थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-3।
सत्यदेव त्रिपाठी।
‘विवेचना’ के साथ अरुण के जाने के बाद धीरे-धीरे पता लगा कि नाटक का दीवाना मैं ही नहीं हुआ, वरन ‘इस शहर में हम जैसे दीवाने हज़ारों हैं’… दर्जनाधिक नाट्यप्रेमी तो मुझे ही मिले, जिन्होंने दोनो शोज़ देखे और अरुण पांडेय के दीवाने हुए। यह भी पता लगा कि दो-तीन नाट्यकर्मियों ने तो तुरत ही नाट्यालेख की छाया-प्रतियाँ भी करा लीं कि वे मंचन करेंगे। लेकिन समय गवाह है कि कर कोई न पाया।
खाँटी ज़िंदगी का नग्न यथार्थ
ऐसा ही एक नाटक मराठी का हुआ था- जयंत पवार (जिनका दुर्दैव से अभी चंद दिनों पहले ही अवसान हुआ है) लिखित ‘अधांतर’, जिसमें गाँव तो न था, लेकिन रोंगटे खड़े कर देने वाली मुंबई की रुक्खागीरी-गुंडागर्दी व चाल-निवासियों के जीवन वाली मुम्बई की खाँटी ज़िंदगी का नग्न यथार्थ यूँ नुमायाँ हुआ था कि उससे लरज कर हिंदी के एकाधिक रंगकर्मियों ने नाट्यालेख लिये थे, पर उसे भी कर कोई न सका। अरुण पांडेय के इस नाटक ने मुम्बई के नाट्य-विमर्श में यह आयाम जोड़ दिया कि हिंदी में मूल नाटकों के अभाव की तोहमत तो किसी हद तक ठीक भी हो सकती है, लेकिन इसके चलते अंग्रेज़ी-मराठी… आदि के नाटक खेलने को सही साबित करना रंगकर्मी की अपनी काहिली व परमुखापेक्षिता से बनी रचनाहीन वृत्ति है। वे व्यर्थ का अरण्य-रुदन करते हैं कि हिंदी में अंधायुग, आषाढ़ का एक दिन, आधे अधूरे आदि चंद नाटकों के सिवा मंचेय नाटकों का अभाव है। अरुण ने तो अपने शहर जबलपुर के एक शीर्ष लेखक हरिशंकर परसाई के लेखन से ही कुल पाँच नाटक लिखे और खेले, जिनका भी शीर्ष है- ‘निठल्ले की डायरी’। अन्य चार हैं- ‘मैं नरक से बोल रहा हूँ’, ‘चौक परसाई’, ‘परसाई नामा’ और ‘प्रवचन परसाई’। इसी तरह अपने अंचल के विख्यात लोककवि ईसुरी के जीवनवृत्त पर ‘हंसा उड़ चले देस बिराने’ लिखा और पेश किया। यह वह नाटक है, जो अरुण को बड़े रंग-निर्देशकों के समकक्ष खड़ा कर गया। ये नाट्यकर्म व्यक्तित्व-केंद्रित ही नहीं, इतिहास-संचालित भी हुए। बुंदेला विद्रोह को लेकर बुंदेली में भी नाटक लिखा- तैयार किया- ‘हंसा कर ले किलोल’। यह अरुण की लोकपैठ व लोक में गहरी अनुरक्ति ही है कि लोक कथाकारों के सरताज विजयदान देथा की कहानी ‘फ़ितरी’ को ‘भोले भड़या’ नाम से बुंदेली में ही किया। इसे देखकर कहने का मन होता है कि हर रंगकर्मी का कोई न कोई लोक होता है। यदि वह महानगर की उपज या निवासी है, तो महानगर का भी एक लोक होता है- ‘अधांतर’ मुम्बई का लोक ही तो है। सवाल है पैठ का। महानगरों का रंगकर्मी अपने सज़े-धजे ड्राइंग रूम से बाहर तो निकले, शामों को स्कॉच-पास्ता का मोह छोड़कर पातल भाजी-चपाती न सही, झुणका-भाखर तो खा सके और उस लोक को देख-समझ सके। हबीब साहब की राह का भी यही परतोख है। और अरुण उसी राह के रहबर हैं।
नाटक का ऐसा प्रत्यक्ष असर
