सत्यदेव त्रिपाठी।
फ़िराक़ साहब का शेर है – ‘हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है’, नयी-नयी सी है, पर तेरी रहगुज़र फिर भी’…। और यह शेर अकीरा क़ुरोसोवा की विश्व-प्रसिद्ध फ़िल्म ‘राशोमन’ पर बिलकुल फ़िट बैठता है, जो रयुनोसुके अक़ुतागावा के ‘राशोमन’ और ‘इन अ ग्रोव’ कहानियों से प्रेरित है और अब तक सबसे बड़ी डक्लासिक फ़िल्मों में एक सिद्ध हुई है। पूरी दुनिया में भिन्न-भिन्न नामों से इस पर बने नाटकों-फ़िल्मों की कोई गिनती नहीं। इस बार आज के हिंदी रंग़-संसार के बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बेहद ज़मीनी मनुष्य व कलाकर जयंत देशमुख को यह भा गया। उन्होंने इसे ‘मटियाबुर्ज’ नाम से बनाया है।
इस कृति व कलाकृत्ति की ख़ूबसूरती एक बड़े वैचारिक सच पर आधारित है – कि दुनिया में वस्तुगत सच (मैटर ओफ फ़ैक्ट) कुछ नहीं है – सब कुछ दृष्टिगत सच है – सच हर आदमी की अपनी नज़र के अनुसार होता है। बात अपनी-अपनी धारणा की है याने जो जिस बात-वस्तु-घटना को जैसा मन में धार लेता है, धर लेता है, उसके प्रति जैसी धारणा बन जाती है, उसका सच वही है। एक शब्द में इसे अवधारणात्मक (कॉन्सेप्चुअल) नाटक कहा जा सकता है। इस बात पर ‘अंधों का हाथी’ जैसी ढेरों सरल-रोचक कहानियाँ मौजूद हैं और ढेरों मुहावरे भी…। सबसे मशहूर मुहावरा बन गयी है तुलसी की पंक्ति, जो १४ सालों बाद वन से राम के लौटने पर अयोध्या-वासियों की जानिब से है – ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’। गुजराती में बड़ा सरनाम मुहावरा है – ‘जेवी दृष्टि, तेवी सृष्टि’ या फिर सही को ग़लत बताने वाली धारणा के लिए हिंदी में बहुत मशहूर – ‘चोरों को सारे नज़र आते हैं चोर’…आदि-आदि।
लेकिन यह धारणा भी हवा में नहीं बनती। इसमें उस शख़्स के संस्कार, अनुभव, संदर्भ व स्थिति एवं प्रकृति…आदि निहित होते हैं। इसके लिए हिंदी साहित्य से रीति काल का एक दोहा उद्धृत करना चाहूँगा, जिसमें नायक के घर में प्रवेश पर नायिका मुस्कुरा देती है और वहाँ मौजूद चार लोग उस एक मुस्कान के अलग-अलग अर्थ लगाते हैं। वहीं है नायक को चाहने वाली लड़की – याने उस नायिका की सौत, जिसे यह मुस्कान ‘अनीति’ (अनुचित) लगती है, लेकिन नायिका की सखी को ‘सुनीति’ (अच्छा सलूक) लगती है। बड़ों (नायिका के मां-पिता) को मुस्कान में लाज की शालीनता दिखती है और खुद प्रेमी उसे प्रेम की सांकेतिक अभिव्यक्ति समझता है…, जबकि मुस्कान तो एक ही है। अब दोहा सुन लें –
‘जानति सौत अनीति है, जानत सखी सुनीति, गुरुजन जानत लाज है, प्रीतम जानत प्रीति’।
क्या कहने की ज़रूरत है कि चारो की ये भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ नायिका के साथ इन चारो के रिश्तों-भावनाओं से बनी धारणाओं के फल हैं…वरना मुस्कान तो एक ही है। तो दुनिया ऐसे ही चलती है…!
