दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अमरीका, यूरोप और चीन इस समय एक साथ मंदी के दौर से गुजर रही हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाने वाले ये बड़े देश साल के आरंभ में ही आर्थ‍िक चुनौतियों से घिर गए हैं। यूक्रेन में युद्ध से लेकर दुनिया भर में जारी मुद्रास्फीति के दबाव और महंगाई को काबू में करने के लिए अमरीकी फेडरल रिजर्व जैसे केंद्रीय बैंकों द्वारा बढ़ाई गई ब्याज दरों को जिम्‍मेदार माना जा रहा है। युरोप में वस्‍तुओं की मांग में कमी और ब्‍याज दरों में वृद्ध‍ि ने अर्थव्‍यवस्‍था को कमजोर कर दिया है।

चीन करता है ग्लोबल जीडीपी का 18 प्रतिशत कवर

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन, जो कि ग्लोबल जीडीपी का लगभग 18 प्रतिशत कवर करता है, वहां हाल ही में कोविड के मामलों में आए उछाल ने एक बार फिर से वैश्विक आर्थिक ख़तरे की घंटी को ज़ोरों से बजा दिया है। उपभोक्ता कोरोना संक्रमण के मामलों में वृद्धि से चिंतित हैं। कोरोना महामारी पर लगाम लगाने के लिए सोच-समझ कर कदम उठाने और लक्षित नज़रिए से आगे बढ़ने में चीन की अक्षमता ने स्थितियों को और बिगाड़ने का काम किया है। दिसंबर 2022 के पहले 20 दिनों में ही लगभग 248 मिलियन लोगों (चीन की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत) के कोरोना वायरस से संक्रमित होने का अनुमान लगाया गया। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को कोरोना वायरस की चपेट में आने ने इसे दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा प्रकोप बना दिया है।

कह सकते हैं कि चीनी अर्थव्यवस्था में मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बेहद कमज़ोर कर दिया है। इसके साथ ही घरेलू मांग में गिरावट ने विदेशी निर्यातकों को नुकसान पहुंचाया है और सख़्त लॉकडाउन जैसे क़दमों ने निर्माताओं, विशेष रूप से दूसरे एशियाई देशों में आपूर्ति को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। इससे भी अधिक अमेरिका और यूरोप में बढ़ती ब्याज दरों और बढ़ती आर्थिक मंदी के साथ-साथ मुद्रास्फ़ीत के दबाव ने ग्लोबल मैक्रोइकोनॉमिक पैरामीटर्स के जटिल परस्परिक प्रभावों की दरारों को सामने लाकर रख दिया है। ऐसे में चीन की मौज़ूदा हेल्थ इमरजेंसी ने इस विकट परिस्थिति में आग में घी डालने का काम किया है। यह कहना उचित होगा कि चीन में कोरोना महामारी के उछाल ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक बेहद बुरे दौर में पहुंचाने का काम किया है।

वैश्विक आर्थिक संकट बढ़ने के बीच फिर आई है कोविड महामारी

कोविड महामारी का प्रकोप ऐसे समय में सामने आया है, जब वैश्विक आर्थिक संकट बढ़ रहा है और यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए और ज़्यादा परेशानी पैदा करने जा रहा है। एक ओर देखा जाए तो दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों में निरंतर परिवर्तन का दौर चल रहा है, जैसे कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से धराशायी हो चुकी है, म्यांमार में सैन्य तख्ता पलट और बड़े स्तर पर बेरोज़गारी की स्थिति है । खाद्य तेल निर्यात करने वाले देशों द्वारा आपूर्ति में कटौती करने और फूड प्राइज पर ऊर्जा मूल्य वृद्धि के असर ने विशेष रूप से समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा को एक बड़ी चिंता बना दिया है। पाकिस्तान और नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल एवं वित्तीय आपातकाल के कारण व्यापार घाटा बढ़ रहा है । विदेशी मुद्रा भंडार कम हो रहा है।

भारतीय इकोनॉमी के लिए बेहतरीन संकेत

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा भी यह साफ कर चुकी हैं कि यह वर्ष दुनिया के तमाम देशों के लिए आर्थ‍िक मोर्चे पर संकट भरा है, लेकिन इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (आई.एम.एफ.) भारत के लिए सकारात्‍मक आंकड़े प्रस्‍तुत कर रहा है। इसके आंकड़ों को यदि सही मानें तो वह बता रहे हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी साल 2022 की तुलना में इस साल 2023 में बढ़कर 3.6 फीसदी हो जाएगी। बीते साल 2022 में वैश्विक अर्थव्यवस्था ने 100 ट्रिलियन डॉलर के पार 101.6 ट्रिलियन पर पहुंची थी। इसके साथ ही भारत ने ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की टॉप पांच अर्थव्यस्थाओं में अपनी जगह भी बनाई । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मानें तो पिछले वर्ष भारत की जीडीपी 3,468.6 अरब डॉलर रही, जोकि इस साल 2023 में तमाम चुनौतियों के बावजूद भी आगे बढ़ती और ठीक से ग्रोथ करते हुई नजर आ रही है।