फिर अपने बुंदेलखंड ही नही, काशी अंचल पर लिखी काशीनाथ सिंह की संस्मरणात्मकव अदामयी (स्टाइलिश) कहानी ‘देख तमाशा लकड़ी का’ को इसी नाम से रूपांतरित किया, लेकिन किन्हीं कारणों से नाटक न बन पाया। उनकी इस वृत्ति से आकर्षित होकर एक बार मैंने भी एक सरकारी प्रस्ताव का मौक़ा हाथ में आते ही मैंत्रेयी पुष्पा के अपने पसंदीदा लघु व तेज उपन्यास ‘झूलानट’ का रूपांतर कराया, जो अपनी तेज कर्मनिष्ठा के चलते अरुणजी ने तीन दिनों में ही करके भेज दिया था, लेकिन अफ़सरी पेचोखम को न सुलझा-संवार पाने के कारण शो उसका भी न हो सका। उदय प्रकाश की लोकेतर व तेज-तर्रार कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ का अरुण ने रूपांतर किया और उसका प्रदर्शन भी ऐतिहासिक सिद्ध हुआ। उसके पहले शो की शाम मैं जबलपुर में मौजूद था। मुझे तो कुछ भनक न थी, लेकिन अरुणादि को मालूम था कि शो के दौरान कुछ प्रदर्शन-उपद्रव हो सकता है। पुलिस का बंदोबस्त तो था ही, संयोगन या योजना के अंतर्गत मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे ज़िलाधीश, जो औपचारिक उद्घाटन के बाद शो देखने के लिए अगली पंक्ति में बिराजमान भी थे। मंचन 15-20 मिनट चला होगा कि दर्शक-दीर्घा में दाहिनी तरफ़ बिलकुल पीछे से पटाखे फूटने की आवाज़ आयी। आधा हाल धुआँ-धुआँ हो गया। नाटक रुक गया। लेकिन पुलिस ने स्थिति पर चंद मिनटों में क़ाबू कर लिया। इसमें ज़िलाधीश की उपस्थिति का भी निर्णायक लाभ मिला। 15 मिनट नाटक रुका रहा, फिर पूर्ववत हुआ और शो भी बड़ा अच्छा हुआ। उस दिन नाटक का जीवट अच्छी तरह समझ में आया। मैं तो रोमांचित हो गया। नाटक का ऐसा प्रत्यक्ष असर पड़ता है, यह सुनने-पढ़ने को मिला था, देखने को नहीं। बाद में कभी रायगढ़ में हबीब साहब के ‘पोंगा पंडित’ को लेकर पंडितों का पंगा देखने को मिला, लेकिन उसका मामला इतना उग्र व व्यापक न था तथा हबीब साहब ऐसे पंगे को लेकर खेले-खाये शख़्स थे। याने मेरे लिए प्रदर्शन परक कला के इतने जीवंत-ज्वलंत होने का साखी बना अरुण पांडेय का रंगकर्म और जबलपुर।
क्रूर सत्ताओं से विरोध के स्वर
बेशक कहा जा सकता है कि अरुण-लिखित व मंचन के लिए चयनित नाटकों के मूल स्वर अवांच्छित व्यवस्थाओं की क्रूर सत्ताओं से विरोध के हैं- माध्यम चाहे प्रेम हो या संघर्ष व लड़ाई। उन दिनों मैं ‘जनसत्ता’ में स्तम्भ की तरह नाटक पर लिखता था। प्रदीप सिंह सम्पादक थे। उन्हें फ़ोन करके चेता दिया और लम्बा आलेख भेजा, जो पहले पन्ने पर नीचे छपा-‘बॉटम न्यूज़’ की तरह। बाद में वह पूरा आलेख नामवरजी की सम्मति से ‘आलोचना’ में भी छपा। चर्चा खूब हुई। और नाटक के हिट होने में इस पटाखा-कांड ने भी आग में घी का कामकिया। तो जबलपुर जैसे शहर में चुपचाप अपना काम करने वाले अरुण पांडेय के चहरे का स्थायी भाव तो है- गम्भीर-गमखोर होना-रहना, लेकिन वे ऐसे बख़ौफ व क्रांतिकारी रंगकर्मी भी हैं…, जिसका पता उनके साथ रहते, उनसे बात करते हुए बिलकुल नहीं चलता, क्योंकि बड़ी-बड़ी बातें करना व ज्वलंत योजनाओं के ढिंढोरें पीटनाअरुण की आदत नहीं- बल्कि इसमें वे काफ़ी शर्मीले हैं। हाँ, बिना कहे उसे कर दिखाना इस नाट्यवीर की कूबत है।
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)