लेकिन इस मनुष्योचित शाश्वत सत्य को बताने वाले ‘राशोमन’ में मुस्कान जितनी आसान बात नहीं है। यहाँ क़त्ल हुआ है…और क़त्ल पर भी अवधारणाओं को लेकर मेरी जानकारी में एक नाटक बना था – ‘एक और बंसी बनवारी’, जिसे भी कई सारे लोगों ने अलग-अलग नामों से खेला। यह क़त्ल गाँव में हुआ, तो कातिल का पता करने के लिए शहर से सीआईडी, पुलिस, पत्रकार…आदि भिन्न-भिन्न लोग आते हैं। हर किसी को स्टेशन पर जो पहला आदमी मिलता है, वह पक्के तौर पर कातिल को बताता है – जगह-स्थिति-कारण-मक़सद…आदि के प्रमाण सहित…और सभी कातिल अलग-अलग होते हैं। सो, सिद्ध होता है कि सच का स्वरूप यही है…। लेकिन जयन्तजी के ‘मटियाबुर्ज’ में ‘राशोमन’ फ़िल्म की माफ़िक जीवन में नहीं, जंगल में क़त्ल होता है और मकतूल भी साधारण मनुष्य नहीं, सामंत है।
अब यह मत पूछिएगा कि एक सामंत बिना किसी लाव-लस्कर के अकेले उस जंगल के रास्ते से जाता क्यों है? जयन्तजी ने यह नाटक रमेशचंद शाह के रूपांतर पर बनाया है, जो हिंदी के ज़हीन और मानिंद साहित्यकार हैं, तो उनसे सवाल करना भी गुस्ताखी माना जायेगा…। और उन्हें शायद इस संगति-असंगति से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता!! फिर निर्देशक भी क्यों सोचे? कोई दर्शक या रंगकर्मी भी इस बावत सोचते-बोलते मुझे नहीं मिला – जबकि मैंने बात कइयों से की। यह सब एक सफल कथा या कथा की सफलता का ‘फल’ है – ‘समरथ के नहिं दोष गुसाईं’ की तरह दुनिया में ‘सफलता जैसा सफल कुछ नहीं होता…!!’। तभी तो किसी का ध्यान इस पर भी नहीं जाता कि मूल ‘राशोमन’ में वे सामंत नहीं, आम आदमी हैं, जिससे उनका अकेले जाना सही-सहज ठहरता है। लेकिन यहाँ ‘मटियाबुर्ज’ का एक अर्थ यदि लखनऊ के नवाब का कलकत्ते में बसाया कोई इलाक़ा है, जहां इस नाम से एक सस्ता बाज़ार भी है, तो फिर सामंत होने के साथ कुछ और संगतियाँ बैठ भी जाती हैं…। बहरहाल,
क़त्ल को देखने-करने-भोगने और इसीलिए बताने वाले फ़रीक़ यहाँ भी उक्त प्रेम-दोहे के मुताबिक़ चार ही हैं। क़ायदे से लूटने-मारने वाला तो जंगल में रहता डाकू ताजोमारू है, जो नाटक की मुख्य घटना का कर्ता तो क्या, निर्माता ही है। इसे नायक भी कह सकते हैं। और इसका तो पेशा ही लूटमार है। इसी से उसी की कथा एकदम सीधी-साफ़ है – भोगेच्छा की पशुता और धन हासिल करना…याने ज़र-जोरू की हविश। इस मुख्य भूमिका में डाकू महाशय बने महेंद्र रघुवंशी का चयन सही है। उनकी देहयष्टि और वेश-भूषा दोनो ही किरदारमय है। उन्होंने अपने काम को समझा भी है। उसे जीते भी हैं – छाप भी छोड़ते हैं। पर कुछ है, जो भूमिका को चमकने-फबने के स्तर तक नही पहुँचने देता। उस शाम वे या तो थके रहे या उनकी ऊर्जा का स्तर (एनर्जी लेवल) कम पड़ गया था, जिसके कारण वे दिखते हैं, दमकते नहीं। उस पात्र को ठीकठाक निभाते हैं – उसे दर्शक तक पहुँचाते भी हैं, पर न उसे प्रभावशाली बना पाते, न दर्शक को प्रभावित कर