गजब बेइज्जती है यार… फुलेरा गांव के पंचायत घर से निकले इस डायलॉग का गजब का मीम बना और मिलेनियल के बीच छा गया। OTT की दुनिया में सचिवजी, प्रधान जी, प्रहलाद और विकास भले ही मुश्किल से फिट बैठते लगें, पर अब जगह बना रहे हैं। तभी तो अमेज़न प्राइम विडियो पर ‘पंचायत’ वेब सिरीज के दूसरे सीजन का बेसब्री से इंतजार हो रहा है। ऐसा ही इंतजार महीनेभर पहले तक सोनी लिव की ‘गुल्लक’ वेब सिरीज के तीसरे सीजन का हो रहा था। अपने नाम से अस्सी-नब्बे के दशक के किसी फीके से रंगों और सुस्त चाल वाले धारावाहिकों की याद दिलाती यह वेब सिरीज OTT पर गजब उधम काट रही हैं।
अंत में सब ठीक हो जाता है यहां
आखिरकार OTT मंचों ने अपने कंटेंट में खुद ही झाड़पोंछ कर पारिवारिक सामग्री पर फोकस करना शुरू कर ही दिया। कई मंचों पर अनाप-शनाप सामग्री (ज्यादातर अंग्रेजी शोज) है, लेकिन परिवार संग बैठकर देखने लायक भी बहुत कुछ है। यकीन नहीं होता तो ‘गुल्लक’ निपटा डालिये। दर्शकों से ज्यादा यह सिरीज उन लेखक मंडली के लिए एक सबक है, जिन्हें कॉरपोरेट के इशारे पर डाटा-सर्वे के अनुसार स्क्रिप्ट लिखने का चस्का लग चुका है।
सबक उन फिल्मकारों के लिए भी, जिन्होंने छोटे शहर की कहानियों के नाम पर फिल्मों, सीरियल और वेब शोज इत्यादि के जरिये जमकर चांदी काटी है। ऐसे रचनात्मक रचयिताओं ने हिन्दी पट्टी को भुनाने की खातिर ज्यादातर मौकों पर शुक्ला, पांडे, दीक्षित और मिश्रा आदि का चित्रण ठीक वैसे ही किया जैसे दिल्ली के पंजाबियों-सिखों का अक्सर किया जाता है। जहां पूरा फोकस किसी समुदाय की लाउडनेस पर अधिक रहता है।
‘गुल्लक’, ‘पंचायत’, ‘होम शांति’, ‘दिल बेकरार’ आदि वेब सिरीज यह बताने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं कि टेलीविजन की दुनिया लेखन, समय, धैर्य, स्थानीयकरण, रोचकता, भावुकता समेत वो सब कुछ मांगती है जो एक परिवार को बांधने के लिए आवश्यक तत्व के रूप में गिने जाते हैं। ‘गुल्लक’ सीजन 1 का पहला एपिसोड ‘तहरी’ देखकर आपके मुंह में पानी बेशक न आए, पर डिसपॉइंटमेंट तो बिलकुल नहीं होगी। क्योंकि यहां चार लोगों के मिश्रा परिवार में आज भी डिब्बे वाला टीवी है जो ठोक-पीटकर चल जाता है।
डीजे करती पुराने स्टाइल की वॉशिंग मशीन है और टैंक जैसा शोर करती पानी की मोटर भी। घर के मुखिया संतोष मिश्रा (जमील खान) बिजली विभाग में हैं और ठीक है यार… उनकी फिलॉसफी है। ठीक नहीं हुआ तो ठीक हो जाएगा। दूसरी तरफ उनकी श्रीमती जी हैं, शांति मिश्रा (गीतांजलि कुलकर्णी), जो हर एक आम मां की तरह सब मैनेज कर लेती है, पर अपने बड़े बेटे अन्नू (वैभव राज गुप्ता) के एसएससी क्लेयर करने को लेकर फिकरमंद रहती हैं। फूल-पत्तियों और कविता में ध्यान लगाने वाला छोटा बेटा अमन (हर्ष मायर), बात-बात में ऐ मम्मी… ऐ मम्मी… चिल्लाता है, सबसे अलग है।
इस परिवार की जिंदगी में हर उस परेशानी और खुशी का जिक्र है, जिससे आप और हम रोजाना दो चार होते हैं।
