ये थी उद्धव को मुख्यमंत्री नहीं बनाने की असल वजह

#pradepsinghप्रदीप सिंह।

कहते हैं कि अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा। रावण बड़ा विद्वान और शिष्टाचारी था, शिव भक्त था… तो फिर उद्धव ठाकरे की बिसात क्या है। उद्धव ठाकरे अपने अहंकार का शिकार हुए हैं। आज उनकी जो हालत  है उसके लिए सिर्फ और सिर्फ उनका अहंकार जिम्मेदार है। उनको लगता था कि वो मातोश्री में रह रहे हैं जहां एक समय उनके पिता बाल ठाकरे रहते थे। बाल ठाकरे की जो हैसियत थी, जो रुतबा था, जो अधिकार था वह सब उनको विरासत में मिल गया है। ऐसा सोचने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अपने आसपास की जमीनी सच्चाई को भी देख लेना चाहिए।

अब आपको बताता हूं कि मामला है क्या? दरअसल, उद्धव ठाकरे ने बचपन से देखा है अपने पिता को मातोश्री से महाराष्ट्र चलाते हुए। चाहे वह राजनीति हो, फिल्मी दुनिया हो, बॉलीवुड हो, उद्योग व्यापार हो या फिर ट्रेड यूनियन हो- सब जगह बाल ठाकरे की तूती बोलती थी। वह जो चाहते थे वह होता था।अगर वो इच्छा जाहिर कर देते थे तो बड़े से बड़े फिल्म स्टार को उनके यहां जाकर सलाम बजाना पड़ता था। उन्होंने यह सब देखा है। इसके अलावा उन्होंने देखा कि भारतीय जनता पार्टी जिसका 30 साल- बल्कि उससे पहले से भी-  शिवसेना से गठबंधन था, गठबंधन के बाद खासतौर से बीजेपी का बड़े से बड़ा नेता मातोश्री आता था। बाल ठाकरे कभी किसी से मिलने नहीं गए। चाहे वो अटल बिहारी बाजपेयी रहे हों, लालकृष्ण आडवाणी रहे हों, मुरली मनोहर जोशी रहे हों या कोई भी नेता रहा हो- सब मातोश्री जाते थे बाल ठाकरे से मिलने के लिए। उद्धव ठाकरे को लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी ऐसा ही करना चाहिए। उनसे ऐसी ही अपेक्षा थी उनको कि वे भी यही करें। इसलिए उन्होंने राजनीतिकी बारीकियों, अपनी हैसियत, बीजेपी की हैसियत, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता, बदली हुई परिस्थिति में महाराष्ट्र की राजनीति- खासतौर से 2014 के बाद, इन सब पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बीजेपी का जो भी नेता उनसे बात करने के लिए आएगा वह मातोश्री आएगा। शिवसेना ने 2014 का विधानसभा चुनाव भाजपा से अलग लड़ कर देख लिया, वह बीजेपी से आधे से भी कम पर रह गई। इसके बावजूद उद्धव ठाकरे को समझ में नहीं आया। उनको लगा कि बीजेपी को गाली देने से, उसके नेतृत्व को गाली देने से उनकी लोकप्रियता बढ़ जाएगी।

भाजपा की मजबूरी का उठाया फायदा

बात शुरू करता हूं 2018 से। साल 2018 में बीजेपी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। देशभर में जगह-जगह अलग-अलग तरह के आंदोलन हो रहे थे। उसी साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वह हार गई थी। लोकसभा चुनाव में भी हारने की स्थिति बनी हुई थी। एनडीए के घटक दल दबाव बना रहे थे। बिहार से नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के अलावा आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू- हर तरफ से बीजेपी का नेतृत्व दबाव में था। ,ऐसा लग रहा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए टूट न जाए और गठबंधन के साथी भाग न जाएं। ऐसे माहौल में बीजेपी कतई नहीं चाहती थी कि शिवसेना से उसका गठबंधन टूट जाए। बीजेपी की इस मजबूरी का भरपूर फायदा उठाया उद्धव ठाकरे ने। जून 2018 की बात है। अमित शाह उस समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे- उस पार्टी के जिसकी केंद्र और राज्य दोनों जगह सरकार थी। उस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को उद्धव ठाकरे ने कहा कि अगर बात करनी है तो मातोश्री आना पड़ेगा। गठबंधन को बचाने के लिए और बाला साहब ठाकरे से पुराने रिश्तों को देखते हुए बीजेपी अपमान का घूंट बार-बार पीती रही और अमित शाह उनसे मिलने मातोश्री गए। दोनों नेताओं के बीच ढाई घंटे तक बातचीत हुई। अमित शाह के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी थे। उद्धव ठाकरे का अहंकार देखिए- देवेंद्र फडणवीस को उन्होंने ढाई घंटे तक बाहर बिठाकर रखा, बैठक में नहीं आने दिया। इससे उनका अहं संतुष्ट हुआ। उनको लगा कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’, हम जो चाहेंगे वह होगा- यह है हमारी ताकत। अमित शाह को मातोश्री बुलाकर उन्होंने अपनी ताकत का इजहार किया लेकिन बीजेपी के लिए उद्धव ठाकरे के अहंकार को बर्दाश्त करना दिन पर दिन कठिन होता जा रहा था। फिर भी गठबंधन बचाने की कोशिश जारी रही।

भाजपा का अपमान करती रही शिवसेना

Amit Shah meets Uddhav Thackeray, may finalise BJP-Sena seat-sharing deal | Latest News India - Hindustan Times

फरवरी 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले फिर से अमित शाह को बातचीत के लिए मातोश्री बुलाया गया। अमित शाह फिर गए। अमित शाह का बड़प्पन देखिए, वह चाहते तो अड़ सकते थे, चाहते तो गठबंधन तोड़ सकते थे लेकिन उस समय पार्टी की जरूरत उनके मान-सम्मान और अपमान से ज्यादा बड़ी थी। पार्टी का हित उनके लिए सर्वोपरि था। ये जो बीजेपी के लोग कहते हैं कि सबसे पहले राष्ट्र, फिर संगठन, फिर व्यक्ति- उसी का नमूना पेश किया अमित शाह ने। फरवरी में वह फिर मातोश्री गए और इस बार उद्धव ठाकरे ने कहा कि अगर आपको लोकसभा चुनाव में गठबंधन करना है तो विधानसभा चुनाव के लिए भी अभी गठबंधन करना पड़ेगा। गठबंधन की शर्तें भी अभी तय करनी पड़ेंगी। बीजेपी इस पर राजी हो गई। दोनों में सीटों का मोटे तौर पर बंटवारा हो गया कि कौन पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी। उस समय इस बात को छोड़ दिया गया कि कौन सी सीटें किसकी होगी। हालांकि, मोटे तौर पर यह भी तय था लेकिन यह था कि लोकसभा चुनाव के बाद उस पर बात करेंगे। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की 48 में से 41 सीटें बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मिलीं… और वह केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के कारण। शिवसेना का वह वोट नहीं था। उसमें बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का था। लेकिन उद्धव ठाकरे को इन सब से कोई मतलब नहीं था। लोकसभा चुनाव में इतनी भारी जीत के बाद भी वे भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को गरियाते रहे। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय के जरिये आलोचना, निंदा के अलावा जितनी तरह से और जैसे हो सकता था और जो भी मौका मिलता था अपमानित करने का, मौका ना हो तो मौका बनाकर गाली देने मौका वह निकालते रहे। अब बात थी विधानसभा चुनाव में गठबंधन की। तब तक अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री बन चुके थे। फिर उनको बातचीत के लिए मातोश्री बुलाया गया। अमित शाह फिर गए।

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ले डूबा अहंकार

ये जो पार्टियां बड़ी बनती हैं, आगे बढ़ती हैं वह ऐसे लोगों के त्याग पर ही बढ़ती है जो अपने अहं को अलग रखकर सिर्फ पार्टी के हित के बारे में सोचते हैं। लोकसभा का चुनाव हो चुका था। केंद्र में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। अमित शाह चाहते तो मातोश्री जाने से मना कर सकते थे। लेकिन चूंकि वादा किया था लोकसभा चुनाव से पहले कि विधानसभा चुनाव में साथ लड़ेंगे इसलिए उस वादे को तोड़ना नहीं चाहते थे। भाजपा इस गठबंधन को बचा कर रखना चाहती थी। 26 अक्टूबर,2019 को विधानसभा चुनाव का नतीजा आया। बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को 288 सीटों में से 178 सीटें मिली। जबकि बहुमत के लिए 145 सीटों की ही जरूरत थी। ये उससे काफी ज्यादा सीटें थीं। इसके बावजूद उद्धव ठाकरे ने कहा कि वो महाराष्ट्र के भाजपा नेताओं जिनमें मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी शामिल थे, उनसे बात ही नहीं करेंगे। बात करेंगे तो राष्ट्रीय नेताओं से। 27 अक्टूबर को तय हुआ कि दोनों पार्टियों की बैठक होगी जिसमें सरकार कैसे बने, किसको क्या मिले, मंत्रिमंडल का बंटवारा कैसे हो, इन सब पर बात होनी थी। उद्धव ठाकरे राज्य के भाजपा नेताओं से बात करने से मना कर चुके थे, अमित शाह बातचीत के लिए पहुंचे। फिर कहा गया कि मातोश्री आइए। तब अमित शाह ने कहा कि अब बहुत हो गया। उन्होंने बैठक रद्द कर दी और दिल्ली लौट आए। उधर शिवसेना के हमले बढ़ते जा रहे थे। छोटे से बड़ा नेता, संजय राउत जैसा मेंढक भी टर्र टर्र करता जा रहा था- रोज गाली दे रहा था- प्रधानमंत्री के बारे में ऐसे बात कर रहे थे जैसे वो गली के किसी छोटे नेता के बारे में बात कर रहे हों। बीजेपी यह सब सुनती रही। उसने तय किया कि अब बात करनी ही नहीं है। उनको जो करना है करने दो। इससे चिढ़कर उद्धव ठाकरे ने 8 नवंबर, 2019 को मीडिया से कहा कि अमित शाह मुझे मनाने आए थे, मैं अमित शाह के पास नहीं गया था।

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एक साल से चल रही थी प्लानिंग

उद्धव ने तय कर लिया कि बीजेपी के साथ नहीं जाना है। जो जनादेश मिला है उसको नहीं मानना है- उसका अपमान करना है। उन्होंने एनसीपी से बातचीत शुरू कर दी। एनसीपी प्रमुख शरद पवार से बातचीत शुरू हो गई। पवार इसी मौके के इंतजार में थे और बीजेपी ने यह होने दिया। इसलिए कि उसे मालूम था कि यह बेमेल गठबंधन ज्यादा दिन चलेगा नहीं। जिस दिन ये सरकार गिरेगी उस दिन इस गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों की प्रतिष्ठा धूल में मिल चुकी होगी। 29 नवंबर को महाराष्ट्र विकास अघाड़ी बन गई। उद्धव ठाकरे को प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस और एनसीपी ने स्वीकार कर लिया। उद्धव ठाकरे का खेमा- शिवसेना के उनके आसपास के जो नेता थे वो- इससे बिल्कुल बमबम थे कि जो चाहते थे वह मिल गया- बीजेपी ने नहीं दिया तब भी हमने हासिल कर लिया। जिस दिन उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र विकास अघाड़ी बनाने का फैसला किया- वह उनके राजनीतिक पराभव की शुरुआत थी, जिसकी परिणिति अब हुई है। यह सब जो हो रहा था पिछले एक साल से इसकी प्लानिंग चल रही थी। इसके पीछे अमित शाह थे। किसको क्या करना है- यह बताया जाता था। चाहे राज्यसभा का चुनाव हो, चाहे विधान परिषद का चुनाव या फिर दूसरे मामले- इस सरकार को घेरने की, गिराने की और शिवसेना में विद्रोह की सारी योजना अमित शाह की बनाई हुई थी। यह लड़ाई दरअसल उद्धव ठाकरे और अमित शाह के बीच थी। अमित शाह को उद्धव ठाकरे का घमंड तोड़ना था- उनका गुरुर और अहंकार तोड़ना था। उन्होंने बहुत सफाई के साथ यह काम किया। यह यहीं तक रुकने वाला नहीं है। अब उद्धव ठाकरे को समझ में आना चाहिए कि 2019 में बीजेपी उनको मुख्यमंत्री बनाने के लिए क्यों तैयार नहीं थी।

अगला निशाना बीएमसी और टीएमसी

Cracks in MVA? Congress reacts as Uddhav Thackeray supports NDA President pick Droupadi Murmu - India News

अब शिवसेना पहली बार ठाकरे परिवार के बिना सत्ता में आई है। उस सत्ता का मुखिया पहली बार ठाकरे परिवार से नहीं है- 1966 में शिवसेना का गठन हुआ था उसके बाद से। यह बात अभी भी उद्धव ठाकरे को समझ में नहीं आ रही है कि अब उनकी हैसियत नहीं रह गई है कि किसी को मातोश्री में बुला सकें। अगर उनको यह बात समझ में नहीं आ रही है कि 2019 में उन्हें क्यों नहीं मुख्यमंत्री बनाया गया तो इसका मतलब वे अभी तक ये नहीं समझ पाए कि अमित शाह ने उनके साथ क्या कर दिया। उनको ये भी समझ में नहीं आ रहा होगा कि आगे क्या होने वाला है। अगला निशाना है बीएमसी (बृह्न मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन)। विधानसभा चुनाव जीतने से भी बड़ा लक्ष्य है बीएमसी का चुनाव जीतना। बीएमसी ही शिवसेना के आर्थिक स्रोत का सबसे बड़ा जरिया है। यहीं से पार्टी को पैसा आता है, यही सारी डील होती है। बीएमसी और टीएमसी (ठाणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन) ये दोनों उद्धव के हाथ से जाने वाले हैं। अब उद्धव ठाकरे के पास बची शिवसेना केवल मुंबई की पार्टी रह गई है। बीएमसी के चुनाव में हराकर उसे मुंबई की भी पार्टी उस तरह से नहीं रहने दिया जाएगा, यह योजना है बीजेपी की। इसके अलावा मुझे लगता है कि संजय राऊत से जो ईडी की पूछताछ हुई है, उन्हें इस महीने से ज्यादा नहीं लगेगा जेल जाने में। हालांकि समय के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए लेकिन जिस तरह का केस ईडी ने बनाया है और उसके पास जो सुबूत हैं उन सबको देखते हुए एक बात बिलकुल स्पष्ट है कि संजय राऊत का बचना बहुत मुश्किल है।

अमित शाह से पंगा लिया उद्धव ठाकरे ने और अमित शाह ने उद्धव ठाकरे को उनके घर में घुसकर मारा। अब अगली कोशिश है कि उद्धव आह भी न भर पाएं और अपना दर्द भी न दिखा पाएं। इस कोशिश में उन्हें कामयाबी नहीं मिलेगी- इसका कोई कारण समझ में नहीं आता है। इंतजार कीजिए, उद्धव ठाकरे प्रकरण का पार्ट-2 आने वाला है। वह पार्ट वन ही तरह रोचक होगा। ज्यादा नहीं, दो-ढाई महीने ज्यादा से ज्यादा।