डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले चुनाव की तरह ही इस बार भी चुनाव प्रचार समाप्त होते ही ध्यान साधना के लिए चले गए। पिछली बार उन्होंने उत्तराखंड के केदारनाथ की रूद्र गुफा को अपनी ध्यान स्थली के रूप में चुना था। इस बार वे तमिलनाडु में कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल में ध्यान मग्न होने पहुंचे। यानी प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के हिमालय के उस क्षेत्र में जहां आद्य गुरु शंकराचार्य ने साधना की, से लेकर सुदूर कन्याकुमारी जहां आधुनिक ऋषि विवेकानन्द की तपोस्थली है, वहां स्वयं की साधना के लिए स्थान तय किया।
आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत कामना और निज से जुड़े बेहद आध्यात्मिक प्रसंग को भी भारत जैसे सर्वपंथ सद्भाव वाले देश में कई लोगों द्वारा नकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। मीडिया में चल रहीं कई अंतहीन बहसों में इंडी गठबंधन से जुड़े नेता प्रधानमंत्री के इस निजी प्रसंग को भी राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं और उनकी भरपूर आलोचना कर रहे हैं। विषय यह है कि क्या विपक्ष का यह रवैया सही है? प्राचीन ग्रंथ ‘बृहस्पति आगम’ में भारत के भू-भाग को एक श्लोक में बहुत ही सुंदर ढंग से समझाया गया है- ‘‘हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थान प्रचक्षते॥”
इसका अर्थ है, हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है। इस श्लोक की साधारण व्याख्या आगे स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अपने अंदाज में बहुत सरल एवं आवश्यक व्याख्या की है । वे लिखते हैं- आसिन्धुसिन्धुपर्यंता यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
तात्पर्य- ‘सिन्धु नदी के उद्गमस्थान से कन्याकुमारी के समुद्रतक (विस्तृत भूभाग को) भारत भूमि को जो पितृ भूमि (मातृ भूमि) और पुण्य भूमि मानते हैं, उन्हें ‘हिन्दू’ कहते हैं। 1923 में प्रकाशित सावरकर की रचना “एसेंशियल ऑफ हिन्दुत्व” अस्तित्व में आई। उन्होंने इस पुस्तक में भारत वर्ष में रहनेवाले लोग कौन हैं इस पर गहराई से प्रकाश डाला है।
जो भारत को सर्वस्व माने, वह हिन्दू
पुस्तक का ‘सारतत्व यह है कि, हिंदू वह है, जो सिंधु से सिंधुपर्यन्त समुद्र तक फैले हुए इस देश को अपने पूर्वजों की भूमि के रूप में अपनी पितृभूमि (पितृभु), मानकर पूजता हो; जिसके शरीर में उस महान जाति का रक्त प्रवाहित हो रहा हो जिसका मूल वैदिक सप्तसिंधुओं में सर्वप्रथम दिखाई देता है और जो कुछ भी इसमें शामिल था उसको आत्मसात करते हुए तथा जो भी शामिल था उसको और बेहतर योग्य करते हुए संसार में “हिंदू” नाम से विख्यात हुई। जो हिन्दुस्तान को अपनी पितृभूमि (पितृभु) और हिन्दू जाति को अपनी जाति मानने के कारण उस हिन्दू संस्कृति को अपनी विरासत मानता है और दावा करता है जो मुख्य रूप से उनकी सामान्य पारंपरिक भाषा, संस्कृत में व्यक्त की जाती है और एक साझा इतिहास, एक साझा साहित्य, कला और वास्तुकला, कानून और न्यायशास्त्र, संस्कारों और रिवाजों, समारोहों और धार्मिक उत्सवों, मेलों और त्योहारों द्वारा प्रकट होती है; और सबसे बढ़कर इस भूमि को, इस सिंधुस्तान को अपनी पवित्र भूमि (पुण्यभु) के रूप में संबोधित करता है, और इसे धर्मप्रर्वतकों (पैंगम्बरों) की भूमि के रूप में, अपने ईश्वर और गुरुओं की तथा धर्मपरायणता और तीर्थभूमि के रूप में देखता है।’
