राम नवमी (21 अप्रैल) पर विशेष
कैलाश वाजपेयी।
भगवान राम का पूरा जीवन ही कष्टों में गुजरा। राजमहल में जन्म लिया, किन्तु जीवन का लंबा समय वनवास में गुजारना पड़ा। राजसिंहासन पर बैठने वाले थे कि संन्यासियों का जीवन व्यतीत करना पड़ा। पत्नी सीता से वियोग का सामना करना पड़ा। अनजाने में ही सही, अपने पुत्रों से युद्ध करना पड़ा। ऐसा जीवन जीना शायद ही कोई पसंद करे, इसके बावजूद लोग भगवान राम की पूजा करते हैं, उन्हें आदर्श मानते हैं। भारतीय लोक में वह सिर्फ इसलिए पूज्य नहीं हैं कि तमाम कष्ट झेलकर उन्होंने दुष्टों का संहार किया, बल्कि बल्कि इसलिए पूज्य हैं कि उन्होंने विपत्ति में भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ा, हर कष्ट का सहजता से सामना किया और मर्यादा को नहीं छोड़ा। इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। जो मुक्तिमार्ग पर चलना चाहते हैं, उन्हें राम की शरण लेनी चाहिए। भारतीय संस्कृति के आधार भगवान राम के व्यक्तित्व और महिमा को रेखांकित करता हुआ सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार स्व. कैलाश वाजपेयी का लेख।
करोड़ों लोगों की जिंदगी में तरह-तरह से घुला-मिला मन की चेतन-अचेतन परतों पर जगमग सुलेख-सा शांत समाया हुआ राम कोई कोरा शब्द भर नहीं है। वह अपने देश की आसमुद्र फैली चेतना का अगरु-चंदनी साम गान है, जहां लोग मिलते हैं तो राम-राम कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं। बड़े प्रेम से अपनी भुजा पर राम का नाम गुदवाते हैं। रामनामी वस्त्र से अपना तन ढकते हैं। राम नाम लिख कर मछलियों को आटे की गोलियां चुगाते हैं। आपबीती को राम कहानी नाम देते हैं और इस दुख बहुल दुनिया में जब हताश होते हैं तो आह भर कर ‘अरे राम’ कहते हैं।
राम का मतलब है सुहावना, भला लगने वाला, मन को रमाने वाला आदि। यह अनुभव तब होता है, जब काल के प्रवाह में जन्म-जन्मों तक ठोकर खाते हुए भीतर का कलुष धुल कर निर्मल हो जाता है। अपने और पराये का भेद मिट जाता है और जीवाश्म एक तरल संवेदना बन कर भावातीति में खो जाते हैं। हम सबका जीवन छोटी-छोटी घटनाओं की मंजुषा भर नहीं, वह क्रमश: विकास की एक श्रेष्ठतर सीमा भी है, जिसके परस्पर विरोधी सूत्र कभी-कभी कविता को जन्म देते हैं। राम ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा, सिर्फ जीवन को सलीके के साथ जीने की एक शैली दी।
धैर्य, क्षमा, संयम, गांभीर्य, विवेक, औदार्य और अनृत, जो उच्च मानवीयता के गुण हैं, राम उसका कीर्तिस्तंभ बन कर जिए। उनका जीवन देवता से ऊपर मनुष्यता की प्रतिष्ठा का दस्तावेज है। वे लोग, जिनका जीवन उपेक्षा का रिसता हुआ घाव है और अस्पृश्यता बरबस थोपा गया बनवास, ऐसी शबरी के जूठे बेर खाकर समता के पत्र पर पहला हस्ताक्षर किया राम ने। यही नहीं, इंद्र के कुचक्र से पति द्वारा शापित जड़ पड़ी अहल्या को अपने स्पर्श से जीवित किया राम ने। राम की कथा नदी की तरह चट्टानों को तोड़ती असंख्य कांतारों (जंगल) को उखाड़ती एक महानद की श्रेष्ठतम कृति का स्थायी भाव बन गई, जिसमें राम जैसे धीर-ललित, धीर-प्रशांत और धीरोद्दात नायक का सुवास भरा कीर्ति कुसुम हर पृष्ठ पर खुला है। रामायण में 24 हजार श्लोक हैं एवं 500 सर्ग। प्रत्येक 1000वें श्लोक का प्रारंभ गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर से होता है। गायत्री मंत्र में चूंकि 24 अक्षर होते हैं, इसी आधार पर रामायण में 24 हजार श्लोक हैं।
