शैलेश सिंह।

मुम्बई की प्रसिद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘बतरस’ पिछले २५ वर्षों से हर माह के दूसरे शनिवार को अपने मासिक कार्यक्रम करती आ रही है…। इसी श्रिंखला में बाबा साहेब डॉ भीमराव आम्बेडकरजी की १३३व जयंती की पूर्व संध्या पर उनके विशाल व्यक्तित्व एवं बहुआयामी सृजन-कार्यों पर बड़ी सार्थक चर्चा सम्पन्न हुई।

इस गोष्ठी का पूरा विधान तैयार करने वाले श्री शैलेश सिंह सेंट ज़ेवियर विद्यालय के यशस्वी अध्यापक रहे हैं। वे बहुपठ विद्वान एवं संबुद्ध चिंतक है। इतिहास-क्रम में सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य और उसमें आते परिवर्तनों पर तेज नज़र रखते हैं। संचालन करते हुए उन्होंने अपने प्रास्ताविकी में कहा – राजनीतिक चेतना के विकास के साथ बाबा साहेब आम्बेडकर की संवेदनाएँ व सोच ज्यादा प्रासंगिक होते जा रही हैं…। वे महज़ राजनीतिक शख़्सियत नही हैं, वरन धर्म, समाज, और दर्शन…आदि के बड़े विचारकों में हैं। १९२८ के आसपास शूद्रों-अछूतों पर लिखी उनकी किताबों के हवाले से शैलशजी ने बताया कि वे सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं हैं, वरन समूचे दक्षिण एशियाई समाज के लिए एक दिशा निर्देशक सिद्ध होते जा रहे हैं। ध्यातव्य है कि वर्गीय विभेदों पर तो बहुत चर्चाएँ हुईं, लेकिन जातीय अंतर्विरोधो के बारे सबसे पहले गहन विचार-चितन बाबा साहेब ने ही किया। उनका मानना है कि हिंदू धर्म जाति पर टिका है, जो भयंकर असमानता का कारक है। बुद्धजी ने समानता की बात सबसे पहले की, इसलिए भीमरावजी बुद्ध को मानते हैं। विश्व में बौद्ध धर्म के बारे में उनकी मूल स्थापनाएँ हैं। असमानता से मुक्ति के उपाय बहुतों ने बताये, लेकिन इस मामले में बाबा साहेब मूल रूप से सबसे अलग इसलिए है कि सबने सुधार की बात कही, लेकिन ओंबेडकरजी ने स्पष्ट कहा कि इसे बदलना होगा – बदले बिना सुधार सम्भव नहीं। ज़ाहिर है ऑम्बेडकरजी ने इसका दंश सर्वाधिक महसूस किया, अतः वे इसमें कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं। ऐसे बाबा साहेब के बारे में तमाम मिथ भी बन गये हैं, जिन्हें सतत विमर्श से ही तोड़ा एवं ऑम्बेडकरजी को सही से समझा जा सकता है, इसी का एक हस्बमामूल-सा प्रयत्न है आज की यह गोष्ठी…

इस भूमिका के बाद सिंह साहब ने सभी आगतों-आमंत्रितों का स्वागत करते हुए बीज वक्तव्य के लिए रूपारेल महाविद्यालय के राजनीति विज्ञान के पूर्व विभागाध्यक्ष, विचारक एवं कलाविद् डॉ  अविनाश कोल्हे को आमंत्रित किया। डॉ कोल्हे ने डॉ भीमराव आंबेडकर की शैक्षणिक उपलब्धियों  की चर्चा करते हुए कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन के संभवतः वे पीएच॰ डी॰ पदवी के पहले धारक थे। सन् 1916 में उन्होंने ‘प्राब्लम आफ रुपी’ पर अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत किया।   शैक्षणिक उच्चता व बौद्धिक श्रेष्ठता (एक्सिलेंस) के बाद उन्होंने  सामाजिक जागृति के लिए ‘मूक नायक’ नामक पत्रिका शुरू की। उन्हें लगा कि इस तरह वे अपने  लोगों तक  अपनी आवाज पहुंचा सकते हैं।  पत्रकारिता के ‘बहिष्कृत भारत हितकारिणी सभा’ नामक संस्था  की  उन्होंने स्थापना  की, जिसके माध्यम से उन्होंने मनुस्मृति-दहन, मंदिर-प्रवेश,  महाड़ का पानी-आन्दोलन॰॰॰आदि समाज-सुधार के कार्यक्रम  चलाये।  अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए एक मुक़ाम पर उन्हें लगा कि बिना राजनीतिक दबाव के हम परिवर्तन नहीं ला सकते, तब उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश किया। सामाजिक परिवर्तन के लिए उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया। ध्यान रहे, उन्होंने दलित पार्टी नहीं बनायी, ‘लेबर मजदूर पार्टी’ बनायी। मजदूरों की दशा बेहद सोचनीय थी। अस्तु, उनके आर्थिक, सामाजिक जीवन में बदलाव लाने के सुदृढ़ इरादे से उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश किया। हालांकि उन्हें अपने इस कार्य में अपेक्षित सफलता नहीं मिली, पर उन्होंने एक सुचिंतित मार्ग अपनाया।  इस तरह उनके समग्र व्यक्तित्व व वैचारिक विकास में हम  एक सुसंगत सोच व तरीके से हुए विकास की दिशा पाते हैं।  प्रो अविनाश कोल्हे ने  डॉ आंबेडकर के   धर्मपरिवर्तन की भी चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने धर्म का त्याग नहीं किया, एक धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में दीक्षित हुए। बाबा साहब धर्म  की आस्था को मनुष्य की आध्यात्मिक जरूरत मानते थे। उन्होंने प्राचीन  भारतीय या तिब्बती धर्म  स्वीकार नहीं किया, बल्कि बौद्ध धर्म की विभिन्न सरणियों  के साथ-साथ आधुनिक सामाजिक विचार व जीवन-दर्शन की अच्छी बातों को समायोजित किया। इस तरह उन्होंने नव बौद्ध-दर्शन में दीक्षा ली। प्रो अविनाश कोल्हे ने  डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीतिक, सामाजिक व दार्शनिक कार्यों की  विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि उन्हें सत्ता से लगाव नहीं था, यदि वे चाहते तो नेहरू कैबिनेट में बने रहते, पर अपने मूल्यों को उपेक्षित होते देखा तो मंत्रि-परिषद से तत्काल इस्तीफा दे दिया।  डॉ साहब की चिंता में जितने अस्पृश्य  थे, उससे कम  हिन्दू स्त्रियां नहीं थीं। वे दलितों-अस्पृश्यों की श्रेणी में ही हिन्दू  महिलाओं को भी रखते थे। इस तरह उनकी चिंता पिछड़ी जाति ही नहीं, समूची शोषित-उपेक्षित मानवता की थी और उन्होंने सबकी मुक्ति के लिए सच्चे हृदय से कार्य किया।

इस सारगर्भित बीज-वक्तव्य के बाद  श्रीमती  सुप्रिया यादव थोरात ने डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के उस महत्त्वपूर्ण व मार्मिक पत्र का पाठ किया, जो उन्होंने अपनी पहली पत्नी रमा बाई को  लंदन से लिखा था। भले ही यह पत्र निजी रहा हो, पर उसमें दर्ज व व्यक्त चिंताएं सार्वजनिक हैं।  इस पत्र से हमें डॉ आंबेडकर के गहरे  सामाजिक, राजनीतिक सरोकारों के साथ पारिवारिक प्रेम, आपसी लगाव, स्नेहिल स्मृतियाँ व पुत्र  यशवंत की बावत प्रतिबद्धताएं  व प्राथमिकताएं भी दिखाई देती हैं। यहां बाबा साहेब के पति-प्रेमी-पिता  के तीनो रूप दिखाई देते हैं, जिसे सुप्रियाजी ने उसी संवेदना के साथ प्रस्तुत भी किया।  बाबासाहेब-स्मरण की इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए डॉ मधुबाला शुक्ल ने आम्बेडकरेजी के ‘मंदिर-प्रवेश’ आन्दोलन पर 1933 की लिखी जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘विराम चिह्न’ का खूबसूरत पाठ  प्रस्तुत किया, जिसमें दलित समुदाय के लोग मंदिर प्रवेश  करने का प्रयास करते हैं, पर पंडितों द्वारा दलित की हत्या के चलते सब कुछ पर ‘विराम चिह्न’ लग जाता है।  समाज की प्रगति, बदलाव व विकास के मार्ग में  ऐसे विराम चिह्न अक्सर लग जाते हैं।

अगली प्रस्तुति मुम्बई के मणि भवन में गांधीजी के साथ पहली मुलाक़ात (१९३१) में हुई बातचीत पर आधारित थी, जिसमें आम्बेडकरजी  ने अस्पृश्यों की सामाजिक, आर्थिक धार्मिक एवं जातिवादी समस्याओं  व जटिलताओं को  उनके समक्ष रखा था।  नाट्य-संवाद शैली में हुई इस बातचीत में प्रसिद्ध अभिनेता भानु विश्वा ने बाबा साहेब एवं सुपरिचित कलाकार श्रद्धानंद ने गांधी को प्रस्तुत किया। दोनो की सधी आवाज़, माकूल आरोह-अवरोह एवं हाव-भाव के साथ सम्पन्न हुई यह कुशल जुगलबंदी बहुत प्रभावी बन पड़ी…।

कार्यक्रम की अगली कड़ी में मराठी के चर्चित कवि श्री सुनील ओवाल ने डा आम्बेडकर पर लिखी अपनी कविता के के साथ  कुछ चुनिंदा ग़ज़लें भी बड़े प्रभावी ढंग से सुनाईं, जिन्हें श्रोताओं से बहुत अच्छा प्रतिसाद भी मिला।
इसके बाद मराठी के वरिष्ठ कवि व शीर्ष ग़ज़लकार  श्री भागवत बनसोडे, जिनकी ग़ज़लों के कई ऐल्बम भी निकल चुके हैं, ने अपनी हिन्दी व मराठी कविताओं व ग़ज़लों का प्रभावी पाठ किया। काव्य पाठ के बाद मराठी के बेहद सम्मानित कथाकार बाबू राव बागुल लिखित एवं समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि संजय भिसे द्वारा अनूदित दलित चेतना से लबरेज कहानी ‘गुंडा’ को सुश्री लक्ष्मी तिवारी ने प्रस्तुत किया। कहानी एक ऐसे समाज-बहिष्कृत, अवांच्छनीय पात्र पर आधारित है, जिसे अपराधी समझकर लोग डरते हैं, उससे घृणा करते हैं। लेकिन कहानी सिद्ध करती है कि ऐसा समझे  जाने वाले लोगों में भी करुणा  आप्लावित होती है। उनके हृदय में भी एक निष्पाप मनुष्य का दिल होता है, जिसमें भावनाएं दबी व छिपी रहतीं हैं।  इस खूबसूरत कहानी को लक्ष्मी तिवारी ने बहुत ही उम्दा व कलात्मक शैली में पेश किया, जिससे कहानी पूरी तरह जीवन्त हो उठी।

‘बतरस’ के ख़ुशबूदार व विविधरंगी फूलों जैसे अच्छे व वैविध्यपूर्ण कार्यक्रमों  के खूबसूरत गुलदस्ते का अगला पुष्प रहा –  बाबा साहब पर लिखे गये संस्कृत महाकाव्य ‘भीमराव आंबेडकर शतकम्’ में हिंदी-संस्कृत के उद्भट विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी लिखित महत्तवपूर्ण ‘पुरोवाक’ एवं प्रियसेन सिंह लिखित भूमिका का वाचन, जिसे अपनी विनम्र अभिजात शैली में प्रस्तुत किया प्रसिद्ध गीत-ग़ज़लकार श्री अनिल गौड़ ने।

बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के  बाद बाबासाहेब आंबेडकर  द्वारा ली गयी और अपने अनुयायियों को दिलवायी गयी  बाइस प्रतिज्ञाएं  बहुश्रुत हैं, जिन्हें बेहद खूबसूरत व प्रभावशाली ढंग से  प्रस्तुत किया युवा अभिनेता श्री सौरभ बंसल ने। गुलदस्ते का अंतिम पुष्प था – ‘नमक सत्याग्रह’  के लिए की गयी गांधीजी की ‘दांडी यात्रा’ और पानी के लिए किये गये  डॉ आंबेडकर के ‘महाड़ सत्याग्रह’  का तुलनात्मक अध्ययन। इस  आलेख में दांडी यात्रा को इतिहास में अधिक महत्व देने और ‘जल सत्याग्रह’ यात्रा की उपेक्षा होने की शिकायत दर्ज़ करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि  इतिहास भी व्यक्ति विशेष के क़द व महनीयता के पूर्वग्रह  के आधार पर लिखा जाता है – कार्य की लियाक़त के आधार पर नहीं। इस महत्वपूर्ण आलेख को जिस शिद्दत से प्रस्तुत किया हिन्दी ब्लिट्ज के पूर्व संपादक व देश के महत्वपूर्ण ग़ज़लकार श्री राकेश शर्मा ने कि लेख की शिकायत एक केस जैसी प्रभावी साबित हुई।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन के लिए मंच पर आये प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक व  सिने-नाट्य अभिनेता श्री विजय कुमार ने कहा कि भगत सिंह और डॉ बाबासाहेब आंबेडकर  दोनों व्यक्तित्व भविष्य में इस देश को प्रेरणा देते रहेंगे। जैसे-जैसे समय बीतता  जायेगा, दोनो और प्रासंगिक  होते जाएंगे।  डॉ आम्बेडकर का संघर्ष, उनकी प्रतिबद्धता और उनका जलाया चेतना-दीप कभी बुझ नहीं सकता। यह अनंत काल  तक प्रदीप्त रहते हुए लोगों को आलोकित व जागृत  करता रहेगा…। विजय कुमार ने ‘बतरस’ की तरफ से सभी सहभागियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की और कहा कि इस तरह के गंभीर कार्यक्रम और होने चाहिए, जिसके लिए ‘बतरस’ को आप सबके सहयोग की बड़ी ज़रूरत है।

सुस्वादु जलपान के साथ गोष्ठी सम्पन्न हुई…।

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