यह संसदीय गतिरोध है या व्यक्तिगत कटुता

#pradepsinghप्रदीप सिंह

संसद में गतिरोध कोई नई बात नहीं है, लेकिन गतिरोध को तोड़ने के लिए संवाद का अभाव नई बात है। दोनों पक्षों में कोई ऐसा नहीं है जिसकी बात सुनने के लिए दूसरा पक्ष तैयार हो। दरअसल यह संसदीय गतिरोध नहीं, बल्कि व्यक्तिगत कटुता है जो संसद को चलने नहीं दे रही। कम से कम अगले लोकसभा चुनाव तक तो इसमें किसी परिवर्तन के आसार नहीं दिखते।
कुल मिलाकर मामला यह है कि विपक्ष की जिद है कि न कुछ कहना है और न कुछ सुनना है। इसलिए ऐसी शर्तें रखो कि बातचीत का रास्ता ही न निकले। अब आप यह कह सकते हैं कि विपक्ष ही क्यों सत्ता पक्ष भी तो जिद पर अड़ा है। तर्क की दृष्टि से तो बात ठीक लगती है। ऐसा मानने वाले कह रहे हैं कि क्या हो जाएगा यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद में आकर मणिपुर पर बयान दे देंगे। वह संसद से बाहर बोल सकते हैं तो अंदर क्यों नहीं।

प्रधानमंत्री को झुकाने का भाव

इस प्रकार की मांग में वह सहजता नहीं है जो दिखाने की कोशिश हो रही है। इस मांग में देश के प्रधानमंत्री को झुकाने का भाव है। इस मांग का समर्थन न तो संसदीय नियम करते हैं और न ही परंपरा। भारतीय संसद के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि प्रधानमंत्री के बयान की शर्त पर ही कोई चर्चा शुरू हुई हो। इस मामले में नियम और परंपरा दोनों कसौटियों पर विपक्ष खरा नहीं उतर पा रहा। सिर्फ जिद और गतिरोध पैदा करने की ताकत उसके पास है, जिसका वह इस्तेमाल कर रहा है।
एक और तर्क दिया जाता है कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चले यह सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है। बात तो पूरी तरह सही है, लेकिन इसके साथ ही एक और सवाल है कि यदि विपक्ष सदन की कार्यवाही बाधित करने पर तुला हुआ हो तो सत्ता पक्ष सदन कैसे चलाए? अब जरा इस बात का आकलन कर लें कि इस गतिरोध से किसका फायदा और किसका नुकसान हो रहा है। सबसे बड़ा नुकसान तो देश की जनता का हो रहा है। वह महत्वपूर्ण विषयों और विधेयकों पर चर्चा के लाभ से वंचित है। विपक्ष जो चाहता है, वह हो नहीं रहा है। सरकार इस हंगामे में भी अपने विधायी कार्य निपटा रही है।

संवादहीनता क्यों

अब इस समस्या की जड़ पर कुछ चर्चा कर लें। सवाल है कि संवादहीनता क्यों है? यह संवादहीनता बनी है दो कारणों से। एक, संप्रग सरकार के कार्यकाल में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को झूठे मामलों में फंसाने में कांग्रेस ने सारी हदें पार कर दी थीं। सरकार, पार्टी, मीडिया, एनजीओ, सरकारी जांच एजेंसियों और कुछ हद तक अदालतों का दुरुपयोग हुआ। वह अभूतपूर्व था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार का सबसे बड़ा एजेंडा एक प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री को येन केन प्रकारेण जेल भिजवाने का था। उसमें सफलता नहीं मिली। इसकी टीस अभी तक गई नहीं है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व नरेन्द्र मोदी को फूटी आंख नहीं देखना चाहता। उसके दुर्भाग्य से मोदी एक नहीं दो-दो बार पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बन गए और तीसरी बार भी बनने वाले हैं।
दूसरा कारण है- जनादेश को अस्वीकार करना। 2014 में मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी तो कांग्रेस और उसके साथी दलों को लगा कि मतदाता से गलती हो गई है, जिसे ठीक करने की जिम्मेदारी हमारी है, लेकिन कैसे ठीक करें! उसका रास्ता चुना राज्यसभा के रूप में। राज्यसभा में भाजपा का बहुमत नहीं था और सभापति थे हामिद अंसारी। तब विपक्ष हंगामा करता रहा और अंसारी साहब मुस्कुराते हुए कहते रहे कि सदन में जब तक व्यवस्था नहीं होगी तब तक कोई विधायी कामकाज नहीं होगा। इसलिए सरकार चाहकर भी कई महत्वपूर्ण विधायी मसलों पर आगे नहीं बढ़ पाई। आप देख लीजिए कि सरकार ने अनुच्छेद 370 से लेकर तीन तलाक की समाप्ति जैसे कानून 2019 के बाद ही पारित कराए।