आप पाएंगे कि 20-25 मिनट के एपिसोड में कहने वाला बहुत कुछ कह गया। न लंबे सीन और न बेवजह की खींचतान। चार साल में तीन सीजन और केवल 15 एपिसोड। जाहिर लेखन में गुणवत्ता चाहिये तो समय देना होगा। कहानी और पात्र इस तरह से रचे गये हैं कि वे कहीं के भी हो सकते हैं। स्थानीयकरण के गहरे ठप्पे से बचा भी गया है।
‘पंचायत’ में दिखाया गया फुलेरा गांव
ऐसे ही देखें तो ‘पंचायत’ में दिखाया गया फुलेरा गांव, फुलेरा गांव की तरह ही लगता है। सुस्त मगर दिलचस्प। किरदार, जाने-पहचाने से लगेंगे न कि रेडीमेड। यहाँ के लोग बड़े शहर से आए सज्जन को देखकर सहरी बाबू… सहरी बाबू… चिल्लाते हुए बौराते नहीं हैं।
फुलेरा गांव और इसके किरदारों में कला फिल्मों सरीखी मौलिकता से बचा गया है। शायद तभी इसमें ताजगी के साथ कहीं कहीं ‘मालगुड़ी डेज’ जैसा फील आता है। शहर से पैर पटकता, झल्लाता हुआ सा यहाँ एक नौजवान आता है अभिषेक त्रिपाठी (जितेन्द्र कुमार)। ग्राम पंचायत में सचिव की मामूली सी नौकरी ये सोचकर करने आया है कि हाथ में कुछ तो आएगा और आगे की परीक्षा की तैयारी भी हो जाएगी है।
धीरे-धीरे फुलेरा और यहां के लोगों में वो घुलने-मिलने लगता है। ऐसा लगता है अभिषेक पढ़ा-लिखा है और यहाँ रहकर गांव की किस्मत बदल देगा। लेकिन ये कोई नई बात तो नहीं लगती। तो क्या आगे की कहानी शाहरुख खान की ‘स्वदेस’ की तरफ मुड़ जाएगी? होता तो ऐसा भी नहीं। ऐसा कुछ भी होता तो आज शायद ‘पंचायत’ की बात ही नहीं हो रही होती।
असल में यहां लेखन के स्तर पर हर उस घिसे-पिटे, रेडीमेड या कहिये रिवायती फार्मूले को फेंक बाहर किया गया है, जिससे चीजें दोहराई गयी और बोरिंग लगती हैं। यही बात किरदार और कलाकारों के चयन में भी दिखती है। फुलेरा गांव जितना अपने नाम में सादगी लिए है, उतने ही इसके किरदार और कहानी भी हैं।
‘होम शांति’ में जोशी परिवार
अब गाँव से थोड़ा आगे चलते हैं। क्योंकि इस बार मिडिल क्लास के लिए कुछ लेखकों ने दिल्ली के बजाए देहरादून का रुख किया गया है, जहां ‘होम शांति’ के लिए जोशी परिवार के किस्से बुने गए हैं। पहली नजर में ‘वागले की दुनिया’ का अपग्रेड संस्करण लग सकता है या इसकी शुरूआत फिल्म ‘खोसला का घोंसला’ सरीखी लग सकती है। लेकिन इससे न तो शो का प्रभाव कम होता है और न ही मौलिकता। श्रीमान उमेश जोशी (मनोज पाहवा) यूं तो कविराज कहलाये जाते हैं पर रसिया क्रिकेट के हैं। दिनभर मोबाइल में डूबे रहते हैं और कार ड्राइव करनी पड़ती है मिसेज सरला जोशी (सुप्रिया पाठक) को, जिनकी डाइनिंग टेबल बरसों से स्टाफ रूम बनी हुई है।
सरलाजी जी स्कूल में वाइस प्रिंसिपल हैं। पति-पत्नी की बस यही ख्वाहिश है कि उनके नए घर में बेशक कुछ और न हो, पर लिखने-पढ़ने के लिए जगह जरूर होनी चाहिये। पर वे भूल गये कि उन्होंने डिमांड करने वाले दो जीवों को भी जन्म दिया है। बेटी जिज्ञासा (चकोरी द्विवेदी) को चाहिये सेपरेट बाथरूम और बेटे नमन (पूजन छाबड़ा) को जिम। अब 60×40 के प्लाट में सबको सब कुछ चाहिये तो होम शांति की शांति तो भंग होगी ही न। इस शो का फील ‘गुल्लक’ जैसा ही है। घर है, पास-पड़ोस है और दुनियादारी भी। ये आस-पास हो तो सोशल मीडिया पर प्रेरक संदेशों की ज़रुरत नहीं पड़ती।