“एसेंशियल ऑफ हिन्दुत्व” में सावरकर जोर देकर कहते हैं कि ‘ये हिंदुत्व की अनिवार्यताएं हैं- एक साझा राष्ट्र (राष्ट्र), एक साझा नस्ल (जाति), और एक साझा सभ्यता (संस्कृति)। इन सभी आवश्यक बातों को समेटकर, संक्षेप में यह कहकर प्रस्तुत किया जा सकता है कि एक हिंदू वह है जिसके लिए सिंधुस्थान न केवल पितृभूमि (पितृभु) है, बल्कि पवित्र भूमि (पुण्यभू) भी है।’ हिन्दू शब्द पर की गई इस व्याख्या से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी पंथ, मजहब, धर्म, विचार को माने या न मानें कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन भारत-भू को अपना सर्वस्व माननेवाला यहां निवासरत प्रत्येक मनुष्य हिन्दू है। क्योंकि उसकी पुण्यभूमि और जन्म भूमि भारत है और उसके पुरखे भी समान हैं ।
अब प्रधानमंत्री मोदी यहां क्या कर रहे हैं? वे अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित ज्ञान परंपरा के तमाम केंद्रों पर लगातार जा रहे हैं, जो भारत की मूल सांस्कृतिक पहचान हैं। उस पहचान के आधुनिक विस्तार में आज प्रधानमंत्री मोदी अपना (राजनीतिक, आर्थिक समाजिक, धार्मिक) हर संभव योगदान दे रहे हैं । पिछले 10 सालों में सत्ता में रहते हुए उन्होंने एक ओर आधुनिक भारत के लिए जरूरी सभी आवश्यकताओं को अपरिहार्य रूप से पूरा करने के लिए अपना संकल्प दिखाया है तो दूसरी ओर भारतीय ज्ञान परंपरा के वाहक स्तम्भों को कैसे और अधिक विस्तार दिया जा सकता है उस दिशा में कार्य किया है ।
तपस्वी एकनाथ रानडे
वर्तमान में जिस स्वामी विवेकानन्द को समर्पित विवेकानंद रॉक मेमोरियल की बात हो रही है, उसे विवेकानंद स्मारक मन्दिर बनाने का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तपस्वी साधक एकनाथ रानडे को जाता है। वे रा.स्व. संघ के सरकार्यवाह रहे। इसे बनाने के लिए लगभग 73 हजार विशाल प्रस्तर खण्डों को समुद्र तट पर स्थित कार्यशाला में कलाकृतियों से सज्जित करके समुद्री मार्ग से शिला पर पहुंचाया गया। इनमें कितने ही प्रस्तर खण्डों का भार 13 टन तक था। स्मारक के निर्माण में लगभग 650 कारीगरों ने 2081दिनों तक रात-दिन श्रमदान किया था। कुल मिलाकर 78 लाख मानव घंटे इस तीर्थ की प्रस्तर काया को आकार देने में लगे और इस तरह से यह 2 सितम्बर, 1970 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. वी.वी. गिरि एवं तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि की अध्यक्षता में आयोजित एक विराट समारोह के माध्यम से पूरी दुनिया के प्रकाश में आया।
इतिहास हमें बहुत कुछ दिखाता और सिखाता है। आज देश अपनी उस महारानी की 300 वां जन्म जयंती वर्ष मना रहा है, जोकि एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर होल्कर साम्राज्य की सर्वेसर्वा बनीं। न सिर्फ इस पद पर रहीं बल्कि पद की शोभा उन्होंने इस प्रकार से बढ़ा दी थी कि सांस्कृतिक भारत के पुनर्निमाण में उन्होंने अपने समय में जो योगदान दिया, उसकी वर्तमान में जितनी भी गहराई में जाकर समीक्षा की जाएगी तो वह भी कम होगी। पुण्यश्लोका लोकमाता देवी अहिल्याबाई के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से सारे देश को परिचित होना चाहिए, यह अपने काल के हर वर्तमान और भविष्य की बेहद अहम जिम्मेदारी है। इसलिए उनके जन्म के 300 साल बाद ही सही पूरा देश अखिल भारतीय स्तर पर ‘लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी समारोह समिति’ का गठन कर उन्हें याद कर रहा है।
सनातन संस्कृति का अभ्युदय
आप यह अवश्य सोच सकते हैं कि जिस प्रकार वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कुछ भी करना आसान नहीं रहता है, वैसे ही तत्कालीन समय में देवी अहिल्याबाई के लिए भी कुछ कर पाना सरल तो बिल्कुल भी नहीं रहा होगा। रानी अहिल्याबाई को अपने समय में कितना यश एवं समर्थन मिला यह अपनी जगह है, यहां इन दो उदाहरणों से समझ भी सकते हैं, सोचिए; महारानी ने वैधव्य प्राप्त होने के कठिन समय के उपरान्त भी आगे 30 वर्ष तक कुशलता से मालवा में अपने साम्राज्य का संचालन किया।
जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य व उनकी कल्पनाओं के अनुरूप सनातन हिन्दू धर्म के आदर्शों एवं न्याय सिद्धान्तों के आधार पर लोक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था को साकार रूप दिया हो, उन देवी अहिल्याबाई के जन्मस्थान को उनके नाम से पहचान मिले इस कार्य को करने के लिए भी भारत में 300 वर्षों तक का इंतजार करना पड़ा है। यह एक अलग संयोग है कि कभी किसी शिंदे परिवार में जन्म लेनेवाली बेटी अहिल्या को अपने घर का नाम अपने नाम पर महाराष्ट्र की राजसत्ता मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के हाथों में रहते हुए मिला है।
दूसरा उदाहरण धार का है जहां राजाभोज ने अपनी निर्माण कराई गई भोजशाला में वाग्देवी को विराजमान करते हुए ज्ञान का एक वृहद विश्वविद्यालय स्थापित किया था। कालान्तर में वह कब ‘‘कमाल मौला मस्जिद’’ में बदल गया कुछ पता ही नहीं चला। धार में 1000 से 1055 ईस्वी तक परमार वंश के समय राजा भोज ने यहां शासन किया। भोज सरस्वती देवी के अनन्य भक्त थे, इसलिए उन्होंने 1034 ईस्वी में यहां पर जिस ज्ञान मंदिर की स्थापना कराई वह ‘भोजशाला’ के नाम से विख्यात हुई।
1305 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला को ध्वस्त कर दिया। बाद में 1401 ईस्वी में दिलावर खान गौरी ने भोजशाला के एक हिस्से में मस्जिद बनवा दी। इसके बाद 1514 ईस्वी में महमूद शाह खिलजी ने दूसरे हिस्से में भी मस्जिद बनवा दी। फिर जब 1875 में यहां पर खुदाई की गई थी। तब इस खुदाई में सरस्वती देवी की एक प्रतिमा पाई गई जिसे मेजर किनकेड नाम का अंग्रेज लंदन ले गया और तब से यह प्रतिमा लंदन के संग्रहालय को अपनी दिव्यता प्रदान कर रही है।
यहां कोई यह अवश्य पूछ सकता है कि इस संपूर्ण घटना से देवी अहिल्याबाई का क्या संबंध है? जवाब होगा कि संबंध बहुत गहरा है। क्योंकि जिस समय रानी अहिल्याबाई मालवा के सिंहासन पर बैठी थीं, तब भी धार, भोजशाला इस्लामिक आक्रान्ताओं के आतंक से पीड़ित थी। ऐसे में रानी चाहती तो भोजशाला के निवारण में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देती, लेकिन इसके उलट रानी अहिल्या ने अपने लिए दूसरा मार्ग चुना। सबसे पहले उन्होंने सांस्कृतिक भारत के पुनर्जागरण के लिए देश व्यापीयात्रा को अपने कार्य का आधार बनाया ।
विदेशी आक्रमणकारियों और मुगल साम्राज्य के कारण ध्वस्त हो चुके भारत के तीर्थ स्थलों के पुनर्निर्माण करने का उन्होंने संकल्प लिया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य मात्र पुण्य लाभ प्राप्त करना नहीं लगता है, अपितु भारत की अस्मिता को पुनर्स्थापित करने की उनकी मंशा नजर आती है। समस्या सिर्फ इस्लाम, मुगल या अंग्रेज, डच, फ्रांसीसी, पुर्तगालियों के भारत आक्रमण की नहीं थी, इससे बड़ा जो कार्य होना था, वह था भारत के ‘‘स्व का जागरण’’।
एकात्मता के पुण्यस्थल
वे मानती थीं कि भारत की एकात्मता में तीर्थ यात्राओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है, किंतु तीर्थ स्थलों पर सुविधाओं एवं सुरक्षा के अभाव के कारण देश भर से आने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या निरंतर घट रही है। तीर्थ स्थल भी उजाड़ तथा वीरान हो चुके हैं। जैसे कभी आद्य गुरु शंकराचार्य ने प्राचीन मंदिरों की पुनर्प्रतिष्ठा आवश्यकता पड़ने पर स्वयं से मंदिरों में सफाई अभियान और पुनर्निमाण कराकर आरंभ की थी, वैसे ही अहिल्या बाई के समय में हिन्दू तीर्थ स्थलों के जागरण का कार्य आरंभ होता दिखा।
