आश्विन कृष्ण द्वादशी संवत् 2077 तदनुसार 14 सितंबर 2020 को गीता प्रेस की हिन्दी मासिक ‘कल्याण’ के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी की 128वीं जयंती है
डॉ. संतोष कुमार तिवारी ।
बहुतों को यह नहीं मालूम होगा कि श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार (1892-1971) एक भावुक कवि भी थे। उनके लिखे काव्य को पंडित जसराज आदि अनेक जाने-माने गायकों ने गाया है। पोद्दारजी को लोग भाईजी कहते थे। उन्होंने भक्ति काव्य भी लिखा और समसामयिक काव्य भी लिखा। कुछ में अपना नाम लिखा। कुछ में नाम नहीं दिया। उनके परलोक गमन के बाद गीता प्रेस ने इधर उधर-स्फुट रूप से पड़े उनके पदों का संग्रह करके ‘पद-रत्नाकर’ नाम से प्रकाशित किया है। यह सात बार पुनर्मुद्रित हो चुका है। इसमें डेढ़ हजार से अधिक पद हैं।
उनका यह पद ईश्वर के सामने उनकी दैन्यता को दर्शाता है:
बना दो बुद्धिहीन भगवान।
तर्क शक्ति सारी ही हर लो, हरो ज्ञान-विज्ञान।
हरो सभ्यता, शिक्षा, संस्कृति, नए जगत की शान।।
विद्या-धन-मद हरो, हरो हे हरे! सभी अभिमान।
नीति-भीतिसे पिंड छुड़ा कर करो सरलता दान।।
नहीं चाहिए भोग-योग कुछ, नहीं मान-सम्मान।
ग्राम्य, गंवार बना दो, तृण-सम दीन, निपट निर्मान।।
भर दो हृदय भक्ति श्रद्धा से, करो प्रेम का दान।
प्रेमसिंधु! निज मध्य डुबाकर मेटो नाम-निशान।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 143)
‘पत्र-पुष्प’ का प्रकाशन
पोद्दारजीकी प्रारम्भिक पद्यात्मक रचनाओं का पहला संग्रह सुप्रसिद्ध संगीताचार्य रामभक्त श्री विष्णु दिगम्बरजी पलुस्कर (1872-1931) ने आग्रह करके अपने प्रेस से सन् 1923 में प्रकाशित किया था। ‘पत्र-पुष्प’ नामक इस संग्रह के पद पलुस्करजी को अत्यन्त प्रिय थे। और उन पर राग ताल आदि भी उन्होंने ही बैठाये थे। (पद-रत्नाकर, पृष्ठ 2)
नाम-जप सर्वोत्कृष्ट
सन 1926 में ‘कल्याण’ का प्रकाशन आरम्भ होने के पश्चात भाईजी द्वारा रचित भजन, पद, स्तुतियाँ, आदि ‘कल्याण’ के अंकों में प्रकाशित होती थीं। ‘कल्याण’ में नाम-जप पर सदैव ज़ोर दिया गया है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में नाम को भगवान से बढ़ कर बताया है:
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
भावार्थ: श्री राम ने तो एक तपस्वी स्त्री अहिल्या का ही उद्धार किया था, लेकिन नाम ने तो करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया।
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुण गाई।।
भावार्थ:-नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।
नाम की महिमा पर पोद्दारजी लिखते हैं:
नाम की महिमा अमित, को सकै करि गुन-गान।
राम तें बड़ नाम, जेहि बल बिकत श्रीभगवान।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 1006)
गोस्वामी तुलसीदास की ‘विनय पत्रिका’
पोद्दारजी की कविताओं में तुलसी की ‘विनय पत्रिका’ की भांति पूर्ण दैन्यता की झलक दिखाई देती है।
