सत्यदेव त्रिपाठी।
आज पुनः जमाने बाद रामनवमी के दिन गांव के घर रहने का अवसर बना। पिछले साल इस वक्त कोरोना की तालेबंदी थी, आतंक इस बार भी है।
वैज्ञानिकों- अनुसंधानकों के अध्ययन के निष्कर्ष की पूरे गांव में जम के हंसी उड़ रही है। कहा गया था कि जाड़े में बढ़ेगा, गर्मी में शांत होगा, पर हो उल्टा रहा है। बड़े बुजुर्ग बता रहे हैं कि यह तो ब्राह्मणों के अगर्पोपों (भविष्य कथन) वाला हाल है। वे जब बरसात बताते थे, सूखा पड़ता था। अब न उनकी कोई सुनता, न उनसे कोई पूछता। यही हाल इनका भी होगा।
कोरोना… नेताओं का ब्लफ
हमारी बगल में यदुवंशियों का बहुत बड़ा गांव मैनपुर है। वहां आज भी कोरोना को नेताओं का ब्लफ माना जाता है। उनके लिए कोरोना है ही नहीं और उनकी सारी लंतरानियों के बावजूद वहां किसी को कोरोना हुआ नहीं। हुआ तो मेरे गांव में भी नहीं। सो, इस बार ज्यादा धूमधाम से मन रही रामनवमी।
कॉन्वेंटी तार्किकता
शहर से आये मेरे कॉन्वेंटी पोते ने पूछा- रामनवमी का मतलब क्या होता है? क्यों मनाया जाता है यह? मैंने बता दिया- इसी दिन राम पैदा हुए थे। सुना दिया तुलसी का लिखा – ‘नौमी तिथि मधुमास पुनीता। सुक्ल पच्छ अभिजित हरि प्रीता’।
सुनकर उसने पूछा- तो राम की पूजा न होकर देवी की पूजा क्यों होती है? मान गया कॉन्वेंटी तार्किकता को… हम देसी स्कूल वालों के ख्याल में आज तक यह नहीं आया।
लखन काका गन-गन कांपने लगते
सोचने लगा, तो याद आया कि बचपन में हम तीन घर ब्राह्मण तीन देवताओं के थाने (स्थाने) नवरात्र भर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। मुम्बई जाने के पहले दो-तीन सालों मैंने भी पाठ किया था। नवमी को काली माई के चौरे पर हवन होता था। पूरा गांव जुटता था। देवी मंत्र से हवन होता था। होता होते थे जनेऊधारी घरों के एक एक पुरुष। लखन सिंह काका मुख्य होता होते थे। उनके सिर पर देवी की सवारी होती थी। उस वक्त हम लोग दुर्गा सप्तशती का वह अध्याय पढ़ने लगते थे- या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तैस्यै नमो नमः। शक्ति के बदले विद्या-क्षुधा-भ्रान्ति…. आदि शब्द आते रहते हैं- श्लोक चलता रहता है। उधर लखन काका गन-गन कांपने लगते थे। दो-चार लोग उन्हें पकड़ते थे, फिर भी वे वश में न आते। हवन की आग उठाकर अपने सर-हाथ-पेट… आदि अंगों पर फेंकने लगते थे। उस वक्त गांव के अगले साल के भविष्य को लेकर सवाल पूछे जाते थे- पानी बरसेगा या सूखा पड़ेगा? फसलें अच्छी होंगी या नहीं? हारी-बीमारी आएगी गांव में या नहीं। और सभी लोग लखन काका के सर चढ़ी देवी से करबद्ध प्रार्थना करते थे- सर नवाते थे कि वह गांव की रक्षा करे। वही तो सबकी मां है, रक्षक है।
मातृ पूजा का महीना
अभी याद आ रहा कि गुजरात में भी ऐसी पूजा होती है। दो साल पहले की देश की सर्वोत्तम फ़िल्म के रूप में पुरस्कृत गुजराती फ़िल्म ‘हेल्लारो’ उसी पूजा पर समाप्त होती है।
