जिन्होंने शताब्दी भर के रचनात्मक समय की धड़कनों को पास से सुना

डॉ ओम निश्चल।

15 अगस्त, 1924 को गोरखपुर के डुमरी गांव में जन्मे रामदरश मिश्र आज एक जाने माने कवि-कथाकार-गद्य लेखक एवं आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आज से कोई सात दशक पहले गीतों का एक झोंका पूरब से आया था। पथ के गीत (1951) में एक नई खुशबू, नई संवेदना थी जो गांव को अपने भीतर आत्मसात किए हुए अपने गीतों की ललित बंदिशों से मोहती थी। माने ना बादरवा बरसे- और बार बार बांसुरी बजाओ ना पिया। लहरों के पार से बुलाओ न पिया- जैसे मोहक गीत बुनने वाले रामदरश मिश्र तब सरस्वतती की देहरी पर खड़े जैसे उसका आंगन बुहार रहे थे। उनकी ही कृपा कि प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ते हुए ही जब वे किसी कविता या बालगीत से गुजरते, उनके बाल मन में भी कविताएं फूटने लगतीं। गांव के मिडिल स्कूल से लेकर ढरसी के विद्यालय तक पहुंच कर कविता की थोडी थोडी पहचान उन्हें होने लगी थी। तब से अब तक के लगभग सात दशकों में उनसे शायद ही कोई विधा छूटी हो। विधाओं की पारस्प्रिकता को उन्होंने न केवल जिया बल्कि ऐसी कोई हदबंदी अपने निकट नहीं बनने दी कि अमुक विधा साहित्य में किसी से कमतर है।

दिल्ली के स्थायी निवासी बनने तक का सफर

रामदरश मिश्र की प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राइमरी -मिडिल स्कूल में हुई। उस स्कूल से हिंदी और उर्दू मिडिल उत्तीर्ण कर ‘विशेष योग्यता’ की पढ़ाई के लिए गांव से दस मील दूर ढरसी गांव में गए। वहां पंडित रामगोपाल शुक्ल विशेष योग्यता का अध्यापन करते थे। विशेष योग्यता उत्तीर्ण करने के पश्चात मिश्र जी ने बरहज से विशारद और साहित्य रत्न की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। तत्पश्चात अंग्रेजी की पढ़ाई से भी जुड़े तथा 1947 में मैट्रिक के लिए वाराणसी आए और वाराणसी के एक स्कू्ल से बीएचयू की एडमिशन परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद से बीएचयू के छात्र बन गए और यहां से इंटरमीडियट, बी.ए., एम.ए. की परीक्षाएं पास कीं और वहीं से पीएच.डी का शोधकार्य संपन्न किया। साहित्यिक गहमा गहमी के उन बीते दिनों को वे आज भी याद करते हैं जहां शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह, नामवर सिंह, बच्चन सिंह, शिवप्रसाद सिंह, त्रिलोचन जैसे कवियों लेखकों का एक सुपरिचित समवाय था। बनारस से 1956 में पीएचडी की तालीम हासिल करने के बाद वे गुजरात के एमएस युनिवर्सिटी बड़ौदा सहित एकाधिक कालेजों (सेंट जेवियर कालेज, अहमदाबाद, एस बी जार्ज कालेज, भवसारी) में अध्यापन से जुड़े रहे। तदुपरांत 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ गए तथा दिल्ली के स्थायी निवासी बन गए। 1990 में दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद तो उनकी लेखनी और परवान चढ़ी तथा रचना सतत उनका पाथेय बनती गयी।

कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, यात्रावृत्ति, निबंध, डायरी, आत्मकथा आदि विधाओं में उनकी सौ से ज्यादा कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और भारत भारती, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मापन एवं साहित्यक अकादेमी सहित अनेक वरेण्यक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं तथा सरस्व्ती सम्मान के लिए चुने गए हैं। लगभग सात दशकों के रचनात्मक संसार में रमते हुए वे आज भी सरस्वती की साधना में तल्लीन दिखते हैं।

