मेरी चेतना के सहयात्री (एक)।

डॉ. कुमार विश्वास।
ओशो के पास हर चीज, हर घटना और हर प्रक्रिया को देखने का अपना ही नजरिया है। अलग नजरिया होना कोई कमाल नहीं है। लेकिन दूसरों को भी इस नजरिए से दुनिया दिखला देना एक ऐसा चमत्कार है जो दीवानगी में मुब्तिला ओशो ही कर सकता है। ओशो कमाल हैं। सब कुछ चाहिए और कुछ नहीं होने में भी कोई मलाल नहीं है। ओशो आपको आपके तय किए हुए फ्रेम से बाहर लाते हैं और फिर एक नए रंग का चश्मा लगाकर दिखाते हैं। ओशो वो दीवाने हैं जो आपको आपके जड़ दृष्टिकोण को चेतन करते हैं।

ओशो मेरी चेतना के शुरुआती सहयात्री हैं। सहयात्री मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ओशो अनुचर स्वीकार नहीं करते, उन्हें किसी भी दर्शन, किसी भी सोच, किसी व्यक्ति, किसी प्रवृत्ति या प्रकृति के किसी भी अंग का अनुचर हो जाना बर्दाश्त नहीं है। ओशो अपनी तरह के पहले बुद्धपुरुष हैं जो किसी अनुचर के हाथ छुड़ा लेने पर उसे मुस्कुराकर विदा करते हैं। ओशो मेरे जीवन में सम्मिलित हुए ग्यारहवीं कक्षा में, जब मैंने उनकी पहली पुस्तक पढ़ी – माटी कहे कुम्हार से। उसमें लिखा था कि अपनी प्रवृत्ति या प्रकृति के विपरीत मत जाइए, क्योंकि वो ईश्वर है और उसके खिलाफ जाओगे तो वो आपको कुछ बनने नहीं देगा और ओशो ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने मेरा इंजीनियरिंग का रास्ता भटका दिया कि मुझे उस मार्ग पर नहीं जाना, मुझे कवि होना है।

 

तो इस प्रकार ओशो मेरे जीवन में दाखिल हुए और फिर ओशो लंबे समय तक साथ चलते गये, अब भी वे कई बार साथ चलते हैं लेकिन जैसा मैंने कहा वे ये स्वीकार नहीं करते कि मेरे अनुचर बनो। नहीं तो कितने ही लोग हैं जो कहते हैं कि मेरे पीछे चलो, मुझे मानो, मैं जो कह रहा हूं वो सुनो, मैंने जो किताब लिख दी है इसकी मानो, मैंने जो देशना दी है उसको मानो, ओशो पहले हैं जो कहते हैं कि मेरी क्यों मानो, अपनी सुनो और इसके लिए वो तैयार करते हैं आपको, आपकी मानसिकता, आपका मन मस्तिष्क तैयार करते हैं!

जब मैंने ओशो को पढ़ना शुरू किया 70 के दशक में तो मैं अपने परिवार और समाज में कोई आदरेय बालक नहीं था ओशो को पढ़ने की वजह से। हमारे पड़ोस में एक बड़े विद्वान व्यक्ति रहते थे, संस्कृत के आचार्य थे, मेरे पिता जी के मित्र थे, उन्होंने मुझे सार्वजानिक रूप से अपमानित किया ओशो की किताब हाथ में देख के। मेरे पिता जी का मत भी कोई बहुत अच्छा नहीं था ओशो के विषय में और बहुत सारे लोगों का नहीं था। दिल्ली में शुरुआती दौर में जब पुस्तक मेले लगते थे तो वहां ओशो स्टाल में ओशो के संन्यासी कुछ पुस्तकें रखकर बैठे रहते थे, आज आप पुस्तक मेला जाइए तो हर उम्र के लोगों का सबसे ज्यादा हुजूम जो मिलेगा तो ओशो स्टाल पर मिलेगा!

(अप्रैल 2017 में ओशो टाइम्स में छपे साक्षात्कार और कुछ अन्य सामग्री पर आधारित)