उन्होंने देश के 100 से अधिक बड़े तीर्थ स्थलों पर धर्मशालाओं, अन्नक्षेत्रों तथा जल संरचनाओं का निर्माण करवाया। दुर्दशा को प्राप्त हो चुके काशी विश्वनाथ तथा सोमनाथ मंदिर का भी पुनरुद्धार करवाया। जिसमें कि काशी में ज्ञानवापी का मसला उन्होंने धार की तरह ही आनेवाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया, ताकि भविष्य का सनातन शक्ति सम्पन्न भारत इसके समाधान का अपना मार्ग खोजे। फिर भी यह एक तथ्य है कि इतनी बड़ी संख्या में इतने अधिक स्थानों पर और इतने बड़े क्षेत्र में करवाए गए निर्माण कार्य का यह विश्व में एकमात्र उदाहरण है।
देवी अहिल्याबाई द्वारा करवाए गए इन निर्माणों को भारत के मानचित्र पर देखने पर हम उनकी अखिल भारतीय दृष्टि से भी परिचित होते हैं। यह तीर्थ स्थान दक्षिण में रामेश्वरम से लेकर उत्तर में केदारनाथ तक तथा पश्चिम में सोमनाथ से लेकर पूर्व में जगन्नाथपुरी तक देखने को मिलते हैं। इतना ही नहीं अहिल्याबाई दूसरे स्वरूप में महिला सशक्तिकरण के आवश्यक तत्वों में स्त्रीशिक्षा तथा स्वावलंबन के लिए अनेक सफल प्रयास करती हुई दिखाई देती हैं। इस्लामी शासकों के कारण हिंदू समाज में आए दोष जैसे सतीप्रथा, दहेज, स्त्री को बाहर न निकलने देना आदि से भी मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने प्रयास आरंभ कर दिए थे। महेश्वर का साड़ी उद्योग उनकी दूर दृष्टि व कुशल प्रबंधन का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने युद्धों में हताहत सैनिकों की स्त्रियों के स्वावलंबन के लिए कौशल विकास, उत्पादन एवं उनके विपणन तथा ब्रांडिंग का उत्तम प्रबंध किया।
देवी अहिल्याबाई और मोदी
देवी अहिल्या बाई ने जो किया वह आज से 280 साल पूर्व में सफलता के साथ आरंभ किया था। वही कार्य आज दूसरे अर्थों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21वीं सदी में करते हुए दिखाई देते हैं। उनके बीते दस साल के शासनकाल में आप देखिए कि कैसे भारत के प्राचीन नगरों एवं पूजा स्थलों का जीर्णोंद्धार हो रहा है। वे भारत की आध्यात्मिक चेतना को एक सूत्र में पिरोते हुए दिखाई देते हैं। आलोचना करनेवाले जो भी कहें, किंतु इस बात को क्या कोई नकार सकता है कि सांस्कृतिक भारत के पुनर्निमाण में प्रधानमंत्री मोदी का योगदान लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में अभी तक की सभी सरकारों के कार्यकाल में सबसे अधिक रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी उत्तराखण्ड जाते हैं, फिर वहां विकास का एक नया दौर शुरू होता दिखता है। वे वाराणसी बाबा विश्वनाथ से होते हुए सारनाथ, विंध्यवासिनी, वहां से बोध गया, नालंदा तक संदेश देते हुए उज्जैयनी के महाकाल लोक में आते हैं और रामपथ गमन का संपूर्ण मार्ग प्रशस्त करते हैं! फिर ओंकारेश्वर होते हुए दक्षिण भारत, गुजरात, पूर्वोत्तर भारत की यात्रा करते-करते प्रधानमंत्री मोदी जम्मू कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भारत को उसकी प्राचीन आध्यात्मिक देव परंपरा के साथ एक नए सिरे से जोड़ते हुए दिखाई देते हैं। जिसमें विकास भी है, रोजगार भी है, आध्यात्म भी है और शांति भी है।
कन्याकुमारी का भगवती अम्मन मंदिर
मोदी जब धोती और सफेद शाल ओढ़े कन्याकुमारी के भगवती अम्मन मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं, तब तक इस मंदिर के बारे में देश में कितने लोग जानते थे कि यह सभी कामनाओं को पूरा कर देनेवाले मंदिर के रूप में स्थानीय स्तर पर अपनी ख्याति रखता है। इसके बाद रॉक मेमोरियल पहुंचकर वे ‘ध्यान मंडपम’ में अपना ध्यान शुरू कर देते हैं। अब पूरे विश्व में पिछले कई दिनों से प्रधानमंत्री द्वारा ध्यान किए जा रहे विवेकानन्द रॉक मेमोरियल को ही सर्च किया जा रहा है।
विवेकानंद रॉक मेमोरियल का स्थान स्वामी विवेकानंद के जीवन से उसी तरह से जुड़ा हुआ है, जिस तरह से गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था । संपूर्ण देश का भ्रमण करने के बाद स्वामी विवेकानंद को ध्यान में भारत माता के विकसित स्वरूप का दर्शन यहीं हुआ था। अत: आज आप स्वयं देख सकते हैं कि कैसे प्रधानमंत्री मोदी ने इस क्षेत्र में वैश्विक पर्यटन को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने की दिशा में काम कर दिया है। यदि आप आध्यात्मिक एवं धार्मिक पर्यटन से जुड़े आंकड़े देखेंगे तो चौंक जाएंगे, क्योंकि यह सच है कि जहां भी प्रधानमंत्री मोदी पहुंचे हैं, वहां बहुत अधिक आर्थिक ग्रोथ हुई है और निरंतर हो रही है।
बढ़ता धार्मिक पर्यटन
जेफरीज नामक एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरेज कम्पनी ने बताया है कि अयोध्या में निर्मित प्रभु श्रीराम के मंदिर से भारत की आर्थिक सम्पन्नता बढ़ने जा रही है। अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर में श्रीराम लला के विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात प्रत्येक दिन औसतन दो लाख से अधिक श्रद्धालु अयोध्या पहुंच रहे हैं। इसी तरह से तिरुपति बालाजी, काशी विश्वनाथ मंदिर, उज्जैन में महाकाल लोक, जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर, उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री एवं यमनोत्री जैसे कई मंदिरों में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ रही है।
भारत में धार्मिक पर्यटन में आई जबरदस्त तेजी के बदौलत रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं, जो देश के आर्थिक विकास को गति देने में सहायक हैं। इन सभी को देखकर कहा जा सकता है कि भारत में मंदिर प्राचीन काल से ही वाणिज्य, कला, संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक जीवन का केंद्र रहे हैं। यहीं पर लोग स्वास्थ्य, धन, संतान, किसी विशिष्ट बाधा को दूर करने या यहां तक कि किसी मूल्यवान वस्तु की प्राप्ति के लिए देवी-देवताओं से प्रार्थना करने आते हैं ।
मिनेसोटा विश्वविद्यालय के बर्टन स्टीन ने 1960 में इस पर ‘द इकोनॉमिक फंक्शन ऑफ ए मिडीवल साउथ इंडियन टेम्पल’ नाम से एक मौलिक पेपर लिखा था, जो द जर्नल ऑफ एशियन स्टडीज में प्रकाशित हुआ। इसके निष्कर्ष कहते हैं कि “कुछ मायनों में, तीर्थयात्रा मार्गों के साथ-साथ पर्यटन-समृद्ध आर्थिक क्षेत्रों का विकास, व्यापक शोध से उपजा है, जिससे पता चला है कि पूरे भारतीय इतिहास में तीर्थस्थल महत्वपूर्ण आर्थिक केंद्र थे”।
धार्मिक यात्रा के आंकड़े जबरदस्त हैं
एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन) के मुताबिक 55 प्रतिशत हिंदू, धार्मिक यात्राओं में अपने यात्रा व्यय का 50 प्रतिशत हिस्सा खर्च कर देते हैं। एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार, मंदिर की अर्थव्यवस्था 3.02 लाख करोड़ रुपये या लगभग 40 अरब डॉलर और जीडीपी का 2.32 प्रतिशत है। वास्तव में, यह बहुत बड़ा हो सकता है। फूल, तेल, दीपक, इत्र, चूड़ियाँ, सिन्दूर, चित्र और पूजा के कपड़े सभी शामिल हैं। असुरक्षित अनौपचारिक श्रम का विशाल बहुमत इसे प्रेरित करता है। यह अनुमान लगाया गया है कि अकेले यात्रा और पर्यटन उद्योग भारत में 80 मिलियन से अधिक लोगों को रोजगार देता है, जिसमें साल-दर-साल 19 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर और अकेले पिछले वर्ष में 234 बिलियन डॉलर से अधिक का राजस्व है।
दुनिया के अन्य देशों के आंकड़े उठाकर देख लीजिए; विश्व के कई देश धार्मिक पर्यटन के माध्यम से अपनी अर्थव्यवस्थाएं सफलतापूर्वक मजबूत कर रहे हैं। सऊदी अरब धार्मिक पर्यटन से प्रति वर्ष 22,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर अर्जित करता है। सऊदी अरब इस आय को आगे आने वाले समय में 35,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक ले जाना चाहता है। मक्का में प्रतिवर्ष 2 करोड़ लोग पहुंचते हैं, जबकि मक्का में गैर मुस्लिम के पहुंचने पर पाबंदी है। इसी प्रकार, वेटिकन सिटी में प्रतिवर्ष 90 लाख लोग पहुंचते हैं। इस धार्मिक पर्यटन से अकेले वेटेकन सिटी को प्रतिवर्ष लगभग 32 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आय होती है, और अकेले मक्का शहर को 12,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आमदनी होती है।
धार्मिक यात्राओं से राष्ट्रीय एकता
एक वेबिनार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर दिया कि भारत में रामायण सर्किट, बुद्ध सर्किट, कृष्णा सर्किट, पूर्वोत्तर सर्किट, गांधी सर्किट और सभी संतों के तीर्थों पर काम होना चाहिए। सदियों से जनता द्वारा की गई विभिन्न यात्राओं का हवाला देते हुए, प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि कुछ लोग सोचते हैं कि पर्यटन उच्च आय वाले समूहों के लिए एक फैंसी शब्द है, लेकिन यह सदियों से भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का हिस्सा रहा है। लोग तब भी तीर्थयात्रा करते थे जब उनके पास कोई संसाधन नहीं था। चार धाम यात्रा, द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा और 51 शक्तिपीठ यात्रा हमारी आस्था के स्थानों से जुड़ने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत करती है। देश के कई प्रमुख शहरों की पूरी अर्थव्यवस्था इन यात्राओं पर निर्भर थी। लेकिन समय के साथ इस क्षेत्र में बहुत क्षति देखने को मिलती है, जिसका मूल कारण सैकड़ों वर्षों की गुलामी और स्वाधीनता के बाद के दशकों में इन स्थानों की राजनीतिक उपेक्षा है।
प्रधानमंत्री कहते हैं, आज का भारत इस स्थिति को बदल रहा है।” सुविधाओं में वृद्धि से पर्यटकों का आकर्षण बढ़ता है। नवीनीकरण से पहले, वाराणसी में काशी विश्वनाथ धाम में एक साल में लगभग 80 लाख लोग आते थे, लेकिन पिछले साल पर्यटकों की संख्या 7 करोड़ से अधिक हो गई। केदारघाटी में पुनर्निर्माण कार्य पूरा होने से पहले केवल 4-5 लाख भक्तों ने बाबा केदार के दर्शन किये थे। इसी तरह, गुजरात के पावागढ़ में मां कालिका के दर्शन के लिए 80,000 तीर्थयात्री आते हैं, जो नवीकरण से पहले 4,000 से 5,000 तक था। सुविधाओं के विस्तार का सीधा असर पर्यटकों की संख्या पर पड़ता है और अधिक पर्यटकों का मतलब है रोजगार और स्वरोजगार के अधिक अवसर। इसलिए आज जो भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ध्यान साधना पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, उनके लिए अच्छा होगा कि वे मंदिर और तीर्थाटन के व्यापक महत्व को गहराई से समझें।
(संदर्भ पुस्तक- एसेंशियल ऑफ हिन्दुत्व (हिन्दुत्व) : विनायक दामोदर सावरकर/ हिंदुत्व फॉर द चेंजिंग टाइम्स : जे. नंदकुमार/ मातोश्री : सुमित्रा महाजन/ शिवकामिनी महादेवी अहिल्याबाई: अरुंधति सिंह चंदेल/ वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर: राजेंद्र पांडे/ अर्थव्यवस्था ऑफ मंदिर: संदीप सिंह/ भारत के पवित्र तीर्थ स्थल: नारायण भक्त/ प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था: कमल किशोर मिश्र, Temple Economy: Bolstering Economy Sanatan Way: पंकज जगन्नाथ जयसवाल – organiser-org/ भारतीय अर्थशास्त्र एवं भारत की आर्थिक प्रगति: प्रहलाद सबनानी – psabnani.blogspot.com)
(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)