किसी एक विधा से नहीं बंधे

बनारस जाने पर वे नई कविता तथा नव लेखन के नए आयामों से परिचित हुए तथा नई कविता के पथ पर वे अग्रसर हुए। बैरंग बेनाम चिट्ठियां तथा पक गई है धूप में नई कविता का तेवर और स्थापत्य था जिसका निर्वाह वे आज तक कर रहे हैं। पुराणमित्ये व न साधु सर्वम् की अवधारणा को मानने वाले रामदरश जी का न तो प्राचीन से मोहासक्तिर है न आधुनिक-अत्याधुनिक से दूरी। जीवन से जुड़े सारे उपक्रम उनके लेखन को उर्वर बनाते हैं। इसी तरह विधाओं से उनका कोई पूर्वग्रह नहीं है। वे किसी एक विधा से बंधे हुए रचनाकार न थे- अनेक विधाएं उन्हें धीरे धीरे आकर्षित कर रही थीं। कविता में उन्होंने डेढ़ दर्जन से ज्यादा कृतियां दीं तो ग़ज़लों के भी कई संग्रह आए। हँसी होठ पर आंखें नम हैं; तू ही बता ऐ ज़िन्दगी; सपना सदा पलता रहा; हवाएं साथ हैं और दूर घर नहीं हुआ। कहना चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल को उन्होंने कविता की एक महत्वापूर्ण शैली जैसी ही गरिमा दी। सातवें दशक में वे कहानी और उपन्यास रचना की ओर मुड़े तथा पानी के प्राचीर से इस दुनिया में प्रवेश किया। यह आंचलिक उपन्यासों का दौर था। यह उपन्यास उनके कथा संसार में पहला बड़ा औपन्यासिक हस्तक्षेप माना गया जो 1969 में आया। उसके थोड़े ही दिनों बाद आए उपन्यास जल टूटता हुआ ने उन्हें कथा लेखन में व्यापक ख्याति दी। इसी के साथ उनकी कहानियों का सफर शुरु हुआ। अनेक कहानी संग्रह कविता संग्रहों, उपन्यासों के साथ आते रहे। नवें दशक में गुजरात के अनुभवों पर आया उनका उपन्यास दूसरा घर उनके औपन्यासिक लेखन का एक दूसरा बड़ा मोड़ साबित हुआ। जिस आंचलिकता का पथ रेणु जैसे कथाकार पहले ही प्रशस्त कर चुके थे उसे अपने उपन्यासों में रामदरश मिश्र ने एक नई संगति दी। जल टूटता हुआ इसकी एक जबर्दस्त रचनात्मक परिणति थी। अपने लोग में उनका अपनापन एक ऐसे व्यक्ति के लिए जागता है जो प्रतिभाशाली होते हुए भी उपेक्षा का शिकार बनता है और विक्षिप्ति और पागलपन के कारण विस्मृति के नेपथ्य में डाल दिया जाता है।

सन् 1940 में उनकी पहली कविता ‘चांद’ सरयूपारीण पत्रिका में छपी थी। तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। कविताएं लिखी जाती रहीं। पथ के गीत के बाद उन्होंने कविता में अपना रास्ता बदला, नए भावबोध से उनका रचनासंसार जुड़ता गया और कविता-कथा-उपन्यांस सबमें उनकी रचनात्माक त्वरा देखते ही बनती थी। उन्हें पुरस्कारों के लिए लंबी प्रतीक्षाएं अवश्य करनी पड़ीं। संयोग ही है कि उनके कई प्रारंभिक उपन्यास बड़े से बड़े पुरस्कार के मानक पर खरे उतरने के बावजूद लगभग सारे प्रतिष्ठित सम्मान कविता लेखन पर मिले। वे कहते भी हैं कि लिखा तो मैंने अनेक विधाओं में है पर कविता और कथा दोनों ही मेरी केंद्रीय विधाएं हैं। कवि मदनेश के साहचर्य में रहते हुए कैशोर्य में छंद-रस-अलंकार आदि में उन्होंने अपना हाथ मांजा तो बनारस आकर साहित्य की नई रचना शैलियों में दीक्षित हुए तथा छायावादी केंचुल उतार फेंक कर नए स्थांपत्य की कविताएं लिखने लगे। आगे चल कर यथार्थवादी संसार और ग्राम्ये जगत की पेचीदगियों को उन्होंने अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया। पठनीयता का आकर्षण यह कि उनकी कहानियां प्रेमचंद जैसे कथाकार की कहानियों की तरह ही पठनीय हैं। खाली घर, बसंत का एक दिन, आज का दिन भी, फिर कब जाएंगे, अकेला मकान, एक वह, अपने लिए, विदूषक, दिन के साथ, विरासत, अतीत का विष व इस बार होली में जैसे कहानी संग्रह उनकी कथायात्रा के स्तंभ हैं।

