#pradepsinghप्रदीप सिंह।
गुरुवार 26 जून को दो घटनाएं हुई। दोनों संसद में हुई। पहली घटना- राहुल गांधी में अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार नेता प्रतिपक्ष बने और लगातार दो लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिलने लायक सीटें मिली। एक तरह से कहें तो बीच में एक-डेढ़ साल के लिए पार्टी अध्यक्ष बनने के अलावा राहुल गांधी ने कभी जिम्मेदारी लेने की कोशिश भी नहीं की। वह जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों से लगातार भागते रहे। पहली बार उनको जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। नेता प्रतिपक्ष बनने का मतलब है कि अब उनके अंदर प्रधानमंत्री बनने का सपना अंगड़ाई लेने लगा है।

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दूसरी खबर है- ओम बिडला लगातार दूसरी बार लोकसभा के अध्यक्ष चुन लिए गए और ध्यान से सुनिए- ध्वनि मत से चुन लिए गए। इसी में सारी कहानी है गुरुवार की। ओम बिड़ला के खिलाफ कांग्रेस पार्टी ने अपने केरल के सांसद के सुरेश को चुनाव मैदान में उतारा था। कांग्रेस पार्टी ने इस पूरे चुनाव का वातावरण खराब करने के लिए हर संभव कोशिश की। आजाद भारत के इतिहास में यह तीसरा मौका है जब लोकसभा अध्यक्ष के लिए चुनाव की नौबत आई। पहली बार 1952 में, दूसरी बार इमरजेंसी के समय 1976 में और अब तीसरी बार। लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की कोई जरूरत नहीं थी। आम राय की परंपरा को बने रहने देना चाहिए था। लेकिन राहुल गांधी को अपनी ताकत दिखानी थी। उनको दिखाना था कि उनकी पार्टी, उनका गठबंधन बहुत ताकतवर हो गया है। तो पहला काम जो वह नतीजे आने के बाद से कर रहे हैं उस मुहिम को लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के समय और तेज कर दिया। वह जेडीयू और टीडीपी से अपने उम्मीदवार को समर्थन देने के लिए अपील करने लगे। बड़ी अच्छी बात है अगर इस चुनाव में हरा देते बीजेपी को, अगर कांग्रेस का उम्मीदवार जीत जाता तो सरकार गिर जाती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिकस्त देने का इससे सुनहरा मौका राहुल गांधी के लिए क्या था? यह पहली सीधी लड़ाई थी संसद के अंदर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच- यानी नेता सदन और नेता प्रतिपक्ष के बीच में- यानी सत्तारूढ दल और विपक्षी दलों के गठबंधन के बीच में। विपक्षी गठबंधन लगातार कह रहा था कि एनडीए का गठबंधन बड़ा कमजोर है। इसमें आम राय नहीं है। सब एक मत नहीं हैं और इसमें अंदर से बिखराव है, दरारे हैं, यह सरकार किसी भी समय गिर सकती है। ऐसी बातें कांग्रेस के सभी नेता समय-समय पर बोल रहे हैं। यह चुनाव उस बात का इम्तिहान था कि एनडीए कितना मजबूत है और इंडी गठबंधन कितना मजबूत है।

इस पहले मुकाबले से राहुल गांधी मैदान छोड़कर भाग गए। आप कहेंगे कि इसमें मैदान छोड़कर भाग जाने वाली कौन सी बात है? जैसा मैंने शुरुआत में कहा कि ओम बिड़ला ध्वनि मत से चुने गए। जब इस तरह का मुकाबला होता है विपक्ष और सत्ता पक्ष में तब विपक्ष यह जानते हुए भी कि हार जाएंगे, मत विभाजन (डिवीजन) की मांग करता है। कांग्रेस पार्टी बल्कि इंडी गठबंधन को पहले से पता था पता था कि वे अपना उम्मीदवार जिता नहीं पाएंगे, फिर भी उन्होंने मुकाबले में उतरने का फैसला किया। वे चाहते तो दशकों की परंपरा का सम्मान करते हुए आम सहमति से ओम बिडला को लोकसभा का अध्यक्ष चुनने में मदद करते लेकिन उनको अपनी ताकत दिखानी थी। जब ताकत दिखाने की कोशिश की तो पता चला कि घर में ही दरार है। अगर चुनाव यानी मतदान की नौबत आई तो अपने घर की दरारें दिख जाएंगी।

