आपका अखबार ब्यूरो।
गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) के कलाकोश विभाग ने अपना प्रतिष्ठा दिवस समारोह भव्य रूप से मनाया। यह आयोजन केन्द्र के समवेत सभागार में हुआ। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (शिमला) की अध्यक्ष प्रो. शशिप्रभा कुमार और सारस्वत अतिथि थे श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वेद विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा। कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्‍चिदानन्‍द जोशी ने की। कार्यक्रम के बाद, भगवान जगन्नाथ पर आधारित एक अनूठी प्रदर्शनी ‘भगवान जगन्नाथ के नबकलेबर’ का उद्घाटन भी अतिथियों ने किया। आईजीएनसीए के बृहत्तर भारत एवं क्षेत्रीय अध्ययन विभाग द्वारा आयोजित यह प्रदर्शनी 22 जुलाई तक चलेगी।

प्रतिष्ठा दिवस कार्यक्रम के प्रारम्भ में कलाकोश प्रभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीर लाल ने वर्ष 2024–25 का वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया और विभाग की गतिविधियों व उपलब्धियों पर प्रकाश डाला। साथ ही, इस अवसर पर केन्द्र की अर्धवार्षिक शोधपत्रिका ‘कला कल्प’, कलामूलतत्त्व शृंखला के आठवें ग्रंथ, भारतगाथा और भारतकथा शृंखला के तहत चार पुस्तकों तथा कई अन्य पुस्तकों का लोकार्पण भी सम्पन्न हुआ।

‘भगवान जगन्नाथ के नबकलेबर’ प्रदर्शनी की एक फोटो

इस अवसर पर मुख्य अतिथि प्रो. शशिप्रभा कुमार ने कहा कि पर्व का अर्थ है पोर। जैसे गन्ने की गांठ होती है पोर, वहां रस इकट्ठा हो जाता है, उसी तरह जब जीवन की एकरसता चल रही होती है, तो उसमें कोई पर्व आ जाता है और हमें रस की अनुभूति कराता है। पर्व रस की अनुभूति कराने के साथ-साथ हमें प्रेरित करने, संचारित करने, आगे बढ़ने और उत्कर्ष की ओर उन्मुख करने के लिए आते हैं। भारत ज्ञानपरक संस्कृति है। उन्होंने कहा कि असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की अग्रसर होने में जो हमारा मार्गदर्शन करता है, वही गुरु है।

सारस्वत अतिथि प्रो. गोपाल शर्मा ने कहा, भारतीय ज्ञान परम्परा में आज का दिन गुरु पूर्णिमा का दिन है। आज के ही दिन व्यास पूर्णिमा भी मनाते हैं। भगवान वेदव्यास ऐसे व्यक्तित्व हैं कि उन्हें किस प्रकार स्मरण करें, समझ में नहीं आता। सत् युग, त्रेता युग और द्वापर युग तक वेद एक ही थे। कलियुग में भगवान वेदव्यास ने वेदों को चार भागों में विभाजित किया। हमारी ज्ञान परम्परा गुरु से प्राप्त होती है। भारतीय वाङ्गमय में गुरु के प्रति जो स्तुति की गई है, वह मुख्य रूप से दीक्षा गुरु के लिए है। दो प्रकार के गुरु हैं शिक्षा गुरु और दीक्षा गुरु। शिक्षा यदि दीक्षा के अनुकूल हो तो इससे हमें परमतत्व को प्राप्त करने में सुविधा होती है। साथ ही उन्होंने दत्तात्रेय के 24 गुरुओं का भी उल्लेख किया। प्रो. शर्मा ने गुरु के विभिन्न रूपों और उनके महत्त्व के बारे में बताया। उन्होंने यह भी बताया कि हर गुरुकुल की अपनी-अपनी परम्परा होती है, प्रत्येक परम्परा के अपने-अपने श्लोक हैं और अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। इस परम्परा को हमें बचाए रखना है और यह कार्य बहुत चुनौतीपूर्ण है।

कला कल्प का लोकार्पण करते डॉ. मयंक शेखर, प्रो. सुधीर लाल, डॉ. सच्चिदानंद जोशी, प्रो. शशिप्रभा कुमार और प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा

अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने एक वर्ष में 16 पुस्तकों के प्रकाशन के लिए कला कोश विभाग को बधाई दी और कहा कि ये ग्रंथ साधारण ग्रंथ नहीं हैं, ये ज्ञान परम्परा का संदर्भ ग्रंथ हैं। उन्होंने कहा कि 500 से अधिक मानक ग्रंथों के प्रकाशन के साथ आईजीएनसीए भारत की ज्ञान परम्परा में योगदान कर रहा है। उन्होंने कहा कि आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु का स्मरण तो करें ही, अपनी मातृशक्ति का भी स्मरण करें, उन्हें प्रणाम करें, क्योंकि आपकी माता ने आपको जन्म तो दिया ही है, प्रारम्भिक शिक्षा दी है, दीक्षा दी है। डॉ. जोशी ने कहा कि ऐसा कोई समाज उन्नत और विकसित नहीं हो पाता, जो अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं रखता।

कार्यक्रम का विद्वतापूर्ण मंच संचालन कला कोश के सह-आचार्य डॉ. योगेश शर्मा ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. अरविन्द शर्मा ने किया। समारोह में अनेक विद्वान, शोधार्थी, संस्कृतिकर्मी एवं कलाप्रेमियों की गरिमामयी उपस्थिति रही। गुरुपूर्णिमा जैसे परम्परा-निष्ठ पर्व पर आयोजित यह कार्यक्रम भारतीय ज्ञान परम्परा और गुरु-शिष्य परम्परा की पुनः स्मृति कराते हुए एक सांस्कृतिक चेतना का आयोजन सिद्ध हुआ।