प्रमोद जोशी ।
दिल्ली के आसपास चल रहे किसान आंदोलन के संदर्भ में आज के इंडियन एक्सप्रेस में धनमंजिरी साठे का ऑप-एड लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें लेखिका का कहना है कि यह आंदोलन पंजाब में हरित-क्रांति के बावजूद वहाँ औद्योगीकरण न हो पाने के कारण जन्मा है। लेखिका सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्राध्यापक हैं।

औद्योगिक और कृषि क्रांति

इन्होंने लिखा है, मुख्यतः पंजाब के किसानों के इस आंदोलन ने विकासात्मक-अर्थशास्त्र (डेवलपमेंट-इकोनॉमिक्स) से जुड़े प्रश्नों को उभारा है। विकास-सिद्धांत कहता है कि किस तरह से एक पिछड़ी-खेतिहर अर्थव्यवस्था औद्योगिक (जिसमें सेवा क्षेत्र शामिल है) अर्थव्यवस्था बन सकती है। इसके अनुसार औद्योगिक-क्रांति की दिशा में बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में कृषि-क्रांति होनी चाहिए। यानी कि खेती का उत्पादन और उत्पादकता इतनी बड़ी मात्रा में होने लगे कि खेती में लगे श्रमिक उद्योगों में लग सकें और औद्योगिक श्रमिकों को खेतों में हो रहे अतिरिक्त उत्पादन से भोजन मिलने लगे।

पंजाब के किसान बेहतर स्थिति में

पंजाब में साफ तौर पर कृषि-क्रांति (हरित-क्रांति) हो चुकी है। वहाँ काफी मात्रा में अतिरिक्त अन्न उपलब्ध है। यदि पंजाब स्वतंत्र देश होता, तो कृषि-क्रांति के बाद समझदारी इस बात में थी कि पहले दौर में आयात पर रोक लगाकर, औद्योगीकरण को प्रोत्साहन दिया जाता। ऐसे में खेती के काम में लगे अतिरिक्त श्रमिकों को उद्योगों में लगाया जा सकता था। पर पंजाब एक बड़े देश का हिस्सा है। इसलिए उसकी खेती के लिए देश के दूसरे क्षेत्रों में आसान बाजार उपलब्ध है। पंजाब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर भारतीय खाद्य निगम को गेहूँ बेचता रहा है। पंजाब में एमएसपी और एपीएमसी मंडियों के विकास के कारण वहाँ के किसानों की स्थिति देश के दूसरे इलाकों के किसानों से काफी बेहतर है। एमएसपी और बेहतर तरीके से चल रही मंडियाँ केंद्र की एक सुनियोजित योजना के तहत विकसित हुई हैं, जिसका उद्देश्य है देश में पहले खाद्य-उत्पादन के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता और उसके बाद अतिरिक्त अनाज भंडारण की स्थिति हासिल की जाए, ताकि साठ के मध्य-दशक जैसी स्थिति फिर पैदा न हो। यह स्थिति वृहत स्तर पर कुछ समय पहले हासिल की जा चुकी है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि देश में कुपोषण की स्थिति नहीं है।

क्यों नहीं हुई औद्योगिक क्रांति

खेती की आय बढ़ने से औद्योगिक-उत्पादों की माँग बढ़ी। जैसे कि ट्रैक्टर, कार, वॉशिंग मशीन वगैरह। ये चीजें उन राज्यों में तैयार होती हैं, जिन्होंने अपने यहाँ औद्योगिक हब तैयार कर लिए हैं। जैसे कि तमिल नाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक। संक्षेप में पंजाब में कृषि-क्रांति हुई, पर चूंकि उसके अनाज के लिए देश का बड़ा बाजार खुला हुआ था, इसलिए वह औद्योगिक-क्रांति की दिशा में नहीं बढ़ा।
एक अर्थव्यवस्था के भीतर एक प्रकार का भौगोलिक-विशेषीकरण होना चाहिए, जो प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता और जमीन की उर्वरता वगैरह से जुड़ा हो। जैसे की सहज रूप से खानें झारखंड में हैं। इसी धार पर पंजाब को हरित-क्रांति के लिए चुना गया था। इस बात की उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि हरेक राज्य, हरेक सामग्री के उत्पादन में कुशल होगा। पर पंजाब का मामला विस्मयकारी है। सवाल है कि ‘विकास’ की इकाई क्या हो?
Explained: Why are Punjab, Haryana farmers protesting in Delhi and what are their demands | India News | Zee News