तुलसीदासजी ‘विनय पत्रिका’ में कहते हैं:
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे।।1।।
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि-हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे।।2।।
देव, दनुज मुनि, नाग, मनुज सब, माया बिबस बेचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे।।3।।
भावार्थ- हे नाथ! आपके चरणों को छोड़कर और कहां जाऊं? संसार में ‘पतित-पावन’ नाम और किसका है? आपकी भांति दीन-दुखियारे किसे बहुत प्यारे हैं।।1।।
आज तक किस देवता ने अपने बाने को रखने के लिए हठपूर्वक चुन चुन-कर नीचों का उद्धार किया है? किस देवता ने पक्षी (जटायु), पशु ऋक्ष-वानर आदि) व्याध (वाल्मीकि) पत्थर (अहिल्या), जड़ वृक्ष यमलार्जुन और यवनों का उद्धार किया है?।।2।।
देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि सभी बेचारे माया के वश में हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बंधन को कैसे खोल सकता है इसलिए) हे प्रभो! यह तुलसीदास अपने को उन लोगों के हाथों में सौंप कर क्या करे?।।3।।
चिम्मनलालजी गोस्वामी का कथन
मानस मर्मज्ञ चिम्मनलालजी गोस्वामी (1900-1974) कहते हैं कि भगवान की ओर बढ़ने के लिए यह परमावश्यक है कि मनुष्य उन्हें दीन होकर पुकारे। अपनी दुर्बलताओं को रो-रोकर उनके सामने रखे। अपनी अपात्रता को हृदयंगम करते हुए उनसे कृपा की याचन करे। उनकी कृपा पर विश्वास रखे। उनकी दयालुता को समझे। कभी निराश न हो। संसार की असारता पर विचार करे। अपने आचरण को भगवान के अनुकूल बनाने का अथक प्रयत्न करे। तथा अपने अन्दर दैवी सम्पदा का अर्जन करे और अपने पवित्र जीवन के शुद्ध कल्याणमय आचार-विचार के द्वारा जन समूह के सामने ऐसा आदर्श रखे, जिससे अधिक से अधिक नर-नारी भगवान की ओर अग्रसर हो सकें। चिम्मनलालजी कहते हैं कि पोद्दारजी के ‘पद-रत्नाकर’ संग्रह का बार-बार मनन करने पर पाठकों को इन सभी दिशाओं में प्रचुर प्रकाश प्राप्त होगा और अपने जीवन को भगवन्मुखी बनाने में पर्याप्त सहायता मिलेगी। (पद-रत्नाकर, पृष्ठ 7)
पोद्दारजी की एक और कविता है, जोकि यह दर्शाती है कि गांधीजी की भांति उनका भी दृष्टिकोण सब में ईश्वर का दर्शन करना था। पोद्दारजी अपनी एक कविता में कहते हैं:
सबमें सब देखें निज आत्मा, सबमें सब देखें भगवान।
सब ही सबका सुख-हित देखें, सबका सब चाहें कल्यान।।
एक दूसरेके हितमें सब करें परस्पर निज-हित त्याग।
रक्षा करें पराधिकार की, छोड़ें स्वाधिकार की मांग।।
निकल संकुचित सीमा से ‘स्व’। करे विश्व में निज विस्तार।
अखिल विश्वके हितमें ही हो ‘स्वार्थ’ शब्द का शुभ संचार।।
द्वेष-वैर-हिंसा विनष्ट हों, मिटें सभी मिथ्या अभिमान।
त्याग-भूमिपर शुद्ध प्रेम का करें सभी आदान-प्रदान।।
आधि-व्याधि से सभी मुक्त हों, पाएँ सभी परम सुख-शान्ति।
भगवद्भाव उदय हो सबमें, मिटे भोग-सुख की विभ्रांति।।
परम दयामय! परम प्रेममय! यही प्रार्थना बारंबार।
पायें सभी तुम्हारा दुर्लभ चरणाश्रय, हे परम उदार!
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 67)
पोद्दारजी के समसामयिक पद
कुछ पद समसामयिक परिस्थितियों पर भी लिखे गए। सन् 1962 में जब चीन ने हमला किया था, तो पोद्दारजी ने ‘कल्याण’ के दिसम्बर 1962 के अंक में दो लम्बी कविताएं लिखीं। उनमें से एक के अंश हैं:
कर विश्वासघात वह आया, दस्यु भयानक का धार वेश।
उसके इस दु:साहस, दुष्टवृत्तिका है कर देना शेष।।
दांत न खट्टे करने हैं, करना है विष-दन्तों का भंग।
जिससे हो जाए विष-वर्जित निर्मल उसके सारे अंग।।
हो उत्पन्न सुबुद्धि जागे फिर उसके उर में पश्चाताप।
धर्म ईश को माने, छोड़े नास्तिकता का सारा पाप।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 1547)
(‘कल्याण’ के दिसम्बर 1962 के अंक में ही पोद्दारजी का लगभग ढाई पृष्ठों का एक लेख भी छपा है। शीर्षक है: ‘चीन पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक साधन भी किए जाएँ’। इस अंक में पोद्दारजी ने एक अपील भी की कि चीन को भारतीय सीमा से निकालने के लिए लोग तन-मन-धन से भारत सरकार की सहायता करें।)
बच्चनजी के विचार
अमिताभ बच्चन के पिताजी डॉ हरिवंशराय बच्चन (1907-2003) ने कहा “मेरे विचार में लाखों में कोई एक ही श्री राधा-माधव भक्ति रहस्य को समझने का अधिकारी होता है। श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार का कवि संग्रह ‘पद-रत्नाकर’ श्री राधा-माधव की भक्ति पर लिखने वाले लेखकों तथा कवियोंको एक नई –नया दृष्टिकोण प्रदान करेगा, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था। … श्रीपोद्दारजीके इस ग्रन्थसे जैसा मैं लाभान्वित हुआ हूँ, वैसे ही और सहस्त्र लोग होंगे।“ (पद-रत्नाकर-एक अध्ययन, पृष्ठ 176, लेखक: श्याम सुन्दरजी दुजारी, द्वितीय संस्करण 2012, गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर)
ब्रज के एक रसिक विद्वान ने कहा कि हमारी श्री राधा का स्वरूप तो ऐसा हो गया था की उसे शिक्षितवर्ग एवं जनसाधारण के सामने रखने में कई बार संकोच होता, पर श्री पोद्दारजी ने श्री राधा का ऐसा स्वरूप रखा की स्वदेश में किसी के समक्ष रखने की तो बात ही क्या, विदेश में भी किसीके समक्ष रखने में गौरव का बोध होता है। (पद-रत्नाकर, पृष्ठ 9)
श्री राधा के प्रेमोद्गार पर पोद्दारजी ने लिखा:
मेरे इस विनीत विनती को सुनलों, हे व्रजराजकुमार!
युग-युग, जन्म-जन्म में मेरे तुम ही बनो जीवन धार।।
रूप-शील-गुण-हीन समझकर कितना ही दुतकारो तुम।
चरणधूलि मैं, चरणों में ही लगी रहूँगी बस हरदम।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 609)
सदा सोचती रहती हूँ मैं – क्या दूँ तुमको, जीवनधन!
जो धन देना तुम्हें चाहती, तुम ही ओ वह मेरा धन।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 611)
वह पत्रों मे कविता लिख देते थे
पोद्दारजी कभी-कभी अपने पत्रों में भी अपनी कविता लिख देते थे। श्री श्याम सुन्दरजी दुजारी अपनी पुस्तक ‘पद-रत्नाकर-एक अध्ययन’, पृष्ठ 5, पर चर्चा करते हैं कि पोद्दारजी जी ने 16 जून 1961 को उन्हें लिखे गए एक पत्र में आठ पंक्तियों की एक कविता लिखी थी। उसके अंश हैं:
मेरे प्रभु हैं कितने सहज सुहृद, हैं कितने परम उदार।
कितने वे वदान्य हैं, भृत्याधीन, अमित करुणा-आगार।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 930)
‘पद-रत्नाकर’ के पहले संस्करण में 1510 पद थे। यह पोद्दारजी के बृह्मलीन होने के सात वर्ष बाद सन् 1978 में प्रकाशित हुआ। दूसरे संस्करण में उनके 47 पद और जुड़ गए। तीसरे में आठ पद और बढ़ गए। अब भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें उनके सारे पद आ गए हैं।
गीता प्रेस में की जाने वाली दैनिक प्रार्थना
गीता प्रेस में दैनिक कार्य प्रारम्भ होने से पूर्व कर्मचारियों द्वारा भगवद्गीता के कुछ श्लोकों का सामूहिक पाठ होता है और फिर पोद्दारजी द्वारा रचित यह प्रार्थना की जाती है:
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज।।
अन्तर में स्थित रह कर मेरे बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना।
अंतर्यामी को अंत:स्थित देख सशंकित होवे मन।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन।।
जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे।
तेरा ही गुण-गान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि! तुझमें यह सारा संसार।
इसी भावना से अन्तरभर मिलूँ सभी से तुझे निहार।।
प्रतिफल निज इंद्रिय-समूहसे जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ।।
(पद-रत्नाकर, पद संख्या 127)
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। )