डॉ. राममनोहर लोहिया।
कृष्‍ण संपूर्ण पुरुष थे। उनके चेहरे पर मुस्‍कान और आनंद की छाप बराबर बनी रही और खराब से खराब हालत में भी उनकी आँखें मुस्‍कराती रहीं। चाहे दु:ख कितना ही बड़ा क्‍यों न हो, कोई भी ईमानदार आदमी वयस्‍क होने के बाद अपने पूरे जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं रोता। राम अपने पूरे वयस्‍क जीवन में दो या शायद केवल एक बार रोए। राम और कृष्‍ण के देश में ऐसे लोगों की भरमार है जिनकी आँखों में बराबर आँसू डबडबाए रहते हैं और अज्ञानी लोग उन्‍हें बहुत ही भावुक आदमी मान बैठते हैं। एक हद तक इसमें कृष्‍ण का दोष है। वे कभी नहीं रोए। लेकिन लाखों को आज तक रुलाते रहे हैं। जब वे जिंदा थे, वृंदावन की गोपियाँ इतनी दु:खी थीं कि आज तक गीत गाए जाते हैं :

निसि दिन बरसत नैन हमारे, कंचुकि पट सूखत कबहूँ उर बिच बहत पनारे।
उनके रुदन में कामना की ललक भी झलकती है लेकिन साथ ही साथ इतना संपूर्ण आत्‍मसमर्पण है कि स्‍व का कोई अस्तित्‍व नहीं रह गया हो। कृष्‍ण एक महान प्रेमी थे जिन्‍हें अद्भुत आत्‍मसमर्पण मिलता रहा और आज तक लाखों स्‍त्री-पुरुष और स्‍त्री वेश में पुरुष, जो अपने प्रेमी को रिझाने के लिए स्त्रियों जैसा व्‍यवहार करते हैं, उनके नाम पर आँसू बहाते हैं और उनमें लीन होते हैं। यह अनुभव कभी-कभी राजनीति में आ जाता है और नपुंसकता के साथ-साथ जाल-फरेब शुरू हो जाता है।

Guiding Light: Demystifying Lord Krishna

जन्‍म से मृत्‍यु तक कृष्‍ण असाधारण, असंभव और अपूर्व थे। उनका जन्म अपने मामा की कैद में हुआ जहाँ उनके माता व पिता, जो एक मुखिया थे, बंद थे। उनसे पहले जन्‍मे भाई और बहन, पैदा होते ही मार डाले गए थे। एक झोली में छिपा कर वे कैद से बाहर ले जाए गए। उन्‍हें जमुना के पार ले जा कर सुरक्षित स्‍थान में रखना था। गहराई ने गहराई को खींचा, जमुना बढ़ी और जैसे-जैसे उनके पिता ने झोली ऊपर उठाई जमुना बढ़ती गई, जब तक कि कृष्‍ण ने अपने चरण कमल से नदी को छू नहीं लिया। कई दशकों के बाद उन्‍होंने अपना काम पूरा किया। उनके सभी परिचित मित्र या तो मारे गए या बिखर गए। कुछ हिमालय और स्‍वर्ग की ओर महाप्रयाण कर चुके थे। उनके कुनबे की औरतें डाकुओं द्वारा भगाई जा रही थीं। कृष्‍ण द्वारिका का रास्‍ता अकेले तय कर रहे थे। विश्राम करने वह थोड़ी देर के लिए एक पेड़ की छाँह में रुके। एक शिकारी ने उनके पैर को हिरन का शरीर समझ कर बाण चलाया और कृष्‍ण का अंत हो गया। उन्‍होंने उस क्षण क्‍या किया? क्‍या उनकी अंतिम दृष्टि करुणामयी मुस्‍कान के साथ, जो समझ से आती है, शिकारी पर पड़ी? क्‍या उन्‍होंने अपना हाथ बाँसुरी की ओर बढ़ाया जो अवश्‍य ही पास में रही होगी? और क्‍या उन्‍होंने बाँसुरी पर अंतिम दैवी आलाप छेड़ा? या मुस्‍कान के साथ हाथ में बाँसुरी ले कर ही संतुष्‍ट रहे? उनके दिमाग में क्‍या-क्‍या विचार आए? जीवन के खेल जो बड़े सुखमय, यद्यपि केवल लीला मात्र थे, या स्‍वर्ग से देवताओं की पुकार, जो अपने विष्‍णु के बिना अभाव महसूस कर रहे थे?