पाते, तो इसीलिए चरित्र की पूरी सामर्थ्य को खोल व दिखा भी नहीं पाते…। अधिकांश दृश्यों में प्रायः यही हाल है, पर तलवारबाज़ी के जो दोनो दृश्य नाटक को उठाने के मँज़े व मारक सबब हो सकते थे, उनमें अपेक्षित असर न बनना इसका स्पष्ट प्रमाण है। और पहले के मुक़ाबले दूसरे दृश्य में ऊर्जा की कमी साफ़ दिख जाती है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण बयान है – उस समूचे हादसे में बच या बचा ली गयी सामंत-पत्नी का…। उसके साथ जो हुआ, वह है तो डाकू के ही कृत्य का परिणाम, लेकिन उस पाशविक भोग में डाकू को चाहे जैसा दुर्दांत दैहिक सुख मिला हो, इस सामंत-पत्नी को भी कुछ ऐसा मिला कि उसका बयान डाकू के पक्ष में – याने अपने मृत पति के ख़िलाफ़ आता है। इसके पीछे छिपी परतें काफ़ी गहरी एवं जटिल हैं – सामाजिक-मनोवैज्ञानिक जटिलताओं में उलझी हुई भी और उन्हें खोलती हुई भी…। इसका एक पक्ष तो बाहरी है, जिसमें यह सामंत-पत्नी होने से पहले उसका उसी घर में दासी होना है। याने तब उसकी स्थिति चुनाव-विहीन विवशता की थी, जिसकी प्रतिक्रिया – याने तब की अपनी मजबूरी का बदला भी इसमें शामिल है। लेकिन इन सबसे बड़ी बात यह कि इसमें स्त्री के देह-सुख की एक गहरी साइकी भी निहित है। मैंने कभी बलात्कार में भी और्गाज्म (रति-क्रिया के उत्कर्ष) के क्षणिक सुख की बात पढ़ी थी…, जो यहाँ परवान चढ़ता दिखता है? इसके तहत इस स्त्री में यहाँ पुरुष की मानिंद ‘द मोर, द बेटर’ की हवस न भी हो, पर एक ही पुरुष के साथ की एकरसता के टूटने जैसा ही कुछ है तो सही…। फिर यह गौण उत्पादन (बाई प्रोडक्ट) भी नहीं है, बल्कि मुख्य उत्पादन के रूप में पातिव्रत्य के टैबू का मामला आपोआप टूट जाता है।
सामंत-पत्नी के अलावा उसकी माँ का भी बयान होता है, जिसमें मां अपने बड़े कुलीन व धनाढ्य होने की बातें खूब बढ़-चढ़कर बताती है और उसकी बेटी – याने सामंत-पत्नी तुरत ही उसका पर्दाफ़ाश करती हुई अपनी दासी की स्थिति का बेबाक़ इज़हार कर देती है। ज़ाहिर है कि ये दोनो बयान एक दूसरे के विरोधी ख़ासे नाटकीय सिद्ध होते हुए दर्शक के हास्य का सरंजाम बनाते हैं। मां बनी मंजु के इकले दृश्य के बातूनीपने की मज़ेदारी और उनकी अपनी अदायगी का हिस्सा फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी होकर खूब लहकता है, जबकि सामंत-पत्नी बनी मनाली शर्मा अपनी समूची भूमिका में कहीं कमजोर तो नहीं लगतीं, पर उसे लहकाने के लिए उन्हें और अधिक काम करने की ज़रूरत भी छिपती नहीं।
एक बयान स्वयं सामंत का भी होता है, जो यूँ तो नाट्यकथा में मर गया होता है; लेकिन उसे ज़िला कर बयान दिलाया जाता है। यह छूट साहित्य व कला में लेना कलात्मक उद्भावना से युक्त होकर जायज़ सिद्ध होता है। अभी कुछ सालों पहले लिखे अपने नाटक में जनाब असगर वजाहत ने मृत गांधीजी को जिलाकर और नाथूराम गोड्से से उनकी सीधी समक्षता कराके काफ़ी सरोकारी बातें की हैं – याने यह प्रस्तुति का कारगर रूप से सिद्ध साधन है। सामंत की भूमिका में आदित्य सिंह रघुवंशी अधिकांश समय बंधकर पड़े रहते हुए यह आभास बराबर देते हैं कि उनमे क्षमता इस स्थिर पात्रत्व से अधिक है, लेकिन तलवारबाज़ी के सिवा उसे दिखाने का अवसर नहीं और जो दिखाने का अवसर है, उसमें वे दिखा नहीं पाते…।
