स्मरण: अजित राय।
प्रियदर्शन।
साल 1994 या 1995 में कभी ‘नवभारत टाइम्स’ के दफ़्तर में अजित राय पहली बार मिले थे- बिल्कुल तपाक से। उन्होंने बताया कि बीते कई दिनों से वे मेरी तलाश में थे- उन्हें बताया गया था कि प्रियदर्शन एक दाढ़ी-चश्मे वाला लड़का है। मैं उत्फुल्ल था। दिल्ली नया-नया आया था और फ्रीलांसिंग किया करता था। एक अनजान शहर में यह दोस्ताना अंदाज़ बिल्कुल बांधने वाला था।
आने वाले दिनों में हम गहरे दोस्त होते चले गए। इस दोस्ती में एक तीसरा नाम उमेश चतुर्वेदी का भी आ जुड़ा। बल्कि बाद में वे दोनों मेरे मुक़ाबले आपस में कहीं ज़्यादा घनिष्ठ हो गए।
1966 में मैंने ‘जनसत्ता’ ज्वाइन किया तो भी वहां लगभग रोज़ मिलने का सिलसिला चलता रहा। अच्युतानंद मिश्र जी एक तरह से हम तीनों के अभिभावक थे। वहीं अजित ने शैलजा से मिलाया जो उनकी जीवन संगिनी बन कर आई थीं- बेहद शालीन और संवेदनशील। बाद के वर्षों में शैलजा और स्मिता में बहुत आत्मीय संबंध रहे जो अब तक कायम हैं। उनका बेटा भार्गव भी इस परिचय की कड़ी बना रहा। तो कुल मिलाकर यह ऐसा पारिवारिक रिश्ता बन गया जिसके कोई न कोई धागे हमेशा बने रहे। दो दिन पहले ही स्मिता ने भार्गव की सगाई की तस्वीरें दिखाईं जो शैलजा ने भेजी थीं।
अजित राय में कई खूबियां थीं- वे दोस्त बनाना जानते थे, दोस्तों के काम भी आते थे। साहित्य और कला-विधाओ की ऐसी समझ रखते थे कि लोगों का ठीक से मूल्यांकन कर सकें। उनमें एक बेपरवाह खुलापन था जिसके फायदे और नुक़सान दोनों उन्हें झेलने पड़े। कुछ विवादों से भी घिरे। लेकिन ऐसे विवाद उनका कुछ बिगाड़ नहीं सके। वे ऐसे विवादों की परवाह करना भी शायद छोड़ चुके थे। वे प्रभाष जी, नामवर जी, केदार जी, राजेन्द्र जी- सबके क़रीब रहे। बाद के वर्षों में उन्होंने सिने-आलोचना में क़दम रखे और मुंबई से लंदन तक संपर्कों का जाल बिछाने के अलावा अपनी योग्यता का लोहा मनवाया। बीते कुछ अरसे में तो वे बिल्कुल अंतरराष्ट्रीय समीक्षक दिखने लगे थे। उनके जन्मदिन पर पार्टियां आयोजित होती रहीं। फेसबुक पर फिल्मी सितारों के साथ उनकी तस्वीरें तैरतीं।
इन तमाम वर्षों में मैं उन्हें कुछ दूर से देखता रहा। वे भी मुझसे कुछ दूर खड़े लगते। हालांकि अचानक हुई मुलाकातों में पुरानी आत्मीयता का कोई धागा ज़रूर खुल जाता, और वे मेरे लेखन की तारीफ़ करते हुए उलाहना सा देते- आप अपना सही इस्तेमाल नहीं कर रहे। मैं भी कुछ आत्मीय ताने के साथ कहता- आप तो बिल्कुल छाए हुए हैं। इस पर हम दोनों हंसते।
आख़िरी बार चौबीस जून को मेरे जन्मदिन पर उन्होंने लंदन से मेसेंजर पर बधाई भेजी। हमने फिर एक-दूसरे का हाल लिया। उन्होंने बताया कि अभी वे लंदन में हैं- एक हफ्ते के लिए नीदरलैंड जाएंगे और फिर लंदन लौट आएंगे। फिर उन्होंने एक सलाह दी जिससे समझ में आया कि दिल्ली की अंदरूनी साहित्यिक चर्चाओं से वे खूब परिचित हैं। उन्होंने मेरे साल भर के भीतर रिटायरमेंट का भी ज़िक्र किया।
कुछ देर पहले फेसबुक पर उनके न रहने की ख़बर मिली। मैंने उमेश चतुर्वेदी का नंबर खोजा। पुराना नहीं लगा तो मेसेंजर पर नया नंबर मांगा। फोन पर उमेश भी विचलित दिखे। उन्होंने बताया कि अजित सोए तो सोए ही रह गए। वे सोते-सोते चले गए।
अजित राय हमउम्र रहे- शुरुआती दौर के हमसफ़र भी। उमेश ने जो कहा, उसमें ‘सोते-सोते चले जाने’ का बिंब अजब सा कहीं सीने में आ गड़ा। क्या हम सब सोए-सोए चले जा रहे हैं? एक दूसरे से बेख़बर, आपसी शिकायतें से भरे?
अजित ने अच्छी-बुरी जैसी भी- लेकिन अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जी। उन्हें जब देखा- हंसता हुआ पाया। अपने लिए शुभकामनाओं से भरा पाया। मृत्यु के बाद जीवन की किसी कल्पना पर भरोसा नहीं है, लेकिन अगर कहीं वे होंगे तो हम पर हंस रहे होंगे- सोते रहो, मैं तो निकल लिया। मजाज़ याद आता है- ‘इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में / सब जाम बकफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए, छलका भी गए।’
अलविदा कहूं अजित जी? लेकिन सुनने के लिए आप हैं कहां? (साभार)