गोकि वही उसकी मजबूरी का कारण भी है। पहिये लगी जिस पटरी से वह चलता है, उसी पर से टाइगर के साथ खेलता भी है। वैसे उससे मिलने के पहले जब रोज आते-जाते हुए रेडियो सुनते और लेटकर टाइगर से खेलते गठीले बदन वाले दिलशेर को देखता, तो उसके पंगु होने का अन्देशा तक न हुआ था। अत: उस दिन बड़ा झटका लगा देखकर। फिर भी गुंडों-रुक्खों व पुलिस वालों को रहम नहीं आता।

साहेब आप हैण्डीकैप कोटा में मेरा नाम डलवा दो

दिलशेर को रेडियो पर गाने सुनने के अलावा समाचार वगैरह सुनने का भी थोड़ा-बहुत शौक है। उसे पता है कि देश के प्रधानमंत्री हैं नरेन्द्र मोदी और वे अच्छे प्रधानमंत्री माने जाते हैं, लेकिन उसे क्या, उसके लिए तो कुछ नहीं किया नरेन्द्र मोदी ने या और किसी ने। सो, ‘जाने दो साहेब, सभी मतलबी हैं। मेरे पास ‘हैण्डीकप’ (हेण्डीकैप्ड) की ‘सादीफिटिक’ है, पर किसी ने वो कोटे से भी मेरे लिए कुछ नहीं किया। फिर मुझे भी कटघरे में रखते हुए कह गया कि ऐसे कई लोग आये बात करने, पर बात करके चले गये- किया कुछ नहीं किसी ने। फिर एकदम से सिहाते हुए बोला- ‘साहेब आप यही मेरा काम करा दो। हैण्डीकप कोटा में मेरा नाम डलवा दो। बस, रहने का एक ठिकाना मिल जाये’। कहते हुए उसने प्रमाण के लिए अपना आधार कार्ड व विकलांगता की सर्टीफिकेट दिखा दिया।

मैं तो उसे दिलासा भी न दिला सका… किस बूते दिलाता? बस, यही कह सकता था- क्या करोगे कुछ भी लेकर, जब ‘सब ठाट धरा रह जायेगा क्या बधिया मुर्गा-बैल-शुतुर…’। लेकिन दिलशेर के इस जीवन के सामने यह बैराग का बेराग भी जुबां से न निकला।

हां, ये हैरत लिये हुए जरूर चला आया कि इस पते पर ‘आधार कार्ड’ बना कैसे…!


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