मौका गंवा दिया विपक्ष ने

चूंकि राज्यसभा के जरिये भी सरकार को रोकने का रास्ता बंद हो गया तो फिर एक ही रास्ता बचा और वह है-गतिरोध। यानी संसद की कार्यवाही ही मत चलने दो। संसद के हर सत्र के लिए एक नया मुद्दा ले आओ और उसके बहाने संसद की कार्यवाही ठप कर दो। इसमें कभी राफेल आता है। कभी पेगासस तो कभी अदाणी। कोई भी मुद्दा दूसरे सत्र तक नहीं टिकता। इस बार मणिपुर है। तीन मई से मणिपुर में हिंसा हो रही है। इस बीच विपक्षी गठबंधन की दो बैठकें पटना में 23 जून और बेंगलुरु में 17 से 18 जुलाई के बीच हो चुकी हैं। किसी बैठक में मणिपुर पर चिंता जाहिर नहीं की गई। उसके लिए संसद के सत्र और एक वीडियो के आने का इंतजार था।
मणिपुर की घटनाओं पर विपक्ष इतना चिंतित और विचलित है कि 20 जुलाई से अब तक संसद में इस पर चर्चा नहीं कर पाया। उसके लिए मुद्दे से ज्यादा महत्वपूर्ण वह नियम है, जिसके तहत चर्चा होनी चाहिए। विपक्ष के 21 सांसदों का प्रतिनिधिमंडल मणिपुर का दौरा करके कुछ दिन पहले ही लौटा है, लेकिन अपने अनुभव संसद और देश से साझा करने के लिए वह उत्सुक ही नजर नहीं आ रहा है। उसके पास एक उपयुक्त मौका था वहां का आंखों देखा हाल बताकर सरकार को घेरने और पूरे देश तक अपनी बात पहुंचाने का, किंतु उसने यह अवसर गंवा दिया।

विपक्ष की रणनीतिक गरीबी

थक-हारकर विपक्ष को एक ही रास्ता सूझा कि सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए। क्रिकेट में अमूमन आप पहले बल्लेबाजी तभी लेते हैं जब पिच आपके अनुकूल हो और आपके पास अच्छे बल्लेबाज हों। अविश्वास प्रस्ताव से सरकार तो गिरनी नहीं है। इसलिए रह जाता है सिर्फ बात कहने का अंदाज। इस मामले में कम से कम लोकसभा में विपक्ष फिसड्डी है। प्रधानमंत्री के संवाद कौशल पर तो उनके विरोधियों को भी संदेह नहीं। विपक्ष के पास उनके मुकाबले का कोई वक्ता है ही नहीं। इसलिए इस अविश्वास प्रस्ताव के जरिये विपक्ष ने प्रधानमंत्री मोदी को थाली में परोसकर अवसर दे दिया है। विपक्ष को लग रहा है कि इस प्रस्ताव पर तो प्रधानमंत्री को बोलना ही पड़ेगा। इसलिए प्रधानमंत्री को झुका दिया। यह विपक्ष की रणनीतिक गरीबी है। इस गरीबी रेखा के ऊपर उसे कोई नहीं उठा सकता।
(आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार। लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं।)