अब कैसे बताऊं कॉन्वेंटी पोते को कि पूरे देश में यह मातृ पूजा का महीना होता है। चैत्र से गर्मी शुरू होती है। पुराकाल में कोई साधन थे नहीं। सो, चेचक-हैजा आदि बीमारियां फैलती थीं। लोग मरते थे। रक्षा के विधान धर्म व लोक के तरह तरह के विश्वास-अंधविश्वास से बने थे। गांव की पूजा धर्म के विधान से होती और लोक विधान में माली आता। फूल-माला बनाने-बेचने वाली जाति माली देवी के पूजक व गांव के रक्षक कैसे हो गये, पता नहीं। पर इसी नवरात्र में वह भी आता। आधी रात को। पूरे गांव के हर घर से एक एक आदमी या औरत थाली में उसके बताये पूजा के सामान लेके जाता। वह सबकी रक्षा के लिए कोई अनुष्ठान करता। मैं कभी न गया। इसलिए ठीक ठीक नहीं बता सकता कि आधी रात को वहां होता क्या! पर यह सुनता कि उसके सर पर भी देवी आतीं और बतातीं कि वे इस पूजा से खुश हैं। और विश्वास दिलातीं कि वे हारी बीमारी से रक्षा करेंगी। खुशी खुशी सब घर आते।
बीमारियों से रक्षा के विवश प्रयत्न
कुल मिलाकर ये सारे विधान भयंकर गर्मी से उपजने वाली बीमारियों से रक्षा के विवश प्रयत्न थे- अवैज्ञानिक, पर अंध श्रद्धा से भरपूर। अब सब खत्म हो गया, पर देवी की पूजा वाली इस बात को कॉन्वेंटी पोते को समझाना मुश्किल। आज की पूरी पीढ़ी को बताना कठिन। उसने उन विवशताओं-कष्टों को देखा नहीं, तो कैसे समझेगी! बहरहाल,
ऐसा सभी त्योहारों-पर्वों के साथ हुआ है। लेकिन देवी की जो घरेलू पूजा घर घर में होती है, वह बदस्तूर चल रही है। सामने से देखकर समझ में आ रहा है कि अन्य सभी त्योहारों से कम प्रदूषित हुआ है यह। शायद इसलिए कि यह शत-प्रतिशत औरतों द्वारा मनाया जाता है और उनने इसे संजो रखा है। वरना तो होली-दीवाली जैसे प्रमुख त्योहार भी हमारे लिए अजनवी हो गए हैं। होली के सांस्कृतिक रंग व सामूहिक चौताल खत्म। बहार रहती है युवाओं के डिस्को डांस पे शैतानी रंगबाजी की! दीवाली में दीया की रंगत को रस्मी बना के जगमग लाइटिंग हावी हो गयी है।
सफाई से बीमारी को रोकने का उपाय
लेकिन इस घरू पूजा के उपलक्ष्य में सबका पूरा घर पूरी ईमानदारी से साफ किया गया, यह भी पुरातन प्रथा है – सफाई से बीमारी को रोकने का वही उपाय। हालांकि मेरे घर नातिन के विदा हो जाने से बच्ची किरन अकेली है, पर कोताही नहीं हुई। मेरी पढ़ाई का अड्डा विस्थापित होकर छत के कक्ष में जमा दिया गया। उसे इसीलिए पहले साफ कर दिया गया।
अष्टमी याने कल की शाम से घर के अंदर सारे काम बंद। खाना घर के बाहर बनता है। रसोईं घर में जाना भी बंद – देवी के आगमन के लिए वीआइपी व्यवस्था- उनकी एकांत प्रतीक्षा। चूल्हा हालांकि गैस में बदल गयी है, पर उसे भी धोके रख दिया गया- देर रात की चाय मैं माइक्रो में बना सका और पीने के लिए घर के पिंड से बाहर आना पड़ा। और चप्पल बाहर निकलवा के ही माइक्रो के पास कमरे में जाने की अनुमति मिली।