कृष्‍ण चोर, झूठे, मक्‍कार और खूनी थे। और वे एक पाप के बाद दूसरा पाप बिना रत्‍ती भर हिचक के करते थे। उन्‍होंने अपनी पोषक माँ का मक्‍खन चुराने से ले कर दूसरे की बीवी चुराने तक का काम किया। उन्‍होंने महाभारत के समय में एक ऐसे आदमी से आधा झूठ बुलवाया जो अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला था। उनके अपने झूठ अनेक हैं। उन्‍होंने सूर्य को छिपा कर नकली सूर्यास्‍त किया ताकि उस गोधूलि में एक बड़ा शत्रु मारा जा सके। उसके बाद फिर सूरज निकला। वीर भीष्‍म, पितामह के सामने उन्‍होंने नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर दिया ताकि वे बाण न चला सकें, और खुद सुरक्षित आड़ में रहे। उन्‍होंने अपने मित्र की मदद स्‍वयं अपनी बहन को भगाने में की।

लड़ाई के समय पाप और अनुचित काम के सिलसिले में कर्ण का रथ एक उदाहरण है। निश्‍चय ही कर्ण अपने समय में सेनाओं के बीच सबसे उदार आदमी था, शायद युद्धकौशल में भी सबसे निपुण था, और अकेले अर्जुन को परास्‍त कर देता। उसका रथ युद्धक्षेत्र में फँस गया। कृष्‍ण ने अर्जुन से बाण चलाने को कहा। कर्ण ने अनुचित व्‍यवहार की शिकायत की। इस समय महाभारत में एक अपूर्व वक्‍तृता हुई जिसका कहीं कोई जोड़ नहीं, न पहले न बाद में। कृष्‍ण ने कई घटनाओं की याद दिलाई और हर घटना के कवितामय वर्णन के अंत में पूछा, ”तब तुम्‍हारा विवेक कहाँ था?” विवेक की इस धारा में कम से कम उस दौरान विवेक और आलोचना का दिमाग मंद पड़ जाता है। द्रौपदी का स्‍मरण हो आता है कि दुर्योधन के भरे दरबार में कैसे उसकी साड़ी उतारने की कोशिश की गई। वहाँ कर्ण बैठे थे और भीष्‍म भी, लेकिन उन्‍होंने दुर्योधन का नमक खाया था। यह कहा जाता है कि कुछ हद तक तो नमक खाने का असर जरूर होता है और नमक का हक अदा करने की जरूरत होती है। कृष्‍ण ने साड़ी का छोर अनंत बना दिया क्‍योंकि द्रौपदी ने उन्‍हें याद किया। उनके रिश्‍ते में कोमलता है, यद्यपि उसका वर्णन नहीं मिलता है।

