सत्यदेव त्रिपाठी।
उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगीजी ने आम आदमी के लिए एक ‘जन-सुनवाई’ योजना शुरू की है, जिसमें हर महीने के पहले शनिवार को तहसील में जाकर कोई भी अपनी समस्या लिखित रूप में पेश कर सकता है। फिर प्रार्थी की अर्ज़ी की सोपान-दर-सोपान प्रगति का हाल (अपडेट) भी मोबाइल पर मिलता है और उसी महीने में निराकरण होने का अ-निवार्य विधान है। इसी अंकीय (डिजिटल) सूचना-प्रक्रिया के चलते यह योजना इतनी लोकप्रिय हुई है – गोया आम आदमी के हाथ में कोई ब्रह्मास्त्र आ गया हो, जिससे वह अन्याय-अत्याचार का गला काट सकता है।
इसी शोहरत के चलते बड़े अरमान लिये मैं भी गया, लेकिन मालूम पड़ा कि होता कुछ नहीं – जैसे पहले काग़ज़ी घोड़े दौड़ते थे, अब वही अंकीय घोड़े मोबाइल पर दौड़ते हैं, जो पहुँचते कहीं नहीं। मामला वहीं का वहीं रह जाता है – मियाँ ठौर के ठौर…बस, सब सिर्फ़ खाना-पूर्त्ति है…।
तो आइए, बताते हैं कि यह कैसे होता है
मेरा मामला आज़मगढ़ ज़िले की मार्टीनगंज तहसील में स्थित सम्मौपर गाँव का है। मेरी (सत्यदेव त्रिपाठी की) दरखास्त गाँव समाज की ज़मीन पर रमाशंकर गौड़ द्वारा हुए अवैध क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ है, क्योंकि ज़मीन मेरे घर के पास है और क़ब्ज़ेदार मेरी ज़मीन में घुसपैठ कर रहा है। बड़ी मुश्किल से काफ़ी सोर्स-पैरवी के बाद तो कार्यवाही शुरू हुई। लेखपाल श्री सुनील आनंद मौक़े पर आये और ग्राम समाज के ‘भींटा’ के रूप में दर्ज़ गाटा संख्या – १६३ में उन्होंने चार लोगों का क़ब्ज़ा पाया, रिपोर्ट भी जमा की। वह रिपोर्ट तहसील के अंकीय द्वार (डिजिटल पोर्टल) पर उजागर (वायरल) हो गयी, जिसकी प्रतिलिपि मेरे पास है। लेकिन मुक़दमा दायर नहीं हुआ। महीनों के इंतज़ार के बाद फिर पैरवी की, तो मुक़दमे की सूचना (नोटिस) जारी हुई, जिसमें उन चार के साथ मेरा भी नाम क़ब्ज़ेदारों में दर्ज़ हो गया और सबसे अधिक ज़मीन पर मेरे नाम का क़ब्ज़ा बताया गया…। कहने की बात नहीं कि क़ब्ज़ेदार रमाशंकर गौड़ एवं उनके ताकतवर सहायकों द्वारा दबाव या रिश्वत के बल सुनील आनंद ने ऐसा किया…। मुक़दमे में तो एक साल से फ़िल्म ‘दामिनी’ में सन्नी देवल के साक्ष्य पर ‘तारीख़ पर तारीख़’ पड़ रही है…। तहसीलदार कभी इजलास पर बैठे ही नहीं, कोई सुनवाई हुई ही नहीं!! ज़ाहिर है उनके पास पूरे साल इजलास से अधिक ज़रूरी काम होंगे…।
इसी अवांछित देरी से ऊबकर मैं अपना मुक़दमा ज़िलाधिकारी के पास ले जाना चाहता था, लेकिन अपने वकील ने इस ‘जन-सुनवाई’ की योजना और उसकी सक्रियता की शोहरत की बात बतायी…। लिहाज़ा मैं जून, २०२३ के पहले शनिवार याने ३ जून, २०२३ को अपनी अर्ज़ी लेकर गया। जन-सुनवाई से मैंने समझा था कि वहाँ खड़े होकर एक आदमी अपनी बात कहेगा और अधिकारी के साथ हॉल में बैठी शेष जनता भी सुनेगी। इस तरह सब लोग सबका सुनेंगे…। अधिकारी सुनते-सुनते नोट लेगा – पूरक सवाल भी करेगा…। लेकिन ऐसा, सुनवाई जैसा, कुछ नहीं होता वहाँ…। टेबल लगाये मंच पर दो कर्मचारी बैठे थे। मैं लिखित अर्ज़ी उन्हें देके टेबल के सामने खड़ा-खड़ा अपनी बात कहता रहा और वे दोनो आपस में बात करते हुए मेरी अर्ज़ी पर कुछ लिखते रहे। और बस, हो गया!! इसे जन सुनवाई’ नहीं, ‘सुनी-अनसुनी’ कहना चाहिए।
