सत्यदेव त्रिपाठी ।
जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे समाज में कुछ संस्कार परंपरा से चले आए हैं। समय के साथ बदलाव भी आया है और वह आना भी है। लेकिन चाहे परंपराएं हों या सामाजिक बदलाव… बाजार सभी जगह हावी है।
कहीं कुछ नहीं बदला
गांव की बहुत प्रिय भौजी के मरने की खबर से आहत काफी सालों बाद किसी ‘घाट’ में शामिल हुआ, जो मृत्यु के दसवें दिन होता है और श्राद्ध-कर्म में जिसका माहात्म्य सबसे अधिक होता है। इसमें गांव से बाहर जलाशय के घाट (किनारे) पर समूचे नात-हित, भाई-बिरादरी व गांव के साथ मुण्डन होता है और कडू (सरसों का) तेल लगाके स्नान तथा कुछ कर्मकाण्ड भी।
महानगर के माहौल और साहित्य-कला जगत के बीच सालों-साल से रहते हुए ऐसा भान हो चला था कि तमाम सारे रूढ़िगत आचार खत्म हो चुके हैं और यह भौतिकवादी दुनिया व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) होने की रौ में आधुनिक भी हो गयी है। लेकिन वहां पहुंचते ही जो नजारा दिखा, उससे यह विश्वास हो जाने में जरा भी देर न लगी कि कहीं कुछ नहीं बदला है!
अधिकतम दान पाने की वकालत
कच्चे बांस की बनी, मूंज की रस्सी से बिनी खाट देखी। मृतक-कार्य में यही विधान है। याद आयी बचपन की सुनी कविता- हरियर बंसवा के डोलिया बनइहा कि ललके क डरिहा ओहार, मुंजिया की रसरी से कसि-कसि बनिहा कि छोरिहैं सजनवां हमार…।
खाट पर हरे-लाल-पीले के मेल की दरी-चादर-तकिया…बगल में सफेद बनियान-धोती में मुंडे सिर दक्षिण को रुख किये बैठा मृत भौजी का छोटा बेटा और बगल में बैठा क्रिया-कर्म कराने वाला महापात्र या महाब्राह्मण और उसका सनातन प्रवचन, जिसमें मंत्र व कर्मकाण्ड तो कुछ नहीं, बस अधिकतम दान पाने की वकालत… कि मृतक को परम पद (मोक्ष-स्वर्गादि) दिलाने का अधिकारी वही है, जिसके लिए उसे खुश करना होगा और वह खुश होगा मुंहमांगी दक्षिणा से।
यजमान भी टस से मस नहीं
पता चला कि कुछ बदला नहीं, से भी आगे बहुत कुछ बढ़ा है। महंगाई और बाजार के अनुसार दहेज की तरह दक्षिणा का रेट भी आसमान छू रहा है। निरक्षर भट्टाचार्य उस महापात्र की ऐसी पेशेवरी कि अपने मात्र दो घंटे के समय के लिए सवा क्विंटल अनाज तय होने के बाद इक्कीस हजार रुपये की मांग कर रहा है। लेकिन सुखद लग रहा कि बढ़ा है यजमान का तेवर भी। जहां पहले लोग गिड़गिड़ाते थे, पैर पड़ते थे, किसी तरह निस्तार कर देने की विनतियां करते थे… आज भौजी का यह छोटा बेटा उसके इक्कीस हजार को धता बताते हुए ‘एक हजार से अधिक एक भी पैसा न देने’ का बेलाग जवाब देता है। मैं तो हतप्रभ, और खुश भी…। लेकिन महापात्र भी कम नहीं। इक्कीस के सामने एक हजार सुनकर न झल्लाता है, न हार मानता है, बल्कि पक्के दलाल की तरह पैंतरा बदलते हुए हिसाब बताता है- अपनी मां के साल भर का खाना ही दे दो- तीस रुपये से कम तो क्या रखोगे दोनों जून खाने और नाश्ता-पानी का। तो 365 दिन का दस हजार आठ सौ हुआ, बस ग्यारह हजार दे दो… न हमारी, न तुम्हारी। भगवान के दरबार में तुम्हारी माताजी की जय। लेकिन इस हिसाब के सामने यजमान भी टस से मस नहीं… ठकठेना अपने चरम पर… ।
अपने-अपनी गप में लगे लोग
इधर गांव-पूर व नात-बांत सभी लोग इन सबसे निरपेक्ष- गोया न कोई मरा है, न स्वर्ग-मोक्ष की कोई बात है, न उसके लिए कोई लेन-देन का संकट -ये तो जो है, हमेशा का कारबार है। लोग अपने-अपनी गप में लगे हैं… जिसमें ठंड के कम होने से लेकर धान के सरकारी व बनिये के भावों से होते हुए राज्य व लोक सभा दोनों के चुनाव साथ कराने की अटकलों तक और फलनवां बो के भाग जाने से ढेकनवा के खेत खरीदने के लिए ग्राहक पटाने तक का सब कुछ मजे से चल रहा है।
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महापात्र ससुर एतना पैसा मांग रहे
उसी में क्षोभ का एक स्वर भी कि कौन सा हल जोते हैं कि महापात्र ससुर एतना पैसा मांग रहे हैं… अरे भले हैं नाई-कहार जो इनको बुलाते ही नहीं। इसी बीच मुम्बई से आया भौजी का तीसरा बेटा सुभाष बीच में आकर 2100 देना कबूल कर लेता है और मामला पट जाता है, लेकिन ‘मरतिउ बेर कटक संहारा’ की तरह वचन बोलवाने की रौ में महाब्राह्मण अचानक 2400 की हामी भरा लेता है- रमेश ठगा-सा रह जाता है।
तब तक गप में भी नया मोड़ कि यहां घाट पर सबका बाल बनने तक बैठना और साथ में ही चलना क्यों जरूरी है… तमाम गांवों में तो लोग बाल बनवाके व नहाके चले जाते हैं और जब पूरा करके लोग घर पहुंचते हैं, तो आकर दाना-शर्बत में शरीक हो जाते हैं।
जब घर के लोग घाट से अकेले ही घर जाएंगे
और मैं डरने लगता हूं कि यदि ऐसा हुआ, तब तो स्वजन के मृत्यु-शोक पर सभी बन्धु-बान्धवों को जुटाने व 13-15 दिनों हमेशा सबको साथ रखने के पीछे ऋषियों का जो मंतव्य था, वही खत्म हो जाएगा। उन्होंने सामाजिकता का यह विधान इसीलिए तो बनाया था कि इस दौरान सबके साथ इतना सब कुछ करते-करते मृतक के अपने लोग इतने लम्बे व गहन साथ से हमेशा के लिए जुदाई की ऐकांतिक पीड़ा से बचे रहें और धीरे-धीरे अपने जीवन में पूर्ववत लौट आएं। तो कैसा होगा वह दिन, जब घर के लोग घाट से अकेले ही घर जाएंगे! और ऐसा होने लगा, तो घाट होगा ही क्यों?
यदि यह सब धीरे-धीरे बन्द हुआ, तो कैसा होगा वह जीवन या कैसा रह गया है बड़े शहरों के उच्च्वर्गीय इलाकों का जीवन, जहां परिवार के सदस्य की मृत्यु के बाद म्युनिसिपैलिटी को फोन किया जाता है और उनकी गाड़ी आकर लाश ले जाती है। फिर श्राद्ध-कर्म के नाम पर नासिक आदि जैसे किसी तीर्थ पर जाकर नाम-पते लिखाकर श्राद्ध कराने के पैसे दे दिये जाते हैं।