प्रदीप सिंह।
तमिल सिनेमा के सुपर स्टार रजनीकांत अब राजनीति में नहीं आएंगे। उन्होंने मंगलवार को घोषणा की कि वे राजनीतिक दल नहीं बना रहे। अपनी नई तमिल फिल्म ‘अन्नाथे’ की शूटिंग के दौरान पिछले शुक्रवार को उनकी तबियत खराब हो गई थी। इसे वे भगवान का संदेश मान रहे हैं। स्वास्थ्य के कारण से ही पहले भी इस बात पर शंका जाहिर की जा रही थी कि उनका राजनीति में आना शायद ही हो सके।
इन बातों की जानकारी पहले से थी उन्हें
रजनीकांत का चुनावी राजनीति में न आने का फैसला क्या समचमुच भगवान का संदेश है या वे राजनीति में न आने का बहाना तलाश रहे थे। इस सवाल के पीछे कई कारण हैं। पहला और तात्कालिक कारण तो यह है कि रजनीकांत सत्तर की उम्र पार कर चुके हैं। उनका स्वास्थ्य उन्हें बहुत ज्यादा शारीरिक श्रम की इजाजत नहीं देता। बताते हैं कि उनकी बेटी इस पक्ष में नहीं थी कि वे राजनीतिक दल बनाएं। उसका एकमात्र कारण उनके स्वास्थ्य की चिंता ही थी। पिछले दिनों जब रजनीकांत ने नये साल में राजनीतिक दल बनाने का इरादा जाहिर किया उस समय उन्हें इन बातों की जानकारी थी। केवल ब्लडप्रेशर असामान्य हो जाने या फिल्म यूनिट के चार सदस्यों के कोरोना पाजिटिव होने से परिस्थिति में ऐसा कोई बड़ा बदलाव नहीं आ गया था। फिर क्या हुआ।
कोई स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा नहीं
दरअसल रजनीकांत पिछले दो दशक से ज्यादा समय से राजनीति में आने की बात कर रहे हैं। वे बीच बीच में अपनी कुछ फिल्मों के जरिए भी ऐसे संकेत देते रहे हैं। तब से उनके समर्थकों को उनके राजनीति में आने का इंतजार है। ऐसे समर्थकों की उम्र भी बढ़ती जा रही है। इसके अलावा रजनीकांत के चाहने वाले अलग अलग राजनीतिक दलों के समर्थक/वोटर हैं। फिर रजनीकांत की कोई स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा भी नहीं है। वे राज्य के या राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादातर समय चुप ही रहे हैं। हाल के दिनों में उन्होंने केंद्र सरकार के नागरिकता संशोधन कानून और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने का समर्थन जरूर किया है।
राजनीति में कामयाबी की संभावना को बल
तमिल राजनीति के दो मिथक हैं, जिन्होंने रजनीकांत के राजनीति में आने और कामयाब होने की संभावना को बल दिया। पहला मिथक बना 1996 में। साल 1996 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में उन्होंने करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) का समर्थन किया था। यह पहला मौका था जब उन्होंने चुनाव में किसी राजनीतिक दल का खुल कर समर्थन किया हो। इससे पहले लोग अंदाजा ही लगाते रहते थे कि वे किस तरफ जाएंगे। नतीजा यह हुआ कि चुनाव में अन्ना द्रमुक का सफाया हो गया। इसकी राज्य और देश के राजनीतिक हलकों में खूब चर्चा हुई। मिथक बन गया कि रजनीकांत तमिलनाडु की राजनीति में जहां खड़े हो जाएंगे लाइन वहीं से शुरू होगी।
रजनीकांत ने भी इस मिथक को वास्तविकता मान लिया। उन्होंने साल 2004 के लोकसभा चुनाव में जयललिता की अन्ना द्रमुक और भाजपा के गठबंधन को वोट देने की अपील की। उस समय जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री थीं और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री। कहते हैं कि चुनाव और क्रिकेट मैच के नतीजे की भविष्यवाणी करना समझदारी कम और बेवकूफी ज्यादा होती है। सो हुआ। भाजपा अन्नाद्रमुक गठबंधन को लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली। रजनीकांत इस बार जहां खड़े हुए लाइन वहां से नहीं लगी। रस्सी जल गई पर बल नहीं गया की तर्ज पर मिथक टूट गया लेकिन मुगालता बना रहा।
लोकप्रिय स्टार होना सफलता की गारंटी!
तमिलनाडु की राजनीति में दूसरा मिथक काफी लम्बे समय से बना हुआ है। उसे गढ़ने में रजनीकांत की कोई भूमिका नहीं है। वह यह कि तमिल फिल्मों का बड़ा व लोकप्रिय स्टार होना राजनीति के क्षेत्र में सफलता की गारंटी है। उदाहरण एम जी रामचंद्रन(एमजीआर) और जयललिता का दिया जाता है। हालांकि करुणानिधि फिल्म स्टार की बजाय फिल्मों के पटकथा लेखक थे लेकिन राजनीति में सफल रहे। ऐसी धारणा बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि एमजीआर की राजनीतिक पहचान केवल उनके लोकप्रिय फिल्म कलाकार होने से नहीं बनी। इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका द्रविड़ आंदोलन से उनके जुड़ाव और प्रतिबद्धता की थी। अपनी फिल्मों के जरिए भी उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को ताकत देने का काम किया। जयललिता को लोगों ने लोकप्रिय सिने कलाकार से ज्यादा एमजीआर की राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा। द्रविड़ आंदोलन के प्रति करुणानिधि के समर्पण पर कभी कोई संदेह नहीं रहा। रजनीकांत के साथ ऐसा कुछ नहीं है।
एमजीआर, जयललिता और करुणानिधि के अलावा भी कई तमिल फिल्म अभिनेता राजनीति में आए। तमिल अभिनेता विजयकांत ने अपनी पार्टी देसिया मुरुपोक्कु द्रविड़ कषगम (डीएमडीके) बनाई और 2006 के विधानसभा चुनाव में आठ फीसदी वोट पाने में सफल रहे। पर बाद के चुनावों में वे इस समर्थन को बरकरार नहीं रख सके। इसी तरह सरथ कुमार, राजेन्दर, भाग्यराज और दो साल पहले कमल हसन से चुनावी कामयाबी दूर ही रही। इसलिए सफल फिल्म अभिनेता सफल राजनीतिज्ञ भी बन सकता है यह तमिलनाडु की राजनीति में भी मिथक ही है।
तमिल राजनीति में कोई खालीपन नहीं
रजनीकांत के राजनीतिक दल बनाने की खबरों के बीच एक और मिथक गढ़ा गया। कहा गया तमिलनाडु की राजनीति में नेतृत्व के स्तर पर पहली बार इतना बड़ा खालीपन आया है। राज्य की राजनीति पर दशकों तक प्रभाव रखने वाले दो नेता जयललिता और करुणानिधि अब नहीं हैं। रजनीकांत उनकी जगह बखूबी भर सकते हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में एम के स्टालिन के नेतृत्व वाले गठबंधन ने राज्य की 39 में से 38 लोकसभा सीटें जीतीं। उसी समय हुए विधानसभा की 22 सीटों के उपचुनाव में अन्ना द्रमुक ने पार्टी में दो फाड़ के बावजूद नौ सीटें जीत लीं। इसलिए जमीनी सचाई यह है कि तमिल राजनीति में कोई खालीपन नहीं है जिसे रजनीकांत भर सकें। वे राजनीति में आते तो उन्हें अपनी जगह बनानी पड़ती।
बूढ़े होते समर्थक
राजनीतिक खालीपन की थ्योरी को ज्यादा हवा दी तुगलक के सम्पादक और स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक रहे गुरुमूर्ति ने। उनके मुताबिक तमिलनाडु की राजनीति में तीस फीसदी लोग द्रमुक विरोधी हैं और तीस फीसदी लोग अन्ना द्रमुक के। ऐसे में रजनीकांत अपनी पार्टी बनाते हैं तो उनको ये साठ फीसदी वोट मिल सकते हैं। अब यह एक ऐसी थ्योरी है जिसको किसी भी राज्य की राजनीति पर चस्पा किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में अंकगणित से ज्यादा केमिस्ट्री काम करती है। यहां दो और दो चार बहुत ही कम होते हैं। उनके तीन और पांच होने की संभावना ज्यादा रहती है। इन सब बातों के अलावा रजनीकांत के लिए अपने बूढ़े होते समर्थकों को पार्टी कैडर में बदलना बहुत ही दुरह कार्य था। खासतौर से उनकी उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए।
उससे पहले वे खुद बदल गए
अपनी हालिया बीमारी को रजनीकांत ने राजनीति में न आने का भगवान का संकेत बताया है। पर वास्तविकता तो यह है कि राजनीति में आने का उनका समय बीस साल पहले निकल गया था। फिल्मी डायलाग बोलना बहुत आसान है, करना अत्यंत कठिन। जनवरी में नई पार्टी की योजना बताते समय उन्होंने एक जुमला उछाला था- ‘हम सब कुछ बदल देंगे।‘ वे सब कुछ बदलने की शुरुआत कर पाते उससे पहले हुआ यह कि वे खुद बदल गए। राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है। यह भावनाओं की परवाह नहीं करती।