अगला बयान है एक लकड़हारे का है, जो क़त्ल करने वालों के घेरे में है – बल्कि लगभग कातिल है। लेकिन प्रस्तुति में यह उस त्रिपात्री समूह का एक पात्र है, जो यूँ सूत्रधार का काम करता हुआ दिखता है, पर मूल कथा से जितना बावस्ता है यह पात्र, उतना ही इसे कारगर बनाते हैं अपनी दोमुँहीं भूमिका को कुछ चुलबुले अंदाज और कुछ निर्वाह की चतुरता के साथ मनीष चौरसिया। उनके इसी राहों आगे के शोज़ में चलकर खूब खिलने के आसार भी दिखते है। दूसरे हैं – एक संत, जिन्हें प्रवेश के समय सवेश देखकर बड़े महत्त्व के किरदार होने की छाप बनती है, लेकिन नाटक के आगे बढ़ने के साथ यह भूमिका सिर्फ़ तीनो की बातों के सूत्र जोड़ने भर की ही रह जाती है और इसी से फीकी भी पड़ती जाती है। लेकिन इसे अनिल दुबे ने इतने इत्मिनान से किया है कि वह उबाऊ नहीं होता…।
हाँ, इस समूह का तीसरा पात्र अवश्य ही अनोखा है, जिसे उपकेश निर्माता (विग मेकर) कहा ही गया है, तो वह है भी जटा-जूट धारी। कथा में यह भी न भोक्ता है, न कर्त्ता…पर अगमजानी (आगे-पीछे का सबक़ुछ जानने वाला) जैसा है, जिससे वह उपकेश ही नहीं, कथा का भी उपनिर्माता लगने लगता है। यूँ जैसे लकड़हारा जंगल से अपने जीने के जुगाड़ करता है, उपकेशधारी को भी जटाजूट जंगल के जंगलीपने से ही मिलने का कयास लगाना ज़हीन दर्शक के लिए मुश्किल नहीं है। इस तरह इसकी भी मूल नियति लकड़हारे वाली ही है। फिर भी प्रस्तुति में उसे बाहरी आदमी (थर्ड पर्सन) की छाप दी गयी है। किंतु उसकी बातें इतनी मर्मभरी हैं कि वह सबसे अधिक अंदर का आदमी लगने लगता है। अपने सबक़ुछ जानने को वह ऐसे ‘छिपाते-छिपाते बयां’ हो जाने वाले दोहरे अंदाज में कहता है कि तीनो में सबसे आकर्षक बन जाता है – उसके बोलने का इंतज़ार रहने लगता है दर्शक को। ज़ाहिर है कि इस पात्र की रचना ही स्टाइलिश है, जिसे प्रमोद सचान ने उसी तरह निभाया भी है – हाव-भाव, अदा-ओ-अंदाज, टाइमिंग और गति…सब सही है। बस, उत्कर्ष के स्तर पर जाकर आवाज़ थोड़ी धीमी हो जाती है…, जिसे सुनने के लिए दर्शक को अपने ‘कान पारना’ पड़ता है…। लेकिन अब तक के मेरे देखे हुए उनके दशकों लम्बे मंचीय जीवन की यह सबसे उम्दा भूमिका है। इससे कुछ ही दबी, पर इससे लम्बी भूमिका कुछ दिनों पहले ‘मंच समूह’ के ‘पगला घोड़ा’ में दिखी थी…। अभिनय की एक चिर प्यास उनमे सदा रही है, लेकिन पहले वे इस प्यास को पेशे के बाद रखते थे, अब समझ पाये हैं कि कला पूर्ण समर्पण माँगती है। तो लगता है कि अब वह नाटय-पिपासा जयन्तजी के साथ ही परवान चढ़ पायेगी…आमीन!!