दिल बेकरार
एक और शो है ‘दिल बेकरार’, जिसकी कहानी और किरदार रचे-बसे हैं अस्सी के दशक में। वो दौर जब स्कूटर का दर्जा कार जैसा था। तब टीवी, फ्रिज, वीसीआर, गोदरेज की अलमारी, सोफा सेट से घर कंप्लीट माना जाता था। मिक्सी हुई तो बल्ले-बल्ले। टेपरिकार्डर रखा दिखाई दे तो मतलब कोई जवान बच्चा है घर में। और वॉकमैन दिख गया तो बंदे हाई-फाई हैं। बस कुछ ऐसे ही सेटअप में यह कहानी दिल्ली के दायरे में एक ठाकुर परिवार की है। हबीब फैजल निर्देशित दस एपिसोड्स की यह सिरीज उस दौर में ले जाती है, जिसकी अब बातें ही की जा सकती हैं। दूरदर्शन के उस जमाने में जब कैम्पा कोला का एक रुतबा था और तेजी के लिए टेलिग्राम का सहारा था। आज का लैपटॉप, आईपैड तब टाइपराइटर की शक्ल में एक बेरोजगार युवा के लिए किसी मंजिल की तरह हुआ करता था, जिसकी तरफ बढ़ने के लिए उसे बाकायदा टाइपिंग क्लासेज लेनी पड़ती थी।
निर्णायक स्थिति से दूर
हालांकि अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। पर इतना जरूर है कि इधर एक-दो वर्षों में OTT मंचों ने अपनी कंटेंट लिस्ट में फैमिली श्रेणी पर ध्यान केंद्रित करते हुए वास्तव में अच्छी, मनोरंजक और रोचक सामग्री पेश करनी शुरू की है। ऐसी सामग्री जिसे पूरे परिवार संग बैठकर देखा जा सके। किसी दृश्य, संवाद या अन्य बात के अचानक प्रकटीकरण से घर के सदस्य एक-दूसरे से नजरें न चुराने लगें या पानी पीने का बहाना कर किसी को दूसरे कमरे में न जाना पड़े।
हालांकि पारिवारिक श्रेणी के अंतर्गत साफ-सुथरा कंटेंट बीते चार-पांच वर्षों से OTT मंचों पर उपलब्ध है, लेकिन कई कारणों से लोगों तक पहुंच से दूर रहा। इनमें से एक प्रमुख कारण है OTT मंचों को लेकर शुरूआत में बनी छवि जो अब जाकर धीरे-धीरे टूटने सी लगी है। इसका जिक्र हम आगे करेंगे। स्ट्रीमिंग मंचों की शुरुआत से देखें तो अमेजन प्राइम पर प्रसारित ‘लाखों में एक’ (2017), सीजन 1 में एक तरफ भारतीय शिक्षा प्रणाली की कुछ जटिल समस्याओं पर फोकस किया गया है तो सीजन 2 में एक युवा डॉ. श्रेया पठारे की कहानी है जो स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में आने वाले कई व्यावहारिक समस्याओं से जूझ रही है। आर. माधवन की ‘ब्रीद’, एक थ्रिलर होने के बावजूद परिवार संग बैठकर देखी जा सकती है।
नेटफ्लिक्स की ‘लिटिल थिंग्स’ और ‘चॉप्स्टिक’ के अलावा ‘पिचर्स’, ‘ये है मेरी फैमिली’, ‘आम आदमी फैमिली’ आदि ने फैमिली कैटलॉग की मर्यादा को बीते कुछ वर्षों में कायम रखने का काम तो किया ही है। बावजूद इसके OTT पर एक स्पेस अभी भी पूरी तरह से भरा नहीं है। जो भर सकता है गुल्लक, पंचायत, होम शांति, दिल बेकरार आदि शोज से। हालांकि अच्छा, रोचक और साफ-सुथरा कंटेंट होने के बावजूद ऐसे शोज चमक-दमक, उत्तेजना और प्रचार प्रपंच के आगे बहुत दूर तक नहीं जाते दिखते। ये सही है कि इनकी सफलता की चर्चाएं जितनी होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हुईं।
