स्मृतिशेष : शेष नारायण सिंह 

राज खन्ना ।
वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह अब इस दुनिया में नहीं रहे। शुक्रवार को उनका निधन हो गया। वह कोरोना से संक्रमित थे और ग्रेटर नोएडा के जिम्स में आईसीयू में भर्ती थे।

‘अब वापस घर ही आना है’

रात में भाभी जी से फोन पर बात हुई थी। उन्हें इतनी ही जानकारी थी कि सुबह प्लाज्मा चढ़ाया गया है। डरा हुआ था। फिर भी उम्मीद लगाए था। सुबह डॉक्टर एम. पी. सिंह के फोन के साथ यह उम्मीद टूट गई। आमतौर पर तीसरे-चौथे अलसुबह मोबाइल की घण्टी बजती और उधर से ब्रदर का सम्बोधन गूंजता। शेषजी भले ग्रेटर नोएडा में रहते रहे हों लेकिन सुल्तानपुर में उनके प्राण बसते थे। यहाँ की हर छोटी-बड़ी खबर और आम-खास लोगों के कुशल-क्षेम में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। ऐसे लोगों से जुड़े किस्सों की पोटली जब तब खुलती और फिर फोन पर कितना वक्त गुजर जाता पता ही न चलता। इधर मुझसे बार-बार दोहराते कि अब वापस घर ही आना है। गांव के किसी एकांत कोने में गोमती किनारे कुटिया बनाने की योजना बनाये हुए थे। किसे पता था कि इतनी जल्दी जलधारा अवशेषों को आँचल में समेटने की प्रतीक्षा में है।

हम यादें साझा करते, आपस में दुःख बांटते

लगभग पचास साल पुरानी हमारी दोस्ती थी। गनपत सहाय कालेज छात्र संघ के अध्यक्ष मेरे साथी स्व. गया प्रसाद सिंह यहाँ के बाद एल.एल.बी. करने टी.डी. कालेज जौनपुर गए थे। शेषजी वहाँ पहले से ही थे। उन दिनों चौधरी चरण सिंह ने छात्र संघों के गठन पर प्रतिबंध लगाया था। छात्र काफी आंदोलित थे। इलाहाबाद से छपने वाले ‘आगामी कल’ के लिए मैं नियमित रूप से लिखा करता था। संपादक श्री राजेन्द्र अरुण ने इस मुद्दे पर कालेजों के छात्रों की राय जानने-लिखने के लिए कहा था। सुल्तानपुर से यह काम मैंने किया था। जौनपुर के लिए मैंने स्व.गया प्रसाद सिंह से अनुरोध किया था। वहाँ से जो सामग्री आयी थी, उसमे गया प्रसाद सिंह के साथ शेष नारायण सिंह का भी नाम था। गया भाई ने मुझे बताया था कि इस काम को मुख्यतः शेष जी ने ही किया है। उनसे यह मेरा पहला परिचय था। 1973 में शेष जी तुलसी दास डिग्री कॉलेज , कादीपुर में इतिहास के लेक्चरर हो गए। फिर  साथ नियमित बैठकबाजी का सिलसिला चल निकला। गया भाई भी सुल्तानपुर वापस आ चुके थे। बड़े भाई राम सिंह -अशोक पाण्डे की अगुवाई में यहाँ की राजनीति की नई पौध जड़ पकड़ रही थी। शेष जी और मैं उस मंडली के गैर राजनीतिक सदस्य होते हुए भी अड्डेबाजी में तमाम शामों में साथ होते थे। यह साथ और अपनापा बहुत गहरा था। वक्त के साथ इधर-उधर होने पर भी ये रिश्ते कभी कमजोर नहीं पड़े। पहले भाई राम सिंह , फिर अशोक पांडे और गया भाई एक-एक कर असमय विदा हो गए। हर साथ छूटने पर शेष जी फोन पर फूट-फूट कर रोते। हम यादों को साझा करते रहे। आपस में दुःख बांटते।  आज शेष जी को याद करते समय खुद को अकेला पा रहा हूँ। हम बिछड़े साथियों की अगली पीढ़ी इसे समझ सकती है। अशोक भाई के दुःखी पुत्र शिवम ने कहा कि ऐसी लाचारी कि हम आख़िरी दर्शन भी नहीं कर पाएंगे।

महानगरीय चमक-दमक के बीच खांटी गाँव के आदमी

कादीपुर कॉलेज की आंतरिक राजनीति के चलते शेष जी की नौकरी जल्दी ही छूट गई थी। यहाँ से वह दिल्ली एक अदद नौकरी की तलाश में गए थे। पसंद-रुचि की तब गुंजाइश नहीं थी। बहुत संघर्ष किया। तमाम मौकों पर अपनी पोस्ट में वह इसका जिक्र करते रहे। पर प्रतिभा थी। इस संघर्ष ने उसे और निखार दिया। पत्रकारिता को जुनून के तौर पर जिया। पहले प्रिंट मीडिया में खुद को स्थापित किया। फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चिरपरिचित चेहरे बन गए। एक कामयाब पत्रकार की हर जरूरी शर्त वह पूरी करते थे। खूब पढ़ा और आखिर तक पढ़ना जारी रखा । व्यापक सम्पर्क बनाये और उनका भरोसा हासिल किया। घटनाओं पर उनकी गहरी और पारखी नज़र थी। शानदार न्यूज़ सेंस। उनकी प्रस्तुति के लिए जानदार भाषा थी। बेलाग-बेबाक लहजा था और बोलने का सलीका भी। उन्होनें जमकर अग्रणी हिंदी चैनलों पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज की और टाइम्स नाउ जैसे अंग्रेजी चैनलों के लिए भी काम किया। दिलचस्प यह कि इस महानगरीय चमक-दमक और शोहरत के बीच भी शेष जी खांटी गाँव के आदमी और बिना किसी कुंठा के उसी पृष्ठभूमि के पत्रकार बने रहे। जड़ों से वह कभी दूर नहीं हुए। जल्दी-जल्दी गाँव आ कर ही नहीं बल्कि दिल्ली में रहते हुए भी वह गाँव को जीते रहे। अपनी बातों की तस्दीक के लिए गाँव-गिरांव के किस्से- कहावतें उनकी जुबान पर थे। मशहूर होने के बाद कम लोग उन किरदारों और रिश्तों को याद  रख पाते हैं, जो उनकी गुरबत के गवाह होते हैं। शेष जी के इस बड़प्पन की मैं और उनके बहुत से चाहने वाले उनके जीते जी भी तारीफ करते थे। वह अपने भाई -भतीजों -बहनों और उनके बच्चों के दुख-सुख में भीतर तक भीगते थे। तनिक भी उनकी परेशानी की खबर पाते ही सक्रिय हो जाते। गाँव और कस्बे के रिश्तों-नातों को गुनते और उन्हें लेकर वह भावुक होते रहते थे। यह रिश्ते इतने कीमती थे कि वे उनके लेखन का विषय बनते। लम्भुआ के उनके पुराने साथी जवाहर लाल जी को केंद्र में रखकर जनसंदेश टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ पर छपा उनका लेख बहुत दिनों तक चर्चा में रहा।

फोन की घंटी नहीं बजी, व्हाट्सअप मेसेज अनपढ़ा दिखता रहा

पत्रकारिता की दुनिया में शेष जी किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। अपनी बिरादरी में मान- सम्मान और कद्र में उनकी योग्यता के साथ ही उनकी जिंदादिली का भी योगदान था। झूठे दिखावे, ठसक और इतराहट से उन्होंने खुद को बचाये रखा। सहज-सरल बने रहे और साफ-सुथरी पत्रकारिता करते रहे। यकीनन इस दौर में यह मुश्किल इम्तहान है, लेकिन शेष जी उसमें कामयाब रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उन्हें दूर तक पहुंच और पहचान दी। सुल्तानपुर जिन लोगों के जरिये जाना-पहचाना गया, उसमें शेष जी भी शुमार हैं। उनकी असमय विदाई की खबर से लोग स्तब्ध-हतप्रभ हैं। ऐसी खबर पर कौन दोस्त यकीन करना चाहेगा। पर यही सच है। आखिरी बार हफ्ते भर पहले मेरी बात हुई थी। पूरे जोश-जिंदादिली के साथ। फिर फेसबुक पर उन्होंने पॉजिटिव होने का जिक्र करते हुए कुछ दिन शांत रहने की सूचना दी थी। कैसे जान पाता कि वह चिर शांति की तैयारी में हैं! इस बार फोन की घण्टी नहीं बजी। व्हाट्सअप पर मेरा मेसेज भी अनपढ़ा दिखता रहा। गाँव और कस्बे के रिश्तों-नातों को गुनते परसों उनके लिए प्लाज्मा की जरूरत के सन्देश ने विचलित किया। उनके अखबार देशबंधु के कार्यकारी संपादक जय शंकर गुप्त से जानकारी लेने की कोशिश की। वह भी इसी कोशिश में थे। कल प्लाज्मा चढ़ने की खबर ने उम्मीद कायम रखी थी। सुबह का पहला फोन अशुभ रहा। अगला फोन सहारा अस्पताल लखनऊ से कोरोना से जूझ रहे हम दोनों के साथी भाई दलजीत सिंह का था। उन्होंने बताया कि अब वह बेहतर हैं और बीती रात अस्पताल के बेड पर उन्होंने घण्टों शेष भाई के लिए पूजा की है। सभी देवी-देवताओं से उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की है। मुश्किल से मैं उन्हें बता सका, ‘शेष भाई अब नहीं हैं।’ उनके न रहने की खबर ने बहुतों को उदास किया है और रुलाया है। मैं खुद को अधूरा पा रहा हूँ। मन का कोना सूना हो गया। शब्दों की तलाश में इतना तो कभी नहीं भटकना पड़ता ? स्क्रीन बार-बार धुंधली दिख रही है। उसी में उनकी खिलखिलाती तस्वीर झांक रही है। कान में बार-बार ‘ ब्रदर कैसे हो ‘ गूंज रहा है। … तो शेष भाई , बताओ बिन आपके ब्रदर कैसा होगा ? हमेशा आपने बहुत फ़िक्र की। याद करता रहूँगा। आप भी, अब जहाँ दूर चले गए वहीं से हौसला दीजिएगा। अश्रपुरित नमन।