दो बजे रात से देवी माता के लिए सात किस्म के पकवान बनने शरू हुए… चार बजे कलश रख दिया गया। उस पर चावल से भरी मिट्टी से बनी ढकनी (मिट्टी की प्लेट संमझ लें) रख दी गयी, जिस पर रख के मिट्टी का ही दिया जला दिया गया- कोरोना का जोखम उठा के भी खानदानी कुम्हारन ने मिट्टी के बर्तन शाम को भेजवा दिये थे। देवी बचा लेंगी, के दृढ़ विश्वास के सामने पानी भरें डॉक्टर और वायरस के परहेजी…
ख्याल आया कि देश में मातृ-पूजा के दो प्रतिनिधि केंद्र हैं- पश्चिम में गरबा सहित गुजरात और पूरब में दिया-नृत्य से उच्छल बंगाल। इस मामले में बंगाल के कुछ पास स्थित हम दिया ऊपर रखने वाले बाह्य पद्धति के उपासक गुजरात के हमराही हैं।
कलश-पूजन के बाद ‘बाट-पूजन’ घर के बाहर- शायद घर-बाहर जैसे घर-बार बना, वैसे ही ‘बार’ से बन गया ‘बाट’। बाट पूजन में पकवान के साथ मिट्टी के बनाये सात कंकड़ भी- पता नहीं क्यों! लेकिन स्पष्ट है- बाहर की पूजा के रास्ते देवी का घर के भीतर प्रवेश… अब पूरे साल वो रक्षा करे- घर उसके भरोसे- क्या गहन आस्था है!
इतना ही नहीं, भोर में डीह बाबा के थाने (स्थाने) धार भी दी गई। घर की सारी वैदिक पूजा का लोकाचार- धार, जो हर हारे-गाढ़े में रक्षार्थ दी जाती है। देना तो काली माई के थाने चाहिए, पर वे दूर हैं, तो भोरे के मद्देनजर यह शार्ट कट। इस सारे पूजा-कर्म के दौरान पचरा (देवीगीत) की गुनगुन बचपन में माँ की याद दिलाता रहा – मां से सीखा किरन ने – ऐसे ही पीढी-दर-पीढ़ी चली आ रही यह परंपरा…
‘सिंह चढ़ल देवी गरजत आवैं, हो गंवारे लोगवा… माई के मरमो न जाने हो मूरुख लोगवा…
मरमो त जाने उहे माली के छोकरवा हो कि नित उठि ना, गजरा गांछि के लिआवें हो कि नित उठि ना…
मरमो त जाने उहे बभना के छोकरवा हो कि नित उठि ना, पोथिया बाँचि के सुनावे हो कि नित उठि ना…
इसे फिर से देखने-गुनने से खुद को रोक न सका- रुका जा न सका, पर धुर अतीत के अचेतन को आज सचेतन में जस का तस जीने के आत्मिक सुख-संतोष में प्रसाद-प्रकल्प की पढ़ाई का नुकसान महंगे दर के ब्याज सहित फायदे में बदला लग रहा है… पोते के सवाल का दूसरा सिरा देखिये,
इस लताफ़त का भी मर्म-मज़ा लीजिए कि ‘राम नवमी’ के नाम पर सारा काम मातृ नवमी का! और राम भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, तो कोरोना क्या बिगाड़ लेगा?
बसिऔरा
अभी प्रसाद मिला 7.20 बजे – गुलगुला और टिकिया, तो याद आया कि इसे हमारे यहां न रामनवमी न मातृ पूजा, बल्कि बसिऔरा कहते हैं। शाब्दिक अर्थ- बासी खाने का औरा। औरा याने आँगछ- आना-शुरुआत-चलन। रात का बना दूसरे दिन खाने का औरा। पर संकेतार्थ होगा- देवी के खाये का प्रसाद पाना। और सब कुछ के बाद जब तक ब्राह्मण आके कलश के पास हवन नहीं कर देता, तब तक प्रसाद नहीं मिलता। आजकल अपने पुरोहित के खानदान में एक युवक ने ठीकठाक संस्कृत पढ़ ली है। अच्छा कराता है- रुचि से कराता है। पुश्तैनी संबंध के चलते मेरे यहाँ समय पर आता भी है। सो, जल्दी मिल गया प्रसाद। तो समय से सार्थक हो गया- बसिऔरा… इति रामनवमी लोक कथा।