डॉ. संतोष कुमार तिवारी।

छपे हुए शब्द धीरे-धीरे विदा हो रहे हैं। टेलीफोन डायरेक्टरी अब विदा हो गई है। रेलवे टाइम टेबिल को अब कौन खरीदता है? यह विदाई की बेला कुछ ऐसी ही है, जैसे कि हस्तलिखित पत्र हमारे जीवन से कब विदा हो गए – हमे पता ही नहीं चला। यह लेख आपको यह बताने के लिए है कि छपे हुए शब्दों का गायब होने का क्रम जीवन के तमाम क्षेत्रों में लगातार जारी है।


 

लगभग ढाई सौ साल से छप रही ‘एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका’ का पुस्तक के रूप  में प्रकाशन कोई दस साल पहले ही बंद हो चुका है। इसे छापने वाली कंपनी ने यह घोषणा की है कि अब यह पुस्तक सिर्फ डिजिटल फार्म में आनलाइन उपलब्ध होगी। साल 1990 में इसकी 1,20,000 प्रतियाँ बिकी थीं, जो 1996 में घट कर 40,000 रह गईं। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के कारण इसका पुस्तक रूप में छापना समाप्त हो गया। यह पुस्तक उस जमाने से छप रही थी जब बिजली के बल्ब का आविष्कार नहीं हुआ था। बिजली के बल्ब का आविष्कार टामस एडिसन ने सन् 1879 में किया था। ‘एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका’ सबसे पहले सन् 1768 में स्काटलैंड में प्रकाशित हुई थी। बाद में यह अमेरिका में छपने लगी।

केंद्र सरकार के कैलेंडर इस वर्ष नहीं छपे

नरेन्द्र मोदी गवर्नमेंट ने सभी केंद्रीय सरकार के विभागों के कैलेंडरों की छपाई पर रोक लगा दी है, क्योंकि इंटरनेट युग में यह व्यर्थ का ख्रर्चा है। उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग ने भी ऐसे ही कारणों से इस बार अपनी डायरी नहीं छापी, हालांकि वह आनलाइन उपलब्ध कराई गई है।

अमेरिका में 1809 में छपी ‘एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका’ का मुख पृष्ठ

ई-टिकट की प्रिंटेड कापी रखना अब जरूरी नहीं

ट्रेन और हवाई जहाज के ई-टिकट की प्रिंटेड कापी रखना पिछले एक दशक से ज्यादा समय से जरूरी नहीं रह गया है। मोबाइल पर ही टिकट दिखा दिया, बस इतना ही काफी है।

छपी हुई डिक्शनरी का इस्तेमाल भी कम हो रहा है

अब बच्चों ने अंग्रेजी-हिन्दी डिक्शनरी का इस्तेमाल भी कम कर दिया है, क्योंकि शब्दकोश आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है।

खबरों की दुनिया में अखबार पीछे, इंटरनेट आगे

मैं अक्सर कई दिन छपा हुआ अखबार नहीं पढ़ता हूँ, परन्तु मुझे सारी जरूरी खबरें पता रहती हैं। वे मुझे  इंटरनेट पर ज्यादा त्वरित  गति से उपलब्ध हो जाती हैं।

अभी दो वर्ष पूर्व बंगलोर में एक विवाह समारोह में एक सज्जन अमेरिका से आए थे। मैंने उनसे पूछा कि आप वहाँ कौन सा अखबार पढ़ते हैं? उन्होंने कहा कि मैं कोई अखबार नहीं पढ़ता हूँ। मैं खबरें सिर्फ इंटरनेट पर पढ़ और देख लेता हूँ।

आजकल दुनिया के सभी बड़े अखबार ई-न्यूज़पेपर के रूप में उपलब्ध है। उन्हें इन्हें विश्व भर में कभी भी कहीं भी पढ़ा जा सकता है।

इस वर्ष निर्मला सीतारमण ने लोक सभा में जो बजट रखा, उसे अपने आई-पैड से पढ़ा।  उत्तर प्रदेश विधान सभा में भी इस वर्ष जब बजट रखा गया, तो वह छपा हुआ नहीं था।

करोड़ों की संख्या में ई-बुक्स प्रकाशित हो रही हैं

आजकल हिन्दी अंग्रेजी, तमिल, आदि तमाम भाषाओं में करोड़ों किताबें ई-बुक के तौर पर प्रकाशित हो रही हैं। इन्हें दुनिया में कोई भी कहीं भी खरीद सकता है और पढ़ सकता है। मेरी भी कई पुस्तकें ई-बुक के रूप में अमेज़न पर उपलब्ध हैं। इनको मैं कभी प्रिंट नहीं कराऊंगा।

ये सब बातें इस  ओर इशारा करती हैं कि छपे हुए शब्द धीरे-धीरे विदा हो रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि गुटेनबर्ग ने जर्मनी में जिस छापेखाने का अविष्कार सन् 1450 के आसपास किया था, उसके विदाई की बेला आ गई है। फिर भी हम में से कई लोग प्रिंटेड शब्दों को पढ़ने के आदी हैं। उसमें वे सहूलियत महसूस करते हैं। उनकी आंखे प्रिंटेड शब्द पढ़ने की अभ्यस्त हैं। कम्प्यूटर स्क्रीन पर या मोबाइल पर वे उतनी तेजी से नहीं पढ़ पाते हैं।

प्रिंटेड शब्द हजार साल जिएं, ऐसी शुभकामनाओं का दौर शुरू

प्रिंटेड शब्द एक हजार साल जिएं, ऐसी शुभकामनाओं का दौर शुरू हो गया है। लेकिन इन शुभकामनाओं के भरोसे ही ये छपे हुए शब्द ज्यादा दिन नहीं टिक पाएंगे। जब बालप्वाइंट पेन की शुरुआत हुई थी, तब भी लोगों की शुभकामनाएँ निब वाले पेन के साथ थीं। आज बालप्वाइंट पेन के अर्थशास्त्र ने निब वाले फाउंटेन पेन को संग्रहालय जैसी वस्तु बना दिया है। नए जमाने की ई-बुक्स अपनी नई सहूलियतों और सुविधाजनक अर्थशास्त्र  के साथ बाजार में आ रही हैं और लोकप्रिय हो रही हैं।

यूरोप, अमेरिका में अखबारों की प्रसार संख्या लगातार घट रही

यूरोप और अमेरिका में तो कागज पर छपने वाले अखबारों की प्रसार संख्या लगातार घट रही है, परन्तु भारत में अभी ऐसा नहीं है। भारत में अब भी सभी गांवों में तेज इंटरनेट सेवा उपलब्ध नहीं है। देश की जनसंख्या भी बढ़ रही है। लोगों की आमदनी भी बढ़ी है। कई घरों में एक से ज्यादा अखबार खरीदे जाने लगे हैं। अभी हमारे यहाँ यह हालात नहीं हैं कि निकट भविष्य में कागज पर छपे अखबार और किताबें बंद हो जाएं। लेकिन जब पूरी दुनिया बदल रही है, तो क्या हम उस बदलाव से बच पाएंगे?

(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)


वो जो दिन-रात आभासी दुनिया में गोता लगाते दिखते हैं