इसके साथ ही आई.एम.एफ. के चीफ इकोनोमिस्ट पियरे ओलिवियर गौरिनचास ने भी यह स्‍पष्‍ट कर दिया है कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है। ऐसे में भारत का 6.8 फीसदी या फिर 6.1 फीसदी की दर से विकास करना बड़ी बात है और इस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। मौजूदा माहौल को देखें तो भारत की आर्थिक वृद्धि दर की ये रफ्तार एक बेहतरीन संकेत हैं।

वैश्वीकरण के बदलते आकार ने दिया भारत को आर्थक मोर्चे पर नेतृत्‍व का मौका

वर्ष 2020 के बाद से कोविड-19 महामारी के प्रकोप के पश्चात वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अगर कोई सबक लिया गया है, तो उसमें दो सबक बहुत महत्‍वपूर्ण हैं, सबसे पहला सबक था, चीनी अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भरता को कम करना। शुरुआत में जब महामारी की वजह से लॉकडाउन जैसे उपाय शुरू हो गए थे, तो तमाम बाज़ार शक्तियों के उसकी चपेट में आने से दुनिया भर में प्रोडक्शन मार्केट्स पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, लेकिन उस दौरान सबसे बुरा असर चीन जैसे देश में आपूर्ति श्रृंखला में अवरोध की वजह से पड़ा था। परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और जापान जैसे देशों ने चीन में स्थापित अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस के विकल्प तलाशने को लेकर अपने प्रयासों को तेज़ कर दिया। विकल्प के रूप में इन देशों द्वारा किए जाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को आकर्षित करने के लिए भारत एक बड़े आधार के रूप में दिखा।

दूसरी महत्‍व की बात यह है कि महामारी के दौरान परिवहन में तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा और इसने सरकारों को नए क़दम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया, जैसे कि मूल्य श्रृंखलाओं में अंतर क्षेत्रीय और घरेलू क्षमता हासिल करने के लिए अंतर-देशीय तुलनात्मक लाभों का फायदा उठाने से अलग हटकर कुछ करना। इसने न केवल लचीली घरेलू क्षमताओं को लेकर रास्ता दिखाया है, बल्कि प्रतिस्पर्धी दामों पर ज़रूरी और गैर-ज़रूरी दोनों वस्तुओं की सोर्सिंग के मामले में चीन से आने वाले सामान के कई विकल्प भी तैयार किए हैं। सबसे अहम बात यह है कि महामारी के बाद की दुनिया में वैश्वीकरण के रुझानों में नए आयाम जोड़ते हुए देश आर्थिक समूहों और बहुपक्षीय प्लेटफार्मों पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने को लेकर और भी ज़्यादा चौकन्ने हो गए हैं। इसका लाभ आज दुनिया भर के तमाम देशों के बीच भारत को मिलना संभव हुआ है।

मंदी का ये होता है असर

आर्थिक मंदी किसी महामारी या भयानक आपदा से कहीं कम नहीं है। इसका असर भी कई सालों तक बना रहता है। यह न सिर्फ जीडीपी (GDP) का साइज घटाती है, बल्कि रोजमर्रा के खर्चे इसके कारण बेतहाशा बढ़ जाते हैं। सामान्‍य शब्‍दों में कहें तो किसी भी चीज़ का लंबे समय के लिए मंद या सुस्त पड़ जाना ही मंदी है। इसी को अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कहा जाए, तो उसे आर्थिक मंदी कहते हैं। तकनीकी रूप से कहें तो जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाहियों में जीडीपी ग्रोथ घटती है, तो उसे आर्थिक मंदी कहा जाता है. आर्थिक मंदी की स्थिति में अर्थव्यवस्था बढ़ने की बजाय गिरने लगती है। यह सिलसिला कई तिमाहियों तक चलता है। लोगों की आय कम हो जाती है, शेयर बाजार में गिरावट आती है, मांग बहुत कमजोर हो जाती है। मांग का असर उत्‍पादन पर पड़ता है। उत्‍पादन कम करने के कारण कंपनियां कर्मचारियों को निकाल देती है। इस तरह मंदी से महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है। लोगों के काम-धंधे ठप्‍प हो जा ने उन्‍हें कई तरह की आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। (एएमएपी)