Krishna in the Mahabharata - Wikipedia

कृष्‍ण के भक्‍त उनके हर काम के दूसरे पहलू पेश करके सफाई करने की कोशिश करते हैं। उन्‍होंने मक्‍खन की चोरी अपने मित्रों में बाँटने के लिए की। उन्‍होंने चोरी अपनी माँ को पहले तो खिझाने और फिर रिझाने के लिए की। उन्‍होंने मक्‍खन बाल-लीला के रूप को दिखाने के लिए चुराया, ताकि आनेवाली पीढ़ियों के बच्‍चे उस आदर्श-स्‍वप्‍न में पलें। उन्‍होंने अपने लिए कुछ भी नहीं किया, या माना भी जाए तो केवल इस हद तक कि जिनके लिए उन्‍होंने सब कुछ किया वे उनके अंश भी थे। उन्‍होंने राधा को चुराया, न तो अपने लिए और न राधा की खुशी के लिए, बल्कि इसलिए कि हर पीढ़ी की अनगिनत महिलाएँ अपनी सीमाएँ और बंधन तोड़ कर विश्व से रिश्ता जोड़ सकें। इस तरह की हर सफाई गैर-जरूरी है। दुनिया के महानतम ग्रथ भगवद्गीता के रचयिता कृष्‍ण को कौन नहीं जानता? दुनिया में हिंदुस्‍तान एक अकेला देश है जहाँ दर्शन को संगीत के माध्‍यम से पेश किया गया है, जहाँ विचार बिना कहानी या कविता के रूप में परिवर्तित हुए गाए गए हैं। भारत के ऋषियों के अनुभव उपनिषदों में गाए गए हैं। कृष्‍ण ने उन्‍हें और शुद्ध रूप में निथारा। यद्यपि बाद के विद्वानों ने एक और दूसरे निथार के बीच विभेद करने की कितनी ही कोशिश की है। कृष्‍ण ने अपना विचार गीता के माध्‍यम से ध्‍वनित किया।

उन्‍होंने आत्‍मा के गीत गाए। आत्‍मा को न माननेवाले भी उनके शब्‍द चमत्‍कार में बह जाते हैं जब वह आत्‍मा को अनश्‍वर, जल और समीर की पहुँच से बाहर तथा शरीर बदले जानेवाले परिधान के रूप में वर्णन करते हैं। उन्‍होंने कर्म के गीत गाए और मनुष्‍य को, फल की अपेक्षा किए बिना, और उसका माध्‍यम या कारण बने बिना, निर्लिप्‍तता से कर्म में जुटे रहने के लिए कहा। उन्‍होंने समत्‍व, सुख और दु:ख, जीत या हार, गर्मी और सर्दी, लाभ या हानि और जीवन के अन्‍य उद्वेलनों के बीच स्थिर रहने के गीत गाए। हिंदुस्‍तान की भाषाएँ एक शब्‍द ‘समत्‍वम्’ के कारण बेजोड़ हैं, जिससे समता की भौतिक परिस्थितियों और आंतरिक समता दोनों का बोध होता है। इच्‍छा होती है कि कृष्‍ण ने इसका विस्‍तार से बयान किया होता। ये एक सिक्‍के के दो पहलू हैं – समता समाज में लागू हो और समता व्‍यक्ति का गुण हो, जो अनेक में एक देख सके। भारत का कौन बच्‍चा विचार और संगीत की जादुई धुन में नहीं पला है! उनका औचित्‍य स्‍थापित करने की कोशिश करना उनके पूरे लालन-पालन की असलियत से इनकार करना है। एक मानी में कृष्‍ण आदमी को उदास करते हैं। उनकी हालत बिचारे हृदय की तरह है जो बिना थके अपने लिए नहीं बल्कि निरंतर दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है। ह्रदय क्‍यों धड़के या दूसरे अंगों की आवश्‍यकता पर क्‍यों मजबूती या साहस पैदा करे? कृष्‍ण ह्रदय की तरह थे लेकिन उन्‍होंने आगे आनेवाली हर संतान में अपनी तरह होने की इच्‍छा पैदा की है। वे उस तरह के बन न सकें लेकिन इस प्रक्रिया में हत्‍या और छल करना सीख जाते हैं।

राम और कृष्‍ण पर तुलनात्‍मक दृष्टि डालने पर विचित्र बात देखने में आती है। कृष्‍ण हर मिनट में चमत्‍कार दिखाते थे। बाढ़ और सूर्यास्‍त आदि उनकी इच्‍छा के गुलाम थे। उन्‍होंने संभव और असंभव के बीच की रेखा को मिटा दिया था। राम ने कोई चमत्‍कार नहीं किया। यहाँ तक कि भारत और लंका के बीच का पुल भी एक-एक पत्‍थर जोड़ कर बनाया। भले ही उसके पहले समुद्र-पूजा की विधि करनी और बाद में धमकी देनी पड़ी। लेकिन दोनों के जीवन की संपूर्ण कृतियों की जाँच करने और लेखा मिलाने पर पता चलेगा कि राम ने अपूर्व चमत्‍कार किया और कृष्‍ण ने कुछ भी नहीं। एक महिला के साथ दोनों भाइयों ने अयोध्‍या और लंका के बीच 2,000 मील की दूरी तय की। जब वे चले तो केवल तीन थे, जिनमें दो लड़ाई और एक व्‍यवस्‍था कर सकते थे। जब वे लौटे, एक साम्राज्‍य बना चुके थे। कृष्‍ण ने सिवा शासक वंश की एक शाखा से दूसरी को गद्दी दिलाने के और कोई परिवर्तन नहीं किया। यह एक पहेली है कि कम से कम राजनीति के दायरे में मर्यादा पुरुष महत्‍वपूर्ण और सार्थक, और उन्‍मुक्‍त या संपूर्ण पुरुष छोटा और निरर्थक साबित हुआ। यह काल की पहेली के समान ही है। घटनाहीन जीवन में हर क्षण भार बन जाता है और बर्दाश्‍त के बाहर लंबा लगता है। लेकिन एक दशक या एक जीवन में उसका संकलित विचार करने से सहज और जल्‍दी बीता हुआ लगता है। उत्‍तेजना के जीवन में एक क्षण मोहक लगता है और समय इच्‍छा के विपरीत तेजी से बीतता लगता है। पर साल-दो साल बाद पुनर्विचार करने पर भारी और धीर-धीरे बीता हुआ लगता है। मर्यादा के सर्वोच्‍च पुरुष, मर्यादा पुरुषोत्‍त्‍म राम ने राजनैतिक चमत्‍कार हासिल किया। पूर्णता के देव कृष्‍ण ने अपनी कृतियों से विश्‍व को चकाचौंध किया, जीवन के नियम सिखाए, जो किसी और ने नहीं किया था लेकिन उनके संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व की राजनैतिक सफलता ठोस होने के बजाय बुलबुले जैसी है।

गांधी राम के महान वंशज थे। आखिरी क्षण में उनकी जबान पर राम का नाम था। उन्‍होंने मर्यादा पुरुषोत्‍तम के ढाँचे में अपने जीवन को ढाला और देशवासियों का भी आह्वान किया। लेकिन उनमें कृष्‍ण की एक बड़ी और प्रभावशाली छाप दीखती है। उनके पत्र और भाषण, जब रोज या साप्‍ताहिक तौर पर सामने आते थे, तो एकसूत्रता में पिरोए लगते थे। लेकिन उनकी मृत्‍यु के बाद उन्‍हें पढ़ने पर विभिन्‍न परिस्थितियों में अर्थ और रुख परिवर्तन की नीति-कुशलता और चतुराई का पता चलता है। द्वारिका ने मथुरा का बदला चुकाया। द्वारिका का पूत जमुना के किनारे मारा और जलाया गया। हजारों साल पहले जमुना का पुत्र द्वारिका के पास मारा और जलाया गया था। लेकिन द्वारिका के यह पुत्र मर्यादा पुरुषोत्‍तम की ओर अभिमुख थे जो अपने जीवन को अयोध्‍या के ढाँचे में ढालने में बहुलांश में सफल भी हुए। फिर भी वह दोनों के विचित्र और बेजोड़ मिश्रण थे। (जारी)
(अंग्रेजी मासिक मैनकाइंड, अगस्त 1955 से अनूदित/ सौजन्य महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)