लकड़हारे का बयान इसलिए निर्णायक महत्त्व का है कि सामंत व डाकू के बीच हुई लड़ाई में इस्तेमाल होती तलवार की मूठ में लगी चाँदी के खाँटी लोभ में वह वहाँ मौजूद रहा है। इसलिए सारी जिरह जब घिरते-घिरते सामंत के पेट में घुसी तलवार पर केंद्रित हो जाती है, तो लकड़हारा घेरे में आ जाता है। तलवार निकालने में प्रान निकलते हैं, तो क़त्ल का साझा कर्ता वह भी होगा, वरना चाँदी के मोह में वहाँ रुकने के चलते चश्मदीद गवाह तो होगा ही। पर जैसा कि कहा गया – यह निर्णयों का नहीं, धारणाओं का नाटक है। तो सभी बयान निर्णायक होने की ओर जाते-जाते भी बयान भर होकर रह जाते हैं, क्योंकि नाटक तो किसी निर्णय तक न पहुँचने का ही है और यही ‘राशोमन’ की अपनी सबसे ख़ास खूबी है।
पर यह कहा जा सकता है कि उक्त सभी प्रस्तोताओं के बीच चलते नाटक का सब कुछ हर आम-ओ-ख़ास के अंतस् में निहित है – याने गहन जीवनपरक सत्यों से जुड़ा है – उसी से बना है। याने ‘राशोमन’ नाटक मनुष्य की बुनियादी प्रवृत्तियों को उघाड़ने के साथ इंगित करता है कि इन्हें स्वीकारना ही सच्चे मनुष्य या मनुष्य की सचाई का प्रमाण है। इस तरह जीवन के लिए बनी मर्यादाओं, महनीय मूल्यों के समक्ष यह अंतस् में मौजूद प्राकृतिक सचाइयों की गुहार का भी नाटक है।
अब आयें सबसे मुख्य मुद्दे – याने जयन्तजी देशमुख की प्रस्तुति पर…। तो इस बावत पहली बात तो मैं यह कहूँगा कि मुम्बई में सातबंगला स्थित इस आरामनगर इलाक़े में छोटे-छोटे अड्डों पर पिछले कुछ सालों से नाटक करने की शुरुआत अब एक आंदोलन बन गयी है। यहाँ नाटक वालों के लिए कम से कम खर्च व दर्शकों के लिए कम से कम टिकिट पर नाटक करने व देखने का सुख मुहय्या हुआ है, वरना तो नाटक देखने-करने के दाम आसमान छू रहे हैं…। और इस तरह मुम्बई के ‘पृथ्वी’, एनसीपीए…आदि जैसे ब्रैड बन गये नाटय-केंद्रों के समक्ष एक समानांतर नाट्यकेंद्र (थिएटर सेंटर) खड़ा करने याने मुम्बई के नाट्यक्षेत्र में एक विकल्प प्रस्तुत करने का प्रयत्न है यह…। और भला हो कि यह काम यहाँ कई सारे रंगकर्मी कर रहे हैं और सुखद है कि मुम्बई में कभी ‘छबीलदास’ जैसे नाट्य-आंदोलन की याद दिलाता हुआ यह ‘आरामनगर नाटय-आंदोलन’ ख़ासी गति पकड़ चुका है। मै दोनो का भी चश्मदीद होने के नाते कह सकता हूँ कि छबीलदास-काल में पृथ्वी या टाटा-सोफ़ाया जैसी बड़ी लाइन की चुनौती न थी। थिएटरमात्र को रवाँ करना था। लेकिन आज निस्संदेह उस बड़ी लाइन के सामने यह रास्ता काँटों से तो नहीं, कष्टों से भरा है…। नितांत अनाटकीय स्थिति में नाटक करना हो रहा है, लेकिन बहुत कम साधन-सुविधाओँ में ढेरों नए-पुराने लोग नाटक कर रहे हैं…। रंगकर्मी यह कष्ट उठा रहा है और कम सुविधाओं में दर्शक को नाटक देखने का आमंत्रण दे रहा – चुनौती पेश कर रहा कि ‘पीड़ा में आनंद जिसे हो, आये मेरी मधुशाला’।