यहां सब दिखता है
ऐसा नहीं है कि OTT पर पारिवारिक सामग्री (वेब सिरीज, फिल्में या अन्य) उपलब्ध थी ही नहीं। या OTT मंच फैमिली कंटेंट को वरीयता देना नहीं चाहते थे। असल में OTT मंचों को लेकर खुलापन और यहां सब दिखता है, की अवधारणा उन अंग्रेजी-विदेशी शोज के साथ बन रही थी जो अपने बोल्ड कंटेंट (नग्नता इत्यादि) के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध रहे।
मसलन, ‘गेम ऑफ थ्रॉन्स’ अमेरिकी टेलिविजन सिरीज जिसे एक तरफ अपने जटिल किरदारों, अभिनय, कहानी और शिल्प के लिए सराहा गया तो दूसरी ओर शो में व्याप्त नग्नता, सेक्स हिंसा आदि के लिए आलोचना भी सहनी पड़ी। ऐसे ही एक अन्य अमेरिकी टीवी सिरीज ‘स्पार्टाकस’ को भी अत्याधिक नग्नता और हिंसा के लिए आलोचना सहनी पड़ी। लेकिन मनोरंजन की दुनिया में नग्नता और हिंसा के लिए मिली आलोचना असल में ज्यादातर मौकों पर फायदेमंद साबित होती है।
भारत में OTT की शुरुआत में ही कई देसी मेकर्स को जब इसका अहसास होने लगा कि सेक्स और हिंसा से लबरेज विदेशी शोज इंटरनेट मनोरंजन के क्षेत्र में सबसे बड़े ग्राहक वर्ग (कामकाजी युवा वर्ग) को लंबे समय तक रोककर रख सकते हैं, तो उन्होंने 18 प्लस मार्का शोज और वेब सिरीज की एक बाढ़ सी ला दी, जिसमें अग्रणी भूमिका निभाई ‘सेक्रेड गेम्स’ (2018) ने। किसे पता था कि साल 2006 में इसी नाम से लिखा गया विक्रम चंद्रा का नॉवेल OTT के क्षेत्र में एक नई कैटेगरी को इतनी मजबूती के साथ स्थापित करने में अहम भूमिका निभाएगा।
इसमें दो राय नहीं कि ‘सेक्रेड गेम्स’ को अपनी रोचकता, किरदारों के चित्रण, अभिनय इत्यादि के लिए सराहा गया, लेकिन साथ ही शोज को जबरदस्ती की गाली-गलौच, हिंसा, सेक्स हिंसा के लिए भी आलोचना सहनी पड़ी।
ये सही है कि 20 भाषाओं में तथा 191 देशों में नेटफ्लिक्स द्वारा प्रसारित इस शो ने मिर्जापुर, पाताल लोक, असुर आदि शोज-वेब सिरीज की राह आसान कर दी थी। और इसकी आड़ में विशुद्ध एडल्ट शोज जैसे गंदी बात, ट्रिपल एक्सः अनसेंसर्ड, चरमसुख, मस्तराम, चरित्रहीन को भी खूब पनपने का मौका मिला। तांडव, लैला, ए सुटेबल व्बाय, बांबे बेगम्स, फैमिलीमैन 2, धूप की दीवार, डिकपल्लड, आश्रम आदि में परोसी गयी विवादित सामग्री परोसे जाने के कारण कोर्ट केस तक हुए। यहां तक कि सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय को याद दिलाना पड़ा कि OTT मंच अपनी सीमा का खुद पालन करें। OTT मंच सेक्स और हिंसा का पर्याय बन गये, जिन्हें लेकर पहली अवधारणा यही बनने लगी कि यहां सब दिखता है।
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं)