राजनीति का अपराधीकरण रोकना कौन चाहता है?
प्रदीप सिंह ।
भारतीय राजनीति में अपराध और राजनीति दूध और पानी की तरह घुल मिल गए हैं। अपराधी साथ न हों तो नेता को लगता है कुछ कमी है। तो राजनीति में सबको चाहिए एक माफिया। माफिया वोट दिलाने वाला हो तो सोने में सुहागा। और कहीं मुसलमान हो तो फिर कहना ही क्या। उसके संरक्षण और प्रोत्साहन देकर मान लिया जाता है कि मुसलमानों के लिए जितना किया जा सकता है कर दिया। संदेश दिया जाता है कि देखो तुम्हारे समाज के माफिया को भी हम गले लगाते हैं। अब वोट नहीं दोगे तो कब दोगे।
सुशासन बाबू लाए ‘जंगलराज-2’
मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की बातों के बीच बिहार सरकार ने एक बाहुबली और हत्या की सजा काट रहे नेता, आनंद मोहन सिंह को बाहर निकालने के लिए नियम ही बदल दिया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस पर शर्मिंदा होने की बजाय ऐसे खुशी मना रहे हैं जैसे बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। तो नीतीश राज में थोड़ी सी शराब पीने वाला जेल में रहेगा और हत्या के अपराध की सजा भोग रहा अपराधी स्वतंत्र होगा। जंगल राज ने आनंद मोहन, शहाबुद्दीन जैसे तमाम माफिया पैदा किए। अब सुशासन बाबू उन्हें महिमामंडित करने का काम कर रहे हैं।
अपराधी का नहीं वोट बैंक का बचाव
कानून के राज पर जब वोट बैंक भारी पड़ जाता है तो राजनीति के अपराधीकरण को कोई रोक नहीं सकता। माफिया और गुंडों को नेता अपनी सुरक्षा की सीपी में मोती की तरह पालता है। उसकी कीमत नेता ही समझता है। माफिया डॉन अतीक अहमद और उसका भाई मारा गया। समाज से अपराधियों की संख्या कम हुई। पर जिन्होंने उसका इस्तेमाल किया वे गमजदा हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें लग रहा है कि मरा अतीक भी उन्हें वोट दिला सकता है। इसलिए वे तरह तरह की बातों से उसका बचाव कर रहे हैं। वे दरअसल अतीक का नहीं अपने वोट बैंक का बचाव कर रहे।
बड़े जतन से तैयार किए जाते हैं माफिया
नेता की जान वोट बैंक नाम के तोते में बसती है। अब अतीक जैसों की सप्लाई कम हो रही है तो जेल से निकालकर लाया जा रहा है। ये माफिया बड़े जतन से तैयार किए जाते हैं। इन्हें कानून की नजर से बचाकर रखा जाता है। राजनीतिक संरक्षण से इनके आतंक के साम्राज्य को स्थापित किया जाता है। फिर एक समय आता है जब ये कानून से नहीं कानून इनसे डरता है। यह इनकी परम अवस्था होती है। इनको पालने वाला नेता निश्चिंत हो जाता है कि अब यह अपनी समानान्तर सरकार चला सकता है। जरा कल्पना कीजिए उस व्यवस्था की जिसमें पुलिस वाले गुंडे को सलामी देते हों और न्यायाधीश खौफ के मारे इनका मुकदमा सुनने से इनकार कर देते हैं।
पैरोकारों की बढ़ती जमात
माफिया के पनपने और उसके ताकतवर होने से ज्यादा चिंता की बात है उसके पैरोकारों की बढ़ती जमात। राजनीति के पतन का अनुमान लगाइए कि अतीक के मारे जाने पर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते हैं कि भाजपा साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ रही है। मतलब यह कि अतीक साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक था। सवाल उठाए जा रहे हैं कि पुलिस सुरक्षा में मार दिया गया। इस देश में इससे ज्यादा कड़ी सुरक्षा में देश की प्रधाननमंत्री की हत्या हो गई। देश पूर्व प्रधानमंत्री और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री की हत्या हो गई। देश के पूर्व सेनाध्यक्ष एएस वैद्य की हत्या हो गई। यहां दो गुंडों के मारे जाने पर मातम मनाया जा रहा है। जिसके दो बेटे विभिन्न अपराधों के आरोप में अभी जेल में हैं और बीवी फरार है।
दो राज्यों की स्थिति
देश के दो राज्यों की स्थिति देखिए। उत्तर प्रदेश में माफिया और गुंडे त्राहि-त्राहि कर रहे हैं और बगल में बिहार में माफिया बम-बम है। यही अंतर है कानून के राज और जंगल राज में। बिहार का घटनाक्रम बता रहा है कि माफिया का राज आता है तो कानून का राज दुम दबाकर पिछले दरवाजे से निकल जाता है। पर कानून अपने रौद्र रूप में आता है तो अपराधियों को छिपने के लिए पूरी धरती कम पड़ने लगती है। एक राज्य में पुलिस दौड़ा रही है और अपराधी भाग रहे हैं। दूसरे में अपराधी के स्वागत में राज्य का मुख्यमंत्री पलक-पांवड़े विछाए खड़ा है। पुलिस सलामी दे रही है।
अपराधी को गले लगाने की आतुरता
अब सवाल है कि दो राज्यों में इतना बड़ा अंतर क्यों है। इसी बात से समझ में आ सकता है कि राजनीति का अपराधीकरण रुक क्यों नहीं रहा। पहला प्रश्न है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकना कौन चाहता है। बल्कि ज्यादा सही सवाल होगा कि इसे रोकना कौन चाहेगा? वही रोकना चाहेगा जो माफिया को वोट बैंक के रूप में नहीं देखता, जो माफिया का आर्थिक साम्राज्य बनवाकर उसका दोहन नहीं करता। जो अवैध कब्जे, हत्या, लूट, बलात्कार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति पर चलने की इच्छा शक्ति रखता हो। उत्तर प्रदेश और बिहार में यही फर्क है। संगठित अपराध और अपराधियों के उन्मूलन की नेतृत्व की इच्छाशक्ति उत्तर प्रदेश सरकार में नजर आती है। बिहार में इसका ठीक उल्टा है। वहां अपराधी को गले लगाने की आतुरता दिखती है।
बदलाव की तत्काल और सख्त जरूरत
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और जिम्मेदार नेताओं को जल्दी सजा दिलाने के लिए विशेष एमपी-एमएलए अदालतें बनीं। पर बात आगे बढ़ नहीं रही। अब मांग की जा रही है कि अपराध साबित होने और सजा मिलने पर आजीवन न केवल चुनाव लड़ने पर रोक लगे बल्कि चुनाव प्रचार या पार्टी पदाधिकारी बनने पर भी रोक लगे। चुनाव सुधार और कानून में बदलाव की तत्काल और सख्त जरूरत है। यह उम्मीद छोड़ देना चाहिए कि पार्टियां अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझेंगी और ऐसे लोगों से दूरी बनाकर रखेंगी। क्योंकि जाति और धर्म की राजनीति के साथ जाति और सम्प्रदाय के माफिया का लोभ राजनेताओं के लिए छोड़ना आसान नहीं है।
अतीक और उसके भाई का मामला इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि देश का राजनीतिक जीवन कितना दूषित हो चुका है। एक माफिया के मारे जाने के बाद भी उसके समर्थन में जिस तरह के तर्क प्रस्तुत किए जा रहे हैं, वे किसी अपराधिक कृत्य से कम नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है, प्रतिबंधित संगठनों के बारे में। शीर्ष अदालत ने कहा कि उनसे संबंध रखना भी अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे ही माफिया से संबंध रखने वाले नेताओं को सजा दिलाने के लिए जब तक कानून नहीं बनेगा माफिया राज रुकने वाला नहीं है।
(आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार। लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)