लेकिन दूसरे ही दिन मोबाइल पर संदेश आ गया – ‘आपका संदर्भ संख्या -३०१०४५२३०००२२६ पोर्टल पर दर्ज कर लिया गया है, जिसकी नवीनतम स्थिति जन-सुनवाई पोर्टल/ऐप के माध्यम से आप देख सकते हैं…। अच्छा लगा, बड़ी आस बंधी कि त्वरित काम हो रहा…।
फिर दूसरे दिन ५ जून को ही दूसरा संदेश आ गया – ‘आप का संदर्भ संख्या ३०१०४५२३०००२२६ तहसीलदार, मार्टीनगंज, जनपद-आज़मगढ़, राजस्व एवं आपदा विभाग को अग्रसारित कर दिया गया है – जन-सुनवाई। अब तो ख़ुशी का पारावार न रहा…।
इसके बाद १६ जून को फिर संदेश आ गया – ‘आपका संदर्भ संख्या – ३०१०४५२३०००२२६ का निस्तारण कर दिया गया है। निस्तारण आख्या जन-सुनवाई पोर्टल पर देखी जा सकती है।
जब निस्तारण देखने के लिए द्वार (ऐप) खोला, तो सारी उम्मीदें व सारे अरमान हवा हो गये – माथा पीट लेना पड़ा। उसके अनुसार गाटा संख्या १६२, जो सिर्फ़ २८ कड़ी का है और मेरी भूमिधरी ज़मीन है, में पाँच लोगों का क़ब्ज़ा दिखाया गया। याने गाटा संख्या १६२ व १६३ में से सही संख्या न लिखने से लेकर २८ कड़ी जितने छोटे से गाटे में पाँच लोगों का क़ब्ज़ा ही असम्भव है, तक की सामान्य समझ लिखने वाले में नहीं है!! और नाम है ‘जन-सुनवाई’। इस महत्वाकांक्षी योजना का उद्देश्य है – जन कल्याण, हर आम आदमी को न्याय देना…!!
तथ्य की इन मूर्खतापूर्ण ग़लतियों के साथ निस्तारण में दो झूठ भी जुड़े हैं – दो बार पूछा गया है कि जाँच के दौरान प्रार्थी को सुना गया? और दोनो बार ‘हाँ’ लिखा है, जो झूठ है। अर्ज़ी देते हुए तो बैठे लोग लिखते रहे…और जाँच करने कोई आया ही नहीं, तो पूछने- सुनने का सवाल ही नहीं उठा।
इस योजना का बड़ा अभिशाप यह है कि जिस लेखपाल ने पैसा खाकर यह जुर्म किया है, उसी को यह काम भी सौंपा जाता है। तो जब मुजरिम ही न्यायाधीश है, फिर होना क्या है…!!
इसके बाद हमारे वकील ने उप ज़िलाधिकारी के पास भेज दिया। वे भी मेरी बात सुनते-सुनते अर्ज़ी पर निर्देश लिखते रहे और आश्वासन दिया कि इस बार नायब तहसीलदार मौक़े पर जायेंगे…। उनका नम्बर भी दिया, जिस पर हम सम्पर्क करते रहे और दस दिनों तक तो श्रीमान विशाल शाह आज-कल, कल-परसों करते रहे…फिर फ़ोन उठाना ही बंद कर दिया…।
अब न्याय और प्रशासन के ऐसे दुर्दशा-काल में माननीय मुख्यमंत्री श्रीमान योगी आदित्यनाथजी अपनी त्वरित कार्यवाही करने-कराने वाली महत्वाकांक्षी योजनाओँ के पतन के ऐसे हश्र पर कुछ करेंगे…? अपनी योजनाओं के इस अंकीय घोड़े को मोबाइल के परदे से निकाल कर ज़मीन पर लायेंगे…?