सीमांत और छोटे किसान

कृषि-क्रांति से जो दूसरी परिघटना होती है, वह है खेती से मुक्त हुए मजदूरों को उद्योगों में लगाया जा सकता है। पर पंजाब में खास औद्योगीकरण नहीं हुआ। पंजाब ‘कृषि-प्रधान’ राज्य बना रहा और दुर्भाग्य से उसे इस बात पर गर्व है। बुनियादी तौर पर वर्तमान आंदोलन, औद्योगीकरण की कमी को व्यक्त कर रहा है। बिहार में भी औद्योगीकरण नहीं हुआ है, इसलिए वहाँ के सीमांत और छोटे किसान दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। पर पंजाब में इस वर्ग के लोग उतने गरीब नहीं हैं, जितने बिहार के प्रवासी हैं, पर वे उतने अमीर भी नहीं हैं, जितने पंजाब के किसान हैं।

नीतियों में ठहराव

कोई वजह नहीं है जो पंजाब को औद्योगिक-क्रांति से रोके। पर पंजाब की नीतियों में ठहराव है। जब तक किसानों को उनके अनाज की एमएसपी के सहारे उचित कीमत मिल रही है और लोग पर्याप्त संतुष्ट और सम्पन्न हैं, वहाँ की राज्य सरकार पर वर्षों से कुछ करने का दबाव नहीं है।
उम्मीद है कि वर्तमान संकट का संतोषजनक समाधान निकल आएगा, पर बुनियादी दरार बनी रहेगी। पंजाब में शहरी आबादी करीब 40 फीसदी है। वृहत स्तर पर औद्योगीकरण के सहारे यह संख्या बढ़नी चाहिए।
वर्तमान आंदोलन एक तरह से पंजाब के नीति-निर्धारकों को जगाने की कशिश है। भारतीय अर्थव्यवस्था खाद्य-संकट के स्तर से उबर कर कुछ फसलों में अतिरिक्त उपज के स्तर पर आ चुकी है। जाहिर है कि कोई भी सरकार हरेक उपज (यहाँ गेहूँ) के लिए खुली एमएसपी जारी नहीं रख सकती। वस्तुतः अस्सी के दशक में शरद जोशी और वीएम दांडेकर के बीच इसी इसी बिन्दु पर बहस थी।

बड़े किसान

कृषिः धान पर ध्यान - haryana and punjab trying to decrease land under paddy cultivation to cope underground water crisis - AajTak

कुछ बड़े किसान स्थायी सरकारी कर्मचारी की तरह बन चुके हैं और वे अपनी आय को सुरक्षित बनाकर रहना चाहते हैं- यह उनका अधिकार है। यह स्पष्ट नहीं है कि बीजेपी ने इन कानूनों को पास करने में जल्दबाजी क्यों की। भारत में आमतौर पर उम्मीद की जाती है कि सरकारें अलोकप्रिय बदलावों को खामोशी के साथ करती हैं, घोषणा करके नहीं करतीं।
बहरहाल सरकार को बफर स्टॉक बनाए रखने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए कुछ अनाज एमएसपी पर खरीदना होगा। इसलिए पंजाब में और इसी किस्म की खेती वाले दूसरे राज्यों में किसानों और सरकार को बीच का रास्ता खोजना होगा। इसके साथ ही जैसा कि दुनिया के दूसरे देशों में सरकारें करती हैं, सब्सिडी देनी होगी, पर निजी क्षेत्र के विस्तार को भी बढ़ावा देना होगा। बड़े किसानों की क्षमता है और वे गैर-गेहूँ, गैर-धान फसलों की ओर जा सकते हैं।

औद्योगीकरण मुश्किल नहीं

पंजाब का औद्योगीकरण मुश्किल नहीं है। वहाँ कानून-व्यवस्था की बेहतरीन स्थिति है। लोग उद्यमी, मेहनती, शिक्षित और स्वस्थ हैं। पंजाब को बांग्लादेश और वियतनाम से सीखना चाहिए और ऐसे औद्योगीकरण की ओर जाना चाहिए, जिसमें श्रमिकों की खपत हो। पंजाब ही नहीं पूरे देश को उनसे सीखने की जरूरत है। सरकार छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों की दिशा में काफी कुछ कर सकती है। इन्हीं उद्योगों को बड़ा बनने का मौका दिया जाए। पंजाब इस मामले में रास्ता दिखा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सौजन्य: जिज्ञासा)