डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
एक पत्रकार से अगर कोई पूछे कि आप स्वामी अखंडानंद के प्रवचन को रिपोर्ट करना चाहेंगे या फिर फलां-फलां डकैत के बारे में रिपोर्ट करना चाहेंगे। तो वह कहेगा कि मैं उस डकैत के बारे में रिपोर्ट करना चाहूंगा।
तो इसके पीछे उस पत्रकार की मानसिकता क्या है?
अखंडानंद जी के प्रवचन में शांति और अहिंसा के बातें सिखाई जाएंगी। उनमें पत्रकार की रूचि क्यों नहीं है?
ऐसा इसलिए है कि पत्रकार की बाहें हमेशा फड़फड़ा रही होती हैं किसी से पंगा लेने के लिए।
क्या आपने कभी अर्नब गोस्वामी या रवीश कुमार को या फिर बरखा दत्त को शांति और अहिंसा की कोई बात करते देखा है?
पत्रकार चाहे बिका हुआ हो या निष्पक्ष, उसकी बांहें हमेशा किसी न किसी से पंगा लेने के लिए फड़फड़ाती रहती हैं, हांलांकि आजकल निष्पक्ष पत्रकार मिलते कहां हैं? पत्रकार का पंगा लेने का यही गुण उसे पत्रकार बना देता है। सेलिब्रिटी भी बना देता है।
आजकल एजेंडा पत्रकारों की भीड़ है
आजकल एजेंडा पत्रकार बहुत से हो गए हैं। कुछ को किसी एक नेता या राजनीतिक दल में गुण ही गुण नजर आते हैं और कुछ को उनमें बुराई ही बुराई नजर आती है। ऐसे एजेंडा पत्रकार यह भूल जाते हैं कि हर आदमी जाने अनजाने में कुछ अच्छे और कुछ बुरे काम कर जाता है।
दूसरी बात एक और है। वह यह है कि आमतौर से अखबारों का पाठक और न्यूज़ चैनलों का दर्शक भी हिंसा मनोरंजन और सेक्स की खबरें पढ़ना और देखना पसंद करता है। उसे भी शांति और अहिंसा की खबरें नहीं चाहिए।
शांति से रहना चाहने वालों के लिए कॉलम
जो थोड़े से पाठक शांति से रहना चाहते हैं, उनके लिए आजकल अखबार एक छोटा सा कॉलम लगभग रोज छापते हैं। जैसे कि टाइम्स ऑफ इंडिया में Speaking Tree छपता है। हिंदू में Faith है। पहले हिंदू में इस कॉलम का नाम शायद Religion था। दैनिक हिंदुस्तान में इस कॉलम का नाम है ‘मनसा वाचा कर्मणा’। दैनिक जागरण में इसका नाम है ‘ऊर्जा’। लगभग हर जाना-माना हिंदी अखबार इस तरह का कोई न कोई कालम रोज छापता है। कुछ अखबारों में सप्ताह में एक दिन आध्यात्म पर एक या आधा पेज भी निकाला जाता है। पर इन कालमों के लेखकों का नाम अर्नब गोस्वामी, रवीश कुमार या बरखा दत्त नहीं है। और जनता जनार्दन भी शांति, अहिंसा, अध्यात्म और धर्म जैसे विषयों पर लिखने वालों को असली पत्रकार नहीं समझती है।
अरुण शौरी से एक सवाल
अरुण शौरी जब इंडियन एक्सप्रेस में थे, तब और उसके बाद भी कई सालों तक उन्हें एक सेलिब्रिटी पत्रकार के तौर पर जाना जाता था। अब तो तमाम लोग उनका सेलिब्रिटी स्टेटस भूल गए हैं। हालांकि अब भी वह इधर-उधर सक्रिय देखे जाते हैं। उन दिनों वह दिल्ली में चाणक्यपुरी के पास वेस्ट एंड कॉलोनी में रहते थे। मैं भी उनका फैन था। मैं उनके घर पर उनसे मिलने गया। वह धीरूभाई अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्री के खिलाफ बहुत कुछ लिख चुके थे। इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ भी लिखते थे। वह जाने-माने मैग्सेसे अवार्ड (Magsaysay Award) से भी पुरस्कृत हो चुके थे। यह पुरस्कार रवीश कुमार को भी मिल चुका है। अंबानी के खिलाफ अरुण शौरी की खबरें पढ़ने में वही आनंद आता था, जो कि आजकल अडानी के खिलाफ पढ़ने में बहुत से लोगों को आता है।
मैंने अरुण शौरी से पूछा था कि आप इंदिरा गांधी के खिलाफ, कांग्रेस शासन के खिलाफ लिखते रहते हैं परंतु अपने इलाके के पुलिस थाने के खिलाफ क्यों नहीं लिखते हैं? तब अरुण शौरीजी का जवाब था कि शिकार लोमड़ी का करना हो या शेर का, तो मैं शेर का शिकार करना पसंद करूंगा।
अरुण शौरीजी बहुत बड़े पत्रकार रहे हैं। उनके जवाब पर सभी को तालियां बजानी चाहिए।
लेकिन धीरे-धीरे मेरा अनुभव अब कुछ और है। मेरा अनुभव यह है कि प्रशासन में भ्रष्ट शेरों का मारा जाना उचित ही है, परंतु भ्रष्ट मच्छरों का मारा जाना भी बहुत जरूरी है। मच्छरों को मारना कोई आसान काम नहीं है। वे हर दवा का कोई न कोई तोड़ निकाल लेते हैं और असली प्रशासन वही चलाते हैं।
जो सेलिब्रिटी पत्रकार हैं वह हमेशा शेर मारने के ही चक्कर में रहते हैं। इसीलिए मच्छर कम नहीं हो रहे हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)