शैलेश सिंह। 

विदित हो कि को मुम्बई की संस्था ‘बतरस : एक अनौपचारिक सांस्कृतिक उपक्रम’ द्वारा हर महीने के दूसरे शनिवार को किये जाते सामाजिक-साहित्यिक आयोजनों की श्रृंखला में इस बार विश्व कविकुल गुरु की एक सौ तिरसठवीं वर्षगांठ (७ मई) के उपलक्ष्य में ‘नगीनदास खांडवाला महाविद्यालय’ (एन॰एल॰कॉलेज), मालाड के सभाकक्ष में ‘कवीन्द्र रवीन्द्र स्मरण’  नाम से एक बहुरंगी व यादगार कार्यक्रम प्रस्तुत हुआ। 

कार्यक्रम के संचालक श्री शैलेश सिंह ने प्रास्ताविकी में कहा – ‘हम रवीन्द्रनाथ ठाकुर को क्यों याद करते हैं…? क्या इसलिए कि उन्हें साहित्य का नोबेल सम्मान मिला? क्या इसलिए कि वे एक असाधारण कवि-लेखक थे? जी नहीं। इसलिए याद करते हैं कि वे एक महामानव थे। उनका रोम-रोम प्रेममय था और वह समूची पृथ्वी के लिए समर्पित था। वे हर मनुष्य के माथे को उन्नत देखना चाहते थे। जन-गण-मन उनमे बसा था। कृषि की उपज बढ़ाने के लिए उन्होंने कृषि-वैज्ञानिकों को बुलाकर किसानों को प्रशिक्षण दिलाया। नोबेल सम्मान की जो राशि मिली, उससे उन्होंने सुरल गाँव में एक श्री’निकेतन’ बैंक खोला और १%, व्याज पर किसानों को ऋण देने की व्यवस्था करायी। महिलाओं को दस्तकारी का प्रशिक्षण दिलाया। सो, हम उन्हें याद करते हैं – ऐसे गहन सामाजिक सरोकार के कार्यों के लिए।

फिर अगले सोपान पर देखें, तो उनका प्रेम मनुष्य तक सीमित न रहकर मनुष्येतर प्राणियों व वनस्पतियों तक प्रसरित था। इस देश की मिट्टी के कण-कण में व्याप्त था। उन्होंने समूचे भारत की यात्रा की और देश की विराट प्रकृति से आत्मीय रिश्ता बनाया। संभवतः इस देश में बुद्ध के बाद वे दूसरे व्यक्ति थे, जिनका हृदय प्रेम व करुणा से इस तरह ओतप्रोत था। वे ईश्वर की तरह सबसे प्रेम करते थे, जो किसी प्रतिदान पर निर्भर न था।

इस व्यापक फलक पर कार्यक्रम शुरू करते हुए शैलेशजी ने सबसे पहले ‘शिशु वन विद्यालय’ में कार्यरत डॉ जया दयाल को आमंत्रित किया, जिन्होंने बांग्ला भाषा में रवीन्द्र नाथ ठाकुर का एक विनय गीत प्रस्तुत किया – तोमारी नाम बोल्बो आमी बोल्बो नाना छोले  इसमें कविकुल गुरु अभिमान न लाने की प्रार्थना करते हैं। विपत्तियों मे अडिग, व भयमुक्त होने की शक्ति मांगते हैं। सरस-सह्दय-स्नेहिल बनने की राह पर चलने की कामना करते हैं। प्रेम से हृदय को परिपूर्ण करने की याचना करते हैं…, ताकि वे अखिल धरा का गौरवपूर्ण अभिषेक कर सकें।

इसके बाद मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित रवींद्र ठाकुर के विशेषज्ञ अध्येता श्री पुलक चक्रवर्ती ने बांग्ला, अंग्रेजी व हिन्दी  मिश्रित भाषा में विषय व भावानुसार आरोह-अवरोह  के साथ  विश्व कवि के व्यक्तित्व की निर्मिति  पर विस्तार से अपनी बातें रखते हुए कहा कि जीवन व विराट प्रकृति से उनके  तादात्म्य  के पीछे एक दुखान्त प्रकरण है… रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रेम की भाषा,  प्रेम की  गहन अनुभूति व प्रेम की  उदात्त तथा परिष्कृत टेर, (बांग्ला में भालोबासा) अपनी बड़ी भाभी कादम्बरी देवी से पायी, जो उनसे उम्र में तीन साल बड़ी थीं। दोनो में एक गहरा भावनात्मक रिश्ता था।  रवीन्द्रनाथ के विवाह के कुछ ही महीने बाद उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर  लिया। इस हादसे से रवीन्द्रजी टूट-से गये थे।  इस गहन दुख से  मुक्ति उन्हें  तब मिली, जब वे जमींदारी के अपने कार्य से उत्कल (अब उड़ीसा) भू-क्षेत्र  की ओर गये। लगभग तीन महीने के प्रवास में बाहरी संसार के असीम दुःख से उनका पहली बार ऐसा साक्षात्कार हुआ कि उनके  आन्तरिक दुख की श्यामल घटा जैसे  छँट-सी गई।  श्री चक्रवर्ती  ने आगे बताया कि विश्व कवि को  रोमान्स  का  पहला अनुभव बम्बई  (अब मुम्बई) में हुआ, जब उनके बड़े भाई सत्येन्द्र नाथ ठाकुर ने उन्हें  बोलचाल की अंग्रेजी  और उसके आचार (एटिकेट्स) सीखने के लिए ‘ताम्बे-परिवार’ में भेजा। वहाँ उनकी भेंट पांडुरंग  ताम्बे की बेटी अनुराधा  पांडुरंग ताम्बे से हुई, जो बिलायत से शिक्षा प्राप्त कर  बम्बई (अब  मुंबई) लौटीं थीं। समय के साथ दोनों में मादन भाव पनपा और रवींद्रजी को गहरे  रोमांस  की अनुभूति हुई।  कालांतर में उनका यह रोमांस व्यक्ति से उठकर देश के असंख्य जन-गण  में  प्रसरित हो उठा। गरज ये कि रवींद्रजी अपने दुःख व प्रेम दोनो में व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख हुए और अंतत: मानवीय प्रेम-सौंदर्य-संवेदना की गरिमा के सबसे बड़े उद्गाता  हुए।