उल्लेख्य यह भी है कि ‘आरामनगर थिएटर’ में खेल जा रहे अधिकांश नाटक बनते तो हैं और जगहों के लिए, पर यहाँ भी कर लिये जाते हैं। ऐसे में ‘राशोमन’ जैसा नाटक यहाँ के लिए ही बनाना-करना बड़े संघर्ष व बड़ी हिम्मत का काम है…। देखकर लगता कि बड़ी सूझ-बूझ एवं कौशल से करना हुआ है इसका। इसे सिद्ध करती है जयंत जी की हर दृश्य, हर कदम, हर मोड़, हर गति में गहरी पकड़। उनके निर्देशन-कौशल व शैली का बेहतरीन उदाहरण दूँ…नाटक में बार-बार अदालत आती है, जिससे मुख़ातिब होकर नाटक के बड़े भाग को अंजाम देना होता है, लेकिन मंच पर अदालत का सेट तो क्या, एक कुर्सी तक नहीं है – जज भी नहीं है, क्योंकि इतनी जगह नहीं है! यदि ऐसा होता, तो ‘ख़ामोश, अदालत जारी है’ की तरह का यह अदलती नाटक (कोर्ट रूम ड्रामा) हो जाता। सो, यहाँ बयान-कर्त्ता सिर्फ़ दर्शकों के पीछे की तरफ़ देखके ‘मी लाड’ (माई लॉर्ड) से शुरू होकर पूरा बयान दे देता है…। आलेख के मुताबिक़ यह नियोजन सधा भी है, फबा भी है। बात बिलकुल साफ़-साफ़ सब तक पहुँच जाती है। ऐसे ढेरों गुर इस प्रस्तुति में हैं…। लेकिन यहीं इसमें यह भी होता है कि ‘मटियाबुर्ज’ में बार-बार दृश्य बदलते हैं… एवं नाटक को प्रायः ही पूर्व-दीप्ति (फ़्लैशबैक) में जाना होता है…। तो खुले मंच व भरी रोशनी में लगभग दर्जनाधिक बार सामंत चलके अपनी जगह पर आता है… खुद को बांधता है… फिर छोड़ता है… और उठकर जाता है, तो यह सब काफ़ी समयखाऊ, स्थूल व नयन-उबाऊ हो जाता है। वैसे इसे कोई ‘जस के तस’ का विशुद्ध व बोल्ड प्रयोग भी कह सकता है। लेकिन प्रकाश न होता, तो कम से कम यह एकरसता (मोनोटोनी) बारम्बार दिखती तो नहीं…!! लेकिन प्रकाश बंद न करने में शायद प्रबुद्ध निर्देशक के अनुसार कोई ख़ास नाट्य-गुर ही हो…, जो हमारी समझ में न आ रहा हो…!! कुल मिलाकर समय-स्थल-मंच की इतनी क़िल्लतों-चुनौतियों के बीच इस क्लासिक नाटक को इतनी सफ़ाई से पेश कर देना ऐतिहासिक रंगकर्म का प्रमाण है, जिसके अनंत सुफल आगे आएँगे…।
मैंने लगभग शुरुआती शो देखा, तो शायद अधिकांश कलाकर पूरे पके न थे, जो बारम्बार के शोज़ में अभ्यास से ठीक होंगे…। संवाद अदायगी तो सही राहों चल-चला कर अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर रही, पर भाषिक एवं उच्चारण सम्बन्धी कुछ कच्चापन भी रहा, जो पुनः शोज़ के साथ ठीक होगा…।
और इस नाटक को उठाने की चुनौती यह भी है कि इसके एक से एक अनुपम प्रयोग हो चुके हैं। शोज़ अवश्य देखे होंगे जयन्तजी ने। मसलन, एच॰ कन्हाई लाल की मणिपुरी में हुई निर्मिति अद्भुत मानी गयी थी। उसी से मुतासिर होकर ‘सम्भव’ ने उन्हें आमंत्रित करके इसे हिंदी में कराया था, जिसकी भी खूब-खूब सराहना हुई थी। इन मानकों तक ले जाने के लिए इस पर एकाग्र होकर बड़ी ऊर्जा व बहुत समय देना होगा – और जमके देना होगा…। सामर्थ्य तो है ही जयन्तजी में, तो हमें आस भी है…। आमीन!!