भगवान राम ‘नियमों के आदर्श अनुयायी’… और हमें मजा आता है कानून तोड़ने में
तमसा नदी के तट पर जो आर्तनाद हुआ था, वह क्रमश: हर नदी के तट पर प्रतिध्वनित होता चला गया। राम के चरित ने व्यास, अश्वघोष, कालिदास, भाष, कुमारदास, भवभूति, पुष्पदंत, क्षेमेंद्र, कंबन और तुलसीदास जैसे महाकवियों को उत्प्रेरित किया। विदेशी आक्रांताओं के क्रूर कर्मों से क्षत-विक्षत हुई पड़ी भारतीय संस्कृति अपनी मुक्ति का मार्ग खेज ही रही थी कि उसे महाकवि तुलसीदास जैसी प्रतिभा मिल गई। हालांकि इसी के साथ यह भी सच है कि राम की कहानी जावा-सुमात्रा, कंबोडिया, जापान, चीन, तिब्बत और यूनान तक अपने तेजस्वी व्यक्तित्व के कारण वहां की जातीय स्मृति में पहले से ही प्रवेश पा चुकी थी। मगर लोकभाषा में राम की जो लोकरंजक प्रतिमा तुलसी ने गढ़ी, वह सचमुच अतुल्य है। तुलसी के प्रज्ञा लोक का प्रत्येक पल राममय है। उन्होंने राम की प्रतिमा उकेरने से पहले सभी शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया। फिर ‘क्वचित् अन्यतोऽपि’ कह कर अपनी कृति में अडिग आस्था के सूत्र भी पिरोये। आज तुलसी के मानस के अतिरिक्त कंबन, कृतिवास और तोखे रामायण भी हमें उपलब्ध हैं। मगर तुलसी की बात ही निराली है। तुलसीदास कवि होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे। दर्शन का पुट कविता में ‘सोने में सुहागा’ का काम करता है। उनकी अडिग आस्था ने ‘मानस’ को राम रसायन के रूप में जनता जनार्दन के समक्ष परोस दिया। अपनी रचना यात्रा में उन्होंने स्वयं को राजनीति और सांप्रदायिकता से दूर रखा। अधिकांश कवि समसामयिकता और विचारधारा के चक्रव्यूह में फंस कर प्रसिद्धि तो पा लेते हैं, मगर ऐसी कृति का दूरगामी प्रभाव कम हो पाता है। अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो दर्शन और काव्य का यह योग हमें वाल्मीकि और व्यास में भी मिलता है। रामायण और महाभारत युगांतरकारी क्रांत दृष्टियां हैं। एक के महानायक राम हैं, दूसरे के श्रीकृष्ण। कृष्ण अगर विश्लेषणात्मक हैं तो राम समन्वयात्मक। तुलसी तक आते-आते राम उच्चतम मानवीयता का शिखर छू चुके थे। वाल्मीकि के राम यथार्थ की कठिन भूमि पर खड़े हैं, जबकि तुलसी के राम मर्यादावादी आदर्श की धरती पर खड़े होकर भी यथातथ्यता से अपरिचित नहीं। तुलसी आत्मद्रष्टा कवि हैं, राम उनकी सांसों की सांस हैं।
तुलसी के राम एक आदर्श पुत्र हैं। वह आदर्श शिष्य हैं और लोक कल्याणकारी जनरक्षक। वन में रह कर यज्ञ संस्कृति के अनुगामी, अपनी साधना में लीन, पत्राहारी (पत्तों पर गिरी ओस की बूंद चाट कर जीने वाले) एवं आकाश निलय योगी (आकाश के नीचे रहने वाले) सबके सब मिल कर राम के पास आए थे और कहा था उन्होंने- ‘हम किसी से कुछ मांगते भी नहीं, किसी को कोई हानि नहीं पहुंचाते, तब भी हर दिन राक्षसों द्वारा सताए और खाए जाते हैं। राम! तुम समर्थ हो, धनुर्धर हो, हमारी रक्षा करो।’ तुलसी के राम वही करते हैं, जो ‘सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय’ है। तुलसीदास ने अपने भावात्मक राम के व्यक्तित्व को अपनी प्रतिभा के बल पर इतना ऊपर उठा दिया है कि हम उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर ही उनका स्मरण नहीं करते, बल्कि उन्हें साक्षात ब्रह्म मान चुके हैं। आधुनिक युग में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त तो अपने ‘साकेत’ महाकाव्य का प्रारंभ ही निम्नलिखित पंक्तियों से करते हैं- ‘राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।’