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राहुल गांधी के बारे में यह कहावत सटीक बैठती है कि ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया है। उनके लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल होने वाला है। जब संसदीय बहस होती है, चर्चा होती है तो कई मामलों में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी नेता सदन से ज्यादा होती है। उसे सरकार को घेरना पड़ता है। नेता सदन को तो अपनी सरकार की उपलब्धियों को, विजन को, आगे वह क्या करने वाले हैं- यह बताना होता है। विपक्ष को खामियां खोजनी होती हैं और एक अल्टरनेटिव विजन प्रस्तुत करना होता है। विपक्ष के नेता को तत्काल जवाब देना पड़ता है। यहां प्रत्युत्पन्नमति की बड़ी जरूरत होती है और बड़े रिसर्च की जरूरत होती है। आपको नियमों का पता हो, आपको विषय की जानकारी हो, जिस विषय पर चर्चा हो रही है उस पर आप हस्तक्षेप करने की क्षमता रखते हों-  इस 18वीं लोकसभा में राहुल गांधी का इन सब बातों का इम्तहान होने वाला है।

लेकिन मैंने जो बात कही थी कि राहुल गांधी  मैदान छोड़कर भाग गए। तो मैदान छोड़कर कैसे भाग गए? राहुल गांधी के लिए लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव का यह मौका यह दिखाने का पहले अवसर था कि उनका इंडी गठबंधन ज्यादा मजबूत है- अगर वह कुछ और लोगों को जोड़ पाते या अपने पूरे गठबंधन को साथ रख पाते। डिवीजन की मांग नहीं करना और आम सहमति पर सहमत ना होना- ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। आम सहमति के लिए तैयार हो जाते तो इज्जत बची रहती, लाज ढकी रहती। डिवीजन की मांग करते तो लाज खुल जाती, सार्वजनिक हो जाता कि गठबंधन में कितने साथी साथ हैं और कितने अलग थलग हैं। एक बयान का उदाहरण देता हूं। यह सब लोग जानते हैं कि अभिषेक बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री हैं, लोकसभा सदस्य हैं और ममता बनर्जी के राजनीतिक वारिस हैं। उनसे बुधवार को जब लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने या किसी अन्य ने हमसे कोई संपर्क नहीं किया, कोई सलाह मशवरा नहीं किया। इसका मतलब तृणमूल कांग्रेस कांग्रेस पार्टी के साथ इस मुद्दे पर साथ नहीं थी।

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मुझे नहीं मालूम कि अगर डिवीजन की मांग होती तो तृणमूल कांग्रेस समर्थन में वोट करती, विरोध में वोट करती या ऐब्स्टेन करती- यही तीन विकल्प हैं। बहिर्गमन का भी एक विकल्प होता है कि आप मतदान के समय सदन से उठकर चले जाएं। तृणमूल कांग्रेस इन चारों में से जिस भी विकल्प का इस्तेमाल करती उससे मालूम होता कि इंडी गठबंधन कितना मजबूत या कमजोर है। मत विभाजन (डिवीजन) की मांग न करना बताता है कि इंडी गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है। उसकी दीवारें पोली हैं वह कभी भी गिर सकती हैं। किसी भी बड़े धक्के से उनमें बड़ी दरार आ सकती है और वह गिर सकती है। खास तौर से तृणमूल कांग्रेस के रवैये को देखते हुए। कांग्रेस और सीपीएम के साथ को लेकर ममता बनर्जी का स्पष्ट मानना है कि अगर ये दोनों साथ हैं तो हम साथ नहीं हैं। तृणमूल को साथ लाने की कोशश में कांग्रेस पार्टी ने चिदंबरम को ममता बनर्जी को मनाने के लिए भेजा गया था। आशय था कि “राहुल गांधी पहली बार प्रतिपक्ष के नेता बन रहे हैं। ऐसे में उनको अपनी ताकत दिखाने का मौका मिलना चाहिए। आप साथ दीजिए।” लेकिन लगता नहीं कि ममता बनर्जी इसके लिए तैयार हुईं। अगर ममता बनर्जी तैयार होतीं तो मेरा पक्का मानना है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी डिवीजन की मांग करते। एक बार आपने जब आम सहमति के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और आपने एक तरह से ब्लैकमेल करने की कोशिश की।

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राहुल गांधी की हार का दूसरा मुद्दा बताता हूं। रक्षा मंत्री और लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के डिप्टी लीडर राजनाथ सिंह स्पीकर के मुद्दे पर आम सहमति के लिए विपक्ष से बातचीत करने गए थे। राहुल गांधी से बात हुई, मल्लिकार्जुन खड़गे से भी बात हुई और कांग्रेस के दूसरे नेता जो उस बैठक में रहे हों- उन लोगों से बात हुई। कांग्रेस ने शर्त रखी कि आप अभी और इसी समय डिप्टी स्पीकर के पद के बारे में फैसला कीजिए कि वह हमारा यानी विपक्ष का होगा। राजनाथ सिंह ने कहा कि इस शर्त के साथ हम नहीं मान सकते। हम डिप्टी स्पीकर के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं और उसके लिए आम सहमति बनाने के लिए भी तैयार हैं, लेकिन इस शर्त के साथ नहीं मानेंगे। मान लीजिए कि राजनाथ सिंह ये मान जाते हैं तो आप समझिए इसका राजनीतिक संदेश क्या जाता? इसका राजनीतिक संदेश जाता कि बीजेपी का अपना बहुमत नहीं आया इसलिए मोदी कमजोर पड़ गए। यह सीधे अटैक होता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कि उन्होंने विपक्ष के सामने सरेंडर कर दिया। खास तौर से राहुल गांधी के पैरोकार हैं यह चलाते कि नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के सामने सरेंडर कर दिया, उनकी शर्त मानने पर मजबूर हो गए… ज्यादा संख्या में होने के बावजूद उनको विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद देना पड़ा। बीजेपी कह रही कि भाई जहां-जहां आपकी कांग्रेस की सरकार है और जहां-जहां इडी गठबंधन की पार्टियों की सरकार है हर जगह आपने विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों पद अपने पास रखे हैं फिर हमसे कैसे अपेक्षा करते हैं कि हम आपको उपाध्यक्ष का पद दे देंगे। तो भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह फैसला कि लोकसभा उपाध्यक्ष के मुद्दे पर झुकना नहीं है- लड़ाई की पहली बड़ी जीत है। दूसरी जीत है- विपक्ष और खास तौर से कांग्रेस और राहुल गांधी का डिवीजन नहीं कराने का फैसला। इसका मतलब है कि आप आश्वस्त नहीं थे कि आपके गठबंधन की जो 234 की संख्या है, वह सबका सब वोट, आपको मिलेगा। यह कलई इसी चुनाव में खुल जाती इसलिए डिवीजन से भाग गए।

भारतीय जनता पार्टी ने दिखा दिया कि उसका गठबंधन एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) जिसकी 292 सीटें हैं, उससे ज्यादा संख्या जुटाने में वह सफल होगी। उसका पहला उदाहरण मिला जब वाईआरसीपी कांग्रेस ने घोषणा की कि वह एनडीए के लोकसभा अध्यक्ष उम्मीदवार का समर्थन करेगी। इस तरह लोकसभा में एनडीए के समर्थकों की संख्या बढ़ गई तो भारतीय जनता पार्टी ने एक और संकेत दिया कि हम अपनी संख्या को एक साथ रखने में तो कामयाब हैं ही- हम अपनी संख्या बढ़ाने में भी सफल हैं। कांग्रेस पार्टी यह संदेश नहीं दे पाई कि उसके गठबंधन के सारे साथी दल साथ हैं। तो यह राहुल गांधी की यह पहली स्ट्रेटेजिक हार है। अगर उनको राजनीति की समझ होती और पता होता कि इसका संदेश क्या जाएगा- उनके रणनीतिकारों को समझ में आता… तो उनको समझाते कि आप हाई मोरल स्टैंड लीजिए और कहिए कि हम चली आ रही परंपरा के साथ हैं- आम सहमति से लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव होता रहा है और इस बार भी ऐसा ही होगा। ऐसा होता तो विपक्षी गठबंधन की असलियत ढकी रहती। लेकिन ऐसा नहीं करके और उसके बाद डिवीजन की मांग नहीं करके आपने सारे पत्ते खोल दिए। आपके गठबंधन की दरारें सामने आ गई हैं और आने वाले दिनों में यह दरार और बढ़ने वाली है और जो लोग इस उम्मीद में जी रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक जीवन में कभी गठबंधन की सरकार नहीं चलाई उनको आगे चलकर बड़ी निराशा होने वाली है। यह तो शुरुआत है। आगे आगे देखिए होता है क्या…?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)