भीतर से गांव नहीं गया

लगभग अट्ठावन साल के दिल्ली प्रवास और इससे पहले लगभग 7 साल अहमदाबाद, नवसारी व गुजरात प्रवास के बावजूद उनके भीतर से गांव नहीं गया। वह बार बार उनकी रचनाओं में आता रहा। इस बात को एक मुक्तक में लिखते हुए वे कहते हैं-

‘कविता का घना प्रभाव रहा/ पैसे का सदा अभाव रहा/ रहने को रहा शहर में वह/  पर उसमें उसका गांव रहा।‘

कविता ने उन्हें बहुत कुछ दिया। कवि का यश दिया। पुरस्कार दिए। सम्मान मिले। सरस्वती सम्मान से पुरस्कृत कृति की कविता ‘आभारी हूँ कविते!’ जैसे उनके पूरे कवि जीवन की कृतज्ञता का ज्ञापन है। वे कहते हैं-

तुमने मुझे कितना कुछ दिया/ मेरी कविते! जो बीत गया, वह भी मुझमें जीवित है तुम्हारे सहारे/ आज के जलते समय में भी/ मेरा मन पा लेता है कोई घनी छांह/ और मनुष्यता के प्रति मरता हुआ विश्वास/ फिर-फिर जी उठता है। (मैं तो यहां हूँ)

आलोचनात्मक लेखन

रामदरश मिश्र का सर्जनात्मक फलक सुविस्तृत होने के कारण उनके आलोचनात्मक विवेचनात्मक लेखन पर कम ध्यान गया है पर वे साहित्य के गए सात दशकों के बहुत ही सघन अध्येता रहे हैं तथा समय समय पर कथा-कविता, उपन्यास के परिदृश्य पर अपनी समीक्षात्मक कलम चलाई है। विभिन्न विधाओं की रचना करते हुए भी वे हिंदी उपन्यास, हिंदी कहानी, हिंदी कविता, छायावाद व आधुनिक कविता के विभिन्न सर्जनात्मक संदर्भों पर लिखते रहे। उनकी आलोचनात्मक पुस्तकों में ‘साहित्य, संदर्भ और मूल्य’, ‘हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा’, ‘हिंदी कहानी: अंतरंग पहचान’, ‘हिंदी कविता: आधुनिक आयाम’, ‘छायावाद का रचनालोक’ व ‘आधुनिक कविता: सृजनात्मक संदर्भ’ हिंदी आलोचना में एक मानक स्थान रखती हैं।

लगभग डेढ़ दर्जन कविता संग्रह, 15 उपन्यास, कई कहानी संग्रह व प्रभूत गद्यलेखन के स्वामी रामदरश मिश्र की रचनावली 14 खडों में आज से दो दशकों पहले आ चुकी है तथा इसमें भी अब तक के लेखन के कई खंड और जुड़ेंगे- जुड़ते रहेंगे। उन्होंने बरसों पहले अपनी रचनावली प्रकाशित कर इस मिथ्या अवधारित मिथक को भी तोड़ा कि रचनावलियों को लेखक के अवसान के बाद आना चाहिए।

बीती और वर्तमान शती के साक्षी रचनाकार

रामदरश मिश्र संप्रति हिंदी विश्व के प्रतिष्ठित लेखकों में एक हैं। बीती और वर्तमान शती के साक्षी रचनाकार हैं। देश-दुनिया की राजनीति, संस्कृति, समाज, कला व साहित्य में होने वाले सतत बदलावों के द्रष्टा रहे हैं तथा साहित्य की अनेक विधाओं में मनुष्य के सुख दुख की कथा कही है। कविता भी तो एक तरह से मानवीय दुख दर्द की सूक्ष्म कथा ही है। क्योंकि कविता का जन्म मूलत: कहानी कहने के लिए ही हुआ था। हमारे पुरा ग्रंथ इसके साक्ष्य हैं। इस चिर रहस्यवादी संसार को अनेक कोणों से जानने में लगी मानवीय शक्तियों में लेखक व कवि की सत्ता अहम होती है। वही है जो कहता है: ‘अपारे काव्योसंसारे कविरेव:प्रजापति:।‘ हिंदी को अपनी रचनात्मकता का सत्व-तत्व सौंपने वाले रामदरश जी की लेखनी अपने समय के संघर्ष, स्वप्न: और सौंदर्य को सतत रचती रहे, यही कामना है।

(लेखक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं)