भाई-बहन के बीच शुरू हो गई पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई।

प्रदीप सिंह।
वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर सोमवार को लोकसभा में चर्चा हुई। चर्चा की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। संसदीय परंपरा में होता यह है कि प्रधानमंत्री जब किसी चर्चा की शुरुआत करते हैं तो नेता प्रतिपक्ष विपक्ष की ओर से पहला भाषण देते हैं। और कांग्रेस पार्टी तो वैसे भी हमेशा प्रोटोकॉल की बात करती है। तो प्रोटोकॉल यह कहता था कि प्रधानमंत्री के बाद नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी बोलें, लेकिन लोकसभा में पीएम के बाद कांग्रेस के डिप्टी लीडर गौरव गोगोई बोले। गौरव गोगोई ने शुरुआत तो की लेकिन पार्टी की ओर से मुख्य वक्ता थीं प्रियंका गांधी वाड्रा। सबसे अहम बात यह रही कि राहुल गांधी संसद परिसर में मौजूद थे लेकिन सदन के अंदर नहीं आए। मैंने हाल ही में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति और प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में कहा था कि वह आगे चलकर कांग्रेस को तोड़ने या कांग्रेस पर कब्जा करने या कांग्रेस में अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकती हैं और सोमवार की घटना इस बात को पुष्ट करती है।

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अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों है। केवल एक भाषण से क्या यह तय हो जाता है? नहीं। राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का मामला अगर समझना हो तो आपको शुरुआत से देखना होगा। जब राहुल गांधी राजनीति में आए और 2004 में पहला चुनाव लड़ा, उसके पहले से ही कांग्रेस पार्टी का एक बड़ा धड़ा मांग कर रहा था कि प्रियंका वाड्रा को आगे आना चाहिए। उसका मानना था कि राजनीतिक रूप से राहुल गांधी से ज्यादा योग्य प्रियंका हैं। राजीव गांधी के दौर में या उसके बाद आप में से कोई अगर अमेठी के गौरीगंज विधानसभा क्षेत्र गया हो तो वहां कोई दीवार आपको नहीं मिलेगी जिस पर लिखा न हो- अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका। राजीव गांधी जब अमेठी से सांसद बने तब से ही प्रियंका पिता के साथ अमेठी जाती रही हैं। तब से ही अमेठी वालों से उनका एक रिश्ता है,लेकिन यह अलग बात है। सोमवार की घटना से इसको पूरी तरह से नहीं जोड़ा जा सकता।

कांग्रेस में लंबे समय तक सतह के अंदर राजनीतिक विरासत की लड़ाई होती रही कि वह राहुल गांधी को मिलेगी या प्रियंका वाड्रा को। कहा गया कि सोनिया गांधी बेटे को आगे बढ़ाना चाहती हैं क्योंकि भारत की तरह इटली में भी सामाजिक व्यवस्था में बेटों को तरजीह दी जाती है। हालांकि प्रियंका वाड्रा पहले से राजनीति में आना चाहती थीं और राहुल गांधी उतने इच्छुक नहीं थे, लेकिन फिर भी राहुल गांधी को आगे लाया गया। तो जब से सोनिया गांधी अध्यक्ष बनीं कांग्रेस में एक धड़ा लगातार कहता रहा कि प्रियंका वाड्रा को आगे किया जाना चाहिए और उसके उदाहरण दिए जाते हैं। ऐसी दो-तीन घटनाओं का जिक्र मैं भी पहले कर चुका हूं। पहली घटना- जब राजीव गांधी की हत्या हो गई और उनका अस्थि कलश रायबरेली होकर प्रयागराज ले जाया जा रहा था। रायबरेली स्टेशन पर आधी रात को ट्रेन पहुंची तो भारी सुरक्षा इंतजामों के कारण किसी को प्लेटफार्म पर नहीं आने दिया गया। उस समय प्रियंका वाड्रा छोटी थीं। फिर भी वह ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकलीं और सामने खड़े अधिकारी से पूछा कि किसी को आने क्यों नहीं दिया गया? उन्होंने सुरक्षा कारण बताया तो प्रियंका ने पूछा किसके लिए सिक्योरिटी? जिसको सिक्योरिटी की जरूरत थी वह तो चला गया और अगले दिन उत्तर प्रदेश के सभी अखबारों में यह पहले पेज की खबर थी।

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दूसरी बार चर्चा में प्रियंका तब आईं जब अरुण नेहरू भाजपा के टिकट पर रायबरेली से चुनाव लड़ रहे थे। तब प्रियंका गांधी ने अरुण नेहरू के खिलाफ एकमात्र सभा की और कहा, क्या आप लोग मेरे पिता को धोखा देने वाले को चुनाव जिताना चाहते हैं? उस एक भाषण से पूरा चुनाव बदल गया और अरुण नेहरू चुनाव हार गए। तीसरा एक और उदाहरण है 2012 का। फैजाबाद में एक सभा में राजनाथ सिंह ने कह दिया कि कांग्रेस अब बूढ़ी हो गई है। प्रियंका वाड्रा उस समय तक केवल अपनी मां और भाई के लिए अमेठी और रायबरेली में ही चुनाव प्रचार करती थीं। उसके बाद वह फैजाबाद आईं और एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, क्या लगता है आपको मैं बूढ़ी हो गई हूं। तो इन दो-तीन घटनाओं से कांग्रेस के कई नेताओं को लगा कि प्रियंका में राजनीति की बारीक समझ है।

हालांकि मैं मानता हूं कि प्रियंका के चुनावी प्रभाव के दो बार हुए टेस्ट में वह सफल नहीं हो पाई हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब उनको आधे से ज्यादा उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया था तो कांग्रेस 80 में से सिर्फ एक सीट जीत पाई थी। वह भी सोनिया गांधी की। राहुल गांधी तक अमेठी से हार गए थे। दूसरी बार 2022 में जब विधानसभा चुनाव में उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया तो कांग्रेस के 403 में केवल दो सीट जीत सकी। लेकिन राजनीति सिर्फ चुनावी प्रभाव की दृष्टि से नहीं देखी जाती। पार्टी में हर तरह के नेताओं की जरूरत होती है। इतना तो अब स्पष्ट हो चुका है कि संसदीय योग्यता में प्रियंका वाड्रा राहुल गांधी से आगे हैं। यह पहली बार हुआ कि राहुल गांधी संसद परिसर में मौजूद थे, लेकिन मुख्य भाषण देने का जिम्मा प्रियंका वाड्रा को मिला। यह बड़े परिवर्तन की दृष्टि से इसलिए देखा जाना चाहिए क्योंकि अभी तक इसको रोकने की भरपूर कोशिश सोनिया गांधी करती रही हैं। इस संकेत का एक निष्कर्ष यह है कि अब कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी की नहीं चलती। पहले राहुल गांधी ने उनको घर बिठा दिया। अब प्रियंका एसर्ट कर रही हैं। कांग्रेस में सोनिया गांधी का गुट लगातार कमजोर होता जा रहा है और राहुल गांधी के गुट का एक तरह से वर्चस्व है, लेकिन अब प्रियंका वाड्रा ऐसा लगता है कि इस वर्चस्व को चुनौती देने की तैयारी कर रही हैं।

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लोकसभा में सोमवार के उनके भाषण की बहुत से लोगों ने तारीफ की। सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी की तरह वे विषैली बात कम बोलती हैं। दूसरी बात यह कि वह कुछ तथ्यों की बात करती हैं। राहुल गांधी कभी अपने भाषण में तथ्यों की बात नहीं करते। वह सारी बातें अपनी कल्पना की उड़ान से करते हैं। यह अलग बात है कि प्रियंका वाड्रा को रोकने की कोशिश राहुल गांधी भी कर रहे हैं। प्रियंका को राष्ट्रीय महामंत्री तो बना दिया गया,लेकिन आज तक उनको कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई है। लेकिन अब लगता है कि गांधी परिवार के अंदरूनी समीकरण में बदलाव आ रहा है,यह आपको आने वाले दिनों में और मुखर होता हुआ दिखाई देगा। मुझे लगता है कि इसकी पहली परीक्षा कर्नाटक में होने जा रही है। वहां डीके शिवकुमार को सबसे ज्यादा समर्थन परिवार में किसी का है तो प्रियंका वाड्रा का है। हालांकि प्रियंका वाड्रा ने जिन लोगों का समर्थन किया, उनको कुछ ज्यादा मिला नहीं। सबसे बड़ा उदाहरण तो राजस्थान के सचिन पायलट हैं। प्रियंका का अभी संगठन में कोई दखल नहीं है। संगठन में वह केवल शोभा की वस्तु हैं। चुनाव प्रचार में भी उन्हें ज्यादा मौका नहीं दिया जाता जबकि कांग्रेस के पास वक्ताओं की भारी कमी है। राहुल गांधी तो जहां बोलते हैं वहां वोट कम करके आते हैं। प्रियंका उनसे कहीं बेहतर वक्ता हैं।

ऐसे में प्रियंका वाड्रा को लग रहा है कि अब बहुत हो गया। अब और दबकर रहने को वे तैयार नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी में ऐसा लगता है संगठन के स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है कि राहुल गांधी जितना कम बोले उतना अच्छा है, न बोलें तो और अच्छा है। प्रियंका वाड्रा की इस मामले में भूमिका बढ़ने वाली है। तो भाई बहन के बीच में पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई का श्री गणेश हो गया है। वह किस रूप में सामने आएगा?कितना समय लगेगा, यह देखने की बात है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)