उनमें कलात्मक ऊंचाई तक पहुंचने  का अपार कौशल व धैर्य था, तो असीम साधना व लगन भी थी। उनमें  कल्पना और यथार्थ के रम्य समन्वय से सृजन के शीर्ष एवं अभिव्यक्ति के उत्कर्ष का चरम विकास व अनन्य संपादन हुआ। चक्रवर्तीजी ने यह भी बताया कि कवीन्द्र ठाकुर ने एक बार कहा था कि यदि हमें भारत को जानना-समझना है, तो विवेकानंद को देखें, उन्हें हृदयंगम करें। ठीक इसी तरह  विवेकानंद  भी श्री ठाकुर के बारे में कहते – “यदि हम भारत की आत्मा को देखना, समझना और जानना चाहते हैं, तो हमें  रवीन्द्र नाथ ठाकुर को देखना, पढ़ना और  ग्रहण करना चाहिए”। वास्तव में रवीन्द्र की  कला में भारत की आत्मा बजती है, मन नाचता है और भारत की राष्ट्रीय पहचान बयां और रवाँ होती है। पुलकजी के अनुसार रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने  भारत के विज़न, रवायत, अस्मिता व भविष्य को पूरी कलात्मक सम्पृक्ति और  उत्कर्ष के साथ व्यक्त किया है, जिसका प्रमाण है – ‘भारत तीर्थ’ नामक उनकी कविता, जिसमें गजब की लयात्मकता और ओज़ है, भारतीय दर्शन  और भारतीय मूल्यों का सार तत्व है। रवीन्द्रनाथजी को याद करना महज परंपरा नहीं है,  भारत की आत्मा का अभिषेक है, इसकी सामासिक संस्कृति का जयगान है।

पेशे से  श्री पुलक चक्रवर्ती विद्युत अभियंता रहे हैं, इसलिए उनके विश्लेषण की क्षमता  और अभिव्यक्ति के हुनर में गजब की सलाहियत, तार्किकता (रैशनेलिटी) व वैज्ञानिकता के साथ सामाजिक  मूल्यों  के प्रति कट्टर दृढ़ता से निखरी द्युति थी, जिसका आस्वाद अनिर्वचनीय रहा…।

इस प्रमुख वक्तव्य के बाद रवीद्र-संगीत का दौर चला…। इसमें विशेष रूप से आहूत बंगाल की प्रसिद्ध  गायिका श्रीमती माला दिनेश भट्टाचार्य ने रवीन्द्र नाथ के तीन खूबसूरत गीत प्रस्तुत किये – दो गीत हिन्दी में और एक बांग्ला में। माला जी ने इन गीतों को उनकी मूल संवेदना, भाव-सौन्दर्य और नाद-लय के साथ  ऐसा गाया कि श्रोता स्वत: ही तदाकार  होते चले गये। प्रसिद्ध कवि व गायक श्री दीपक खेर ने रवीन्द्र नाथ लिखित ‘पागल हवा’  नामक बेहद उम्दा गीत को अपने वाद्य यंत्र के सहाय से उतने ही उम्दा ढंग से प्रस्तुत किया।  इसी कड़ी में आज के मीडिया जगत में उभरते हुए गीतकार-गायक-संगीतज्ञ श्री विशू  ने अपना ही लयबद्ध किया हुआ रवीन्द्र नाथ का  ‘मातृभूमि’  नामक गीत प्रस्तुत किया, जिसकी मधुर स्वरलहरी को श्रोताओं ने खूब सराहा।

आयोजन का तीसरा आयाम रहा – कवींद्र की कविताओं की प्रस्तुति का। बांगला के ही नाट्य कलाकार  श्री जीसू मित्र ने  कवि की एक  बांग्ला कविता  को उसके भाव के अनुकूल  अपनी प्रभावशाली आवाज, सटीक भाव-भंगिमा एवं आरोह-अवरोह के साथ ख़ास ओजपूर्ण ढंग से  प्रस्तुत किया। इस मोहक प्रस्तुति के बाद  जनवादी लेखक संघ से जुड़े कवि व गद्यकार श्री रमन मिश्र ने रवीन्द्रजी की दो कविताओं का पूरी भाव-प्रवणता के साथ वाचन किया – ‘जाने कैसे गाते हो, तुम गीत गुनी, मैं अवाक रह जाता हूँ…’ और ‘मरना नहीं चाहता हूँ मै इस सुर भव में…’ । शहर के अग्रणी गीतकारों में शुमार श्री रास बिहारी पांडेय ने भी कविकलगुरु के दो गीत अपनी चिरपरिचित सुरीली सुरलहरी में पेश करके सभी को भावविभोर कर दिया – ‘बलि बलि जाऊँ सखी री, कोