नए भू-राजनीतिक और स्थानीय वास्तविकताओं से कश्मीर का आमना-सामना!
आदित्य गौदार शिवमूर्ति।
कश्मीर में सुरक्षा चुनौतियों के परिदृश्य बेहद तेज़ी से बदल रहे हैं। कुछ लोग इसे तालिबान की जीत का परिणाम बता रहे हैं जबकि दूसरों का मानना है कि यह ‘कश्मीर में 90 के दौर’ की पुनर्वापसी है लेकिन इन दोनों अध्यायों का सीधा कोई संपर्क अभी तक सामने नहीं आया है। इसमें दो राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत से कश्मीर के आतंकियों और उनके समर्थकों का मनोबल और विचारधारा मज़बूत हुआ है। यहां तक कि यह उनके सैद्धान्तिक जीत का सबूत है। बावजूद इसके यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि इसके लिए केवल पहली वजह ही ज़िम्मेदार है। यहां तक कि कश्मीर में मौजूदा सुरक्षा परिदृश्य की तुलना 90 के दशक से करना भी पूरी तरह गलत होगा।
हाल में घुसपैठ की घटनाओं में तेजी आने और कश्मीर में सॉफ्ट टारगेट हमले को लेकर तीन संभावनाएं मज़बूत होती हैं जो आपस में एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। पहला इस तरह के हमले हर साल सर्दियों से पहले आतंकी गतिविधियों में होने वाली बढ़ोतरी की तरफ इशारा करते हैं। दूसरा, एक तरह का नया अफ़साना वहां आकार ले रहा है। जैसा कि सेना और सरकार लगातार यह संदेश देने की कोशिश में जुटी है कि घाटी में हालात तेज़ी से सामान्य हो रहे हैं तो आतंकवादियों की मंशा इसके विपरीत परिस्थितियों को प्रचारित करने की है। इसके अतिरिक्त एक सख़्त संदेश भेजना सरकार और सेना की प्राथमिकता है क्योंकि सरेंडर कर चुके लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों ने घाटी में हालात सामान्य करने के सेना के प्रयासों की सराहना की है। हालांकि हाल में अल्पसंख्यकों पर किये गये रेसिस्टेंस फ्रंट(लश्कर-ए-तैयबा का एक अलग हिस्सा) के हमलों को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
हालांकि, मौजूदा हालात को लेकर तीसरी व्याख्या जो है वह काफी उलझी हुई और भारत के लिहाज से ख़तरनाक है। दरअसल आतंकवादी और उनके आका भारत को तीन मोर्चों पर घेरने की कोशिश में लगे हैं – पाकिस्तान और चीन के साथ दो मोर्चों पर और आधे मोर्चे पर कश्मीरी अलगाववादियों और बचे हुए आधे मोर्चे पर प्रतिकूल अफ़ग़ानिस्तान के ज़रिए। इसे समझने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान और कश्मीर के बीच के अतीत और भविष्य की कड़ी को समझा जाए।
90 का दौर: वर्षों पुराना संबंध
कश्मीर में आतंकवाद का सिर उठाना दरअसल जबर्दस्त रूप से अफ़ग़ानिस्तान में रूस विरोधी मुज़ाहिदीन दौर से जुड़ा हुआ है। अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध के दौरान कई विदेशी आतंकवादी लड़ाके (गैर-पाकिस्तानी) कश्मीर में दाख़िल हुए। 1992-93 से शुरू होकर पाकिस्तान की सरकार ने वहां की राजनीतिक पार्टियों और संगठनों जैसे, जमात-ए-उलेमा इस्लामी (जेयूएल), जमात-ए-इस्लामी (जेआई), जमीयत अहले हदीथ (जेएएच), का इस्तेमाल किया और कश्मीर मुद्दे को लेकर आतंकियों की भर्ती और उन्हें कट्टरपंथ का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। इन संगठनों के लिए इन लड़ाकों के तयशुदा लॉजिस्टिक्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर और अफ़ग़ानिस्तान मुज़ाहिदीन नेटवर्क काफी फायदेमंद साबित हुआ। ( सारणी 1 देखें )। इस तरह अफ़ग़ानिस्तान का ख़ोस्त इलाका कश्मीर के लिए लड़ने वाले आतंकवादियों की ट्रेनिंग का सामान्य इलाका बन गया।
पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई समर्थित जमात-ए-इस्लामी (जेआई) और हिज़्ब-ए-इस्लामी गुलबुद्दीन (एचआईजी) ने हिज़्बुल मुजाहिदीन (एचएम) को समर्थन देना शुरू कर दिया। गुलबुद्दीन हेक्मेतियार। एचआईजी के नेता ने तो अपने लोगों को इन लड़ाकों को ट्रेनिंग देने के लिए भी भेजा जिससे कि वो आईएसआई के साथ जंग में सहयोग कर सकें। इसी प्रकार सरकार और (बाद में) आईएसआई समर्थित जेयूएल ने हरकत संगठनों को तालिबान और हक्कानी नेटवर्क से जुड़ने में मदद पहुंचाई। इन्हीं संगठनों (हक्कानी और तालिबान) ने आगे जाकर साल 2000 में अलकायदा समेत जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना में मदद की। इन्हीं लोगों ने आगे जाकर हरकत गुट के अंतर्भाव को भी मुमकिन किया। इतना ही नहीं, उनके इन्फ्रास्ट्रक्चर, लॉजिस्टिक्स और लोगों का भी इस्तेमाल किया गया। अफ़ग़ानिस्तान में जमात-ए-अहले-हदीस की मरकज़-दावा-अल-इरसाद और इसकी हथियारबंद शाखा लश्कर-ए-तैयबा के पास भी वहां सीमित मकसद और संगठन को संचालित करने के लिए पर्याप्त मौका था। 1996 तक पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन और तालिबान के बीच रिश्ते की मध्यस्थता कर ली थी और पाकिस्तान ने इसका इस्तेमाल ख़ोस्त के कैंप को बचाए रखने के लिए किया था जबकि कश्मीर में लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान लगातार पैसे और लड़ाके की मांग करता रहा, लेकिन एक ही आका होने के बावजूद कश्मीर के उग्रवादी संगठन अलग-अलग लड़ाई लड़ रहे थे और स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे।
उभरता हुआ रक्तपात
2001 के बाद ही इन आतंकी संगठनों के बीच समन्वय और सहयोग देखा गया जिसका परिणाम अफ़ग़ानिस्तान और कश्मीर दोनों जगहों पर देखने को मिला। दरअसल इस सहयोग की दो वजहें थीं : पहला, अमेरिका से साझा दुश्मनी और दूसरा, उत्तर पश्चिम इलाके में ये आतंकी संगठन एक दूसरे को सहयोग करने को विवश थे, क्योंकि अमेरिका ने तब तक पाकिस्तान पर आतंक के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए दबाव बना दिया था।
साल 2008 तक अमेरिका जो दोनों का दुश्मन था – उसने सभी आतंकवादी संगठनों को एकजुट कर दिया और 2007 तक जैश ने पश्चिम के साथ-साथ तालिबान और अलकायदा के ख़िलाफ़ जंग लड़ने का वादा कर दिया जबकि लश्कर जो कश्मीर तक ही सीमित था उसने भी इसे साथ देने का फैसला किया। अफ़ग़ानिस्तान में दोनों संगठन अपनी मौजूदगी कायम रखने में सफल हुए और हक्कानी, अलकायदा के साथ तालिबान जैसे संगठनों के साथ ऑपरेशनल और ट्रेनिंग के क्षेत्र में समन्वय स्थापित करने में सफल रहा। इस तरह की शुरुआत और आपसी समझौते के चलते एलईटी, जेईएम और एचएम के बीच ज़्यादा सहयोग का आधार तैयार हुआ, जो कश्मीर में आतंकवाद के नए दौर में प्रभावी साबित हुआ।
लश्कर और जैश के काडर की ताकत
इस तरह के आपसी सहयोग में लश्कर और जैश के काडर की ताकत और गुणवत्ता में बदलाव करने की क्षमता थी। ऐतिहासिक तौर पर दोनों ही संगठनों में पंजाब, सिंध और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के ज़्यादातर कैडरों की भर्तियां हुई थी लेकिन अफ़ग़ानिस्तान समेत उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान और ख़ैबर-पख़्तुनख़्वा में ऑपरेट करने की वजह से इन संगठनों ने स्थानीय स्तर पर फैले उग्रवादी संगठनों के प्रभाव और लॉजिस्टिक का भी इस्तेमाल किया। इसकी वजह से घाटी में आतंकवाद की चुनौतियां बढ़ती गई और 90 के दौर की तरह ही ज़्यादातर ऐसे पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के संगठन आपस में संसाधन, भरोसा और एक दूसरे पर आश्रित हो गए। इसलिए यह पूरा क्षेत्र अफ़ग़ानिस्तान के उग्रवादी संगठनों की भर्ती और ट्रेनिंग के लिए मुफ़ीद साबित हुए और ये भारत विरोधी आतंकी संगठनों के साथ मिलकर काम करने को तैयार हो गए। जंग के लिए पूरी तरह से तैयार ये लड़ाके स्थानीय जैश और लश्कर की भर्तियों के मुकाबले आगे बेहद विनाशकारी और रणनीतिक लिहाज से मज़बूत साबित हुए जिसका इस्तेमाल आतंकवाद फैलाने के लिए किया जाता रहा।
अल-क़ायदा और आईएसआईएस
कश्मीर में नए दौर के आतंकवाद ने अनसार गज़वात-उल-हिंद (एजीएच) – अल-कायदा और विलायत-अल-हिंद (आईएस कश्मीर) की शाखा है – जो आईएसआईएस का ही हिस्सा है। इन लोगों ने कश्मीर के साथ इस्लामिक ख़लीफ़ा के साथ विलय को प्राथमिकता दी और पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों और उसके एक मुल्क के प्रति केंद्रित जिहाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे। लेकिन दोनों ही संगठनों के पास मददगार आधार की कमी थी क्योंकि इनके कैडर अक्सर एलईटी, जेईएम और एचएम के पास सैद्धान्तिक और संगठनात्मक बदलावों की वजह से पाला बदलते रहते थे। इसलिए अपने शीर्ष पर होने के बावजूद दोनों ही एजीएच और आईएस कश्मीर, जैसे संगठनों के पास 12 से ज़्यादा लोगों की भर्तियां नहीं हो पाईं।
सलाफी और वहाबी विचारधारा की भारत में पकड़
हालांकि, पाकिस्तान के आतंकी संगठनों की तरह ही इनकी ताकत, नेटवर्क, और प्रोपेगैंडा भारत के हर हिस्से तक फैली हुई थी। स्पष्ट तौर पर अंसार और विलायत दोनों ने ही कश्मीर में आतंक फैलाने के लिए तेलंगाना के एक स्थानीय की भर्ती करने की ज़िम्मेदारी ली थी। हाल ही में एक एजीएच नेटवर्क की पहचान की गई और उसकी गिरफ़्तारी लखनऊ से हुई, जबकि जानकारी यह भी है कि आईएसआईएस के हैंडलर्स आईएसआईएस प्रोपेगैंडा को पूरे हिंदुस्तान में स्थानीय भाषाओं में प्रचारित कर रहे हैं। इन संगठनों में भर्तियों में और भी तेजी तब आई जबसे सलाफी और वहाबी विचारधाराओं ने भारत में अपनी पकड़ मज़बूत करनी शुरू कर दी।
तालिबान की वापसी
तालिबान की वापसी ने आगे एजीएच और विलायत जैसे संगठनों की आतंकी गतिविधियों को और बढ़ने का मौका दिया। अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस के बढ़ते प्रभाव के चलते उसके संगठन का मुख्य केंद्र भारत का पड़ोस बना। इससे आईएसआईएस को पैसे और मानव बल के तौर पर विलायत के साथ जुड़ने का मौका मिला, जिससे घाटी में स्थानीय, विदेशी और भारतीयों की भर्ती के जरिए इस आतंकी संगठन की पैठ बनी। इसके चलते पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के मुकाबले स्थानीय आतंकी की भर्ती करने वालों, संसाधन और ओवर ग्राउंड वर्कर्स (ओडब्ल्यूजी) के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्द्धा भी पैदा हुई।
अल-कायदा लेगा तालिबान की मदद
दूसरी ओर अल-कायदा वैश्विक स्तर पर गिरते साख को बचाने और सुधार करने के लिए तालिबान की मदद लेगा जिसे आईएसआईएस के बढ़ते प्रभाव से चुनौती मिल रही है। इस प्राथमिकता की वजह से इसकी स्थानीय शाखा एजीएच ख़ुद की मौजूदगी दर्ज़ कराने के लिए कोशिशों में जुटी रहेगी, ख़ास कर तब जबकि दो बार इस संगठन को पूरी तरह समाप्त किया जा चुका है। ऐसे में इनके पास तमाम वैचारिक विभिन्नताओं के बावजूद जेईएम और दूसरे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के साथ काम करने का विकल्प शेष रह जाता है। यह ऐसा परिदृश्य है जो 2019 में पहली बार दिखा।
आतंकवाद का भविष्य
इस तरह का मौजूदा सहयोग (आईएस कश्मीर को छोड़कर) इस बात की ओर इशारा करता है कि इस क्षेत्र से आतंकवाद अभी ख़त्म नहीं होने वाला है और यह हमें तीसरी व्याख्या की ओर ले जाता है। घाटी से अनुच्छेद 370 के रद्द किए जाने के बाद से ही कश्मीर के आतंकवादी बेहद ही तनाव और दबाव की स्थिति से गुजर रहे हैं। इन आतंकी संगठनों को इस बात का इंतज़ार है कि घाटी में सुविधाजनक भू-राजनीतिक या फिर स्थानीय बदलाव हो। इस संदर्भ में, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत एक वरदान साबित हुई है। अफ़ग़ानिस्तान में सैद्धान्तिक रूप से सख़्त, बिना किसी सुधार हालांकि चौकन्ने तालिबान का साम्राज्य है, लिहाजा कश्मीर में सक्रिय आतंकी और उनके आका उनसे मदद, सुरक्षित शरण, मानवबल के साथ -साथ धन और लॉजिस्टिक सपोर्ट हासिल करने की ताक में हैं।
खतरनाक स्थिति
नतीजतन, आतंकी घुसपैठ की कोशिश, सॉफ्ट टारगेट पर हमला और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर ख़ुद ही भारतीय सुरक्षा बलों की नाराज़गी मोल ले रहे हैं। इससे अपरोक्ष रूप से घाटी में चलाई जा रही शांति प्रक्रिया को धक्का लगेगा और घाटी में गैर-आतंकी हिंसा बढेगी। इससे अफ़ग़ानिस्तान के आतंकवादी संगठनों का आकर्षण और उनकी मदद हासिल होगी जो तालिबान की नीतियों को आखिरकार प्रभावित करेगा। जैसा कि अफ़ग़ानिस्तान अब एक नया समीकरण तलाशने में जुटा है तो पाकिस्तान की सरकार और ख़ुफ़िया एजेंसी भारत को तीन मोर्चे पर घेरने की कोशिश में जुट गई है। यहां से अब यह भारत पर निर्भर करता है कि वो कैसे घरेलू सुरक्षा चिंताओं के साथ विदेश नीति के बीच तालमेल बिठाता है।
(साभार: आर्गेनाइजर रिसर्च फाउंडेशन)