जोड़ने वाले ही विपक्ष को तोड़ने में जुटे।
प्रदीप सिंह ।
जिन पर घर बनाने का जिम्मा हो, वही घर गिराने लगे तो उन लोगों की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं, जो घर बनने का इंतजार कर रहे हों। अपने देश में विपक्षी एकता का यही हाल है। ज्यादातर त्योहार साल में एक बार आते हैं, पर विपक्षी एकता का त्योहार हर पांच साल में एक बार आता है। आम चुनाव से पहले इसकी शुरुआत होती है और उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात। इस समय विपक्षी एकता का मौसम चल रहा है, पर बयार उलटी बह रही है। दल जुड़ने से ज्यादा बिखर रहे हैं।
विपक्षी एकता दो तरह की होती है। एक चुनाव से पहले की और दूसरी चुनाव के बाद की। चुनाव से पहले की एकता चुनावी मोर्चे पर सफल हो तो उसे जनादेश कहते हैं। चुनाव के बाद की एकता सत्ता के बंटवारे की होती है, पर सत्ता के लिए जनादेश को धता बताने में राजनीतिक दल संकोच नहीं करते। नीतीश कुमार इसके चैंपियन हैं। वह गठबंधन बदलते रहते हैं, पर उनकी कुर्सी नहीं बदलती।
दूसरे का सामान लेकर व्यापारी बने नीतीश
नीतीश कुमार इस समय विपक्षी एकता कराने निकले हैं। उनके पास अपना कोई सौदा नहीं है। वह दूसरे का सामान लेकर व्यापारी बने हुए हैं। राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस पार्टी का सौदा कराने का बीड़ा उन्होंने उठा लिया है। उन्होंने दिल्ली आकर कई नेताओं से मुलाकात की, पर लालू यादव के आशीर्वाद और सोनिया जी के सम्मान का पूरा ध्यान रखा। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में पट नहीं रही। किसी को संदेह रहा हो तो उसे ममता बनर्जी ने एक बार फिर दूर कर दिया। नीतीश कुमार के दिल्ली से जाते ही उन्होंने कहा कि राजद, जदयू, तृणमूल कांग्रेस, सपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा साथ चुनाव लड़ेंगे। यह बयान विपक्षी एकता कराने वाले सभी लोगों के लिए यह संदेश था कि कांग्रेस मंजूर नहीं। दो दिन बाद ही नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का बयान आ गया कि कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण है। सोनिया गांधी के भारत लौटते ही उनसे मिलने जाएंगे। मतलब दोनों ने ममता बनर्जी को झिड़क दिया।
एक दूसरे की नीयत पर शंका
हेमंत सोरेन क्या बोल सकते हैं? वह तो कांग्रेस के साथ सरकार चला रहे हैं। अखिलेश यादव तो सतत गठबंधन के साथी की तलाश में रहते ही हैं। उधर कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा निकाल रही है। जो 18 दिन केरल में रहेगी, जहां वाम मोर्चे का राज है। वाम मोर्चे ने कहा है कि कांग्रेस में आरएसएस की चुनौती का जवाब देने का साहस नहीं है। इसलिए यात्रा गुजरात नहीं जा रही और उत्तर प्रदेश में चंद दिन ही रहेगी। इसका जवाब यात्रा के कर्णधार जयराम रमेश ने यह कहकर दिया कि केरल में माकपा भाजपा की ए टीम है। याद रहे ये दोनों दल सवा साल पहले बंगाल में एक साथ चुनाव लड़ चुके हैं और विपक्षी एका के प्रयासों में शामिल रहे हैं।
विपक्षी एकता के अश्वमेघ घोड़े को लेकर निकले तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव लगता है निराश हो गए हैं। उन्होंने अब अपना राष्ट्रीय दल बनाने की घोषणा कर दी है। राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी अपने अधिवेशन में विपक्षी एकता का ब्लू प्रिंट पेश करेगी, पर उसकी कोई सुगबुगाहट सुनाई नहीं दी। समस्या यह है कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हराना तो सब चहाते हैं, पर एक-दूसरे की नीयत को शंका की दृष्टि से देखते हैं। यदि पिछले 27 साल में 23 साल भाजपा के साथ रहने वाले नीतीश कुमार भी भाजपा विरोधी होने का दावा करें तो कोई कैसे भरोसा करेगा?
कहते हैं रेस में नहीं, पर दौड़ रहे हैं
विपक्षी एकता में एक समस्या यह भी है कि जो जोर-जोर से कह रहा है कि हम प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं, वही सबसे तेज दौड़ रहा है। जैसे पंगत में खाना खाने वाले कभी अपने लिए कुछ नहीं मांगते। हमेशा बगल वाले को देने के लिए आवाज लगाते हैं। उनकी नीयत का पता तब चलता है, जब परोसने वाला आ जाता है। भाजपा विरोधी दलों के नेताओं के अहं का भार उनके शरीर के वजन से भी ज्यादा है। कोई अपने को किसी से कम मानने को तैयार नहीं है। विपक्षी एकता का इतिहास देखें तो चुनाव से पहले या तो एकता होती नहीं, होती है तो सफल नहीं होती और सफल हो भी गई तो चलती नहीं।
विपक्षी एकता का इतिहास और मतदाता
आजादी के बाद पहला बड़ा विपक्षी गठबंधन बना 1971 में। वह चुनाव के मैदान में धराशायी हो गया। उसके बाद साल 1977 में जनता पार्टी के रूप में विपक्षी एकता हुई, जो चुनाव में कामयाब रही, पर चली नहीं। वही हश्र 1989 में बने जनता दल का हुआ। चुनाव बाद बने गठबंधन भी तभी चले, जब उनकी धुरी कोई राष्ट्रीय पार्टी बनी। बहुत से लोगों को चिंता है कि सत्तारूढ़ दल भाजपा का वर्चस्व स्थापित हो रहा है और उसका कोई विकल्प नहीं है। मुझे लगता है कि इससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि मौजूदा विपक्षी दलों के पास विकल्प का अभाव है। मतदाता ने जिन दलों को राज्यों में सत्ता सौंपी, उनमें से ज्यादातर को उस राज्य में भी राष्ट्रीय राजनीति के लायक नहीं समझा। इसलिए विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी जिस पार्टी को जिताया, उसे लोकसभा में किनारे कर दिया। तो मतदाता के मन में कोई भ्रम नहीं है कि किसे राज्य की बागडोर सौंपनी है और किसे देश की?
पहले एकता की बातें फिर सर फुटौव्वल
विपक्षी दलों का सारा जोर हमेशा अंकगणित पर रहता है। पहले कांग्रेस और अब भाजपा विरोधी गिनती करते हैं कि वे सब मिल जाएं तो सत्तारूढ़ दल को हरा देंगे। आखिर इतने लंबे समय से राजनीति करने वालों को यह साधारण सी बात समझ में क्यों नहीं आती कि चुनाव वोट प्रतिशत के आंकड़ों को जोड़ने से नहीं, जनता से जुड़ने और जोड़ने से जीते जाते हैं। मोदी की सफलता और विपक्ष की विफलता के बीच यही अंतर है। सत्ता में आठ साल रहने के बाद भी मोदी लोगों से जुड़ने और उन्हें जोड़ने का अभियान उसी गति से चला रहे हैं। विपक्षी एकता सत्य नारायण की कथा जैसी हो गई है। कथा में सब जुड़ते हैं और खत्म होते ही अपने-अपने घर चले जाते हैं। कुल मिलाकर चुनाव से पहले एकता की बातें और उसके बाद सर फुटौव्वल की स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने वाला।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ‘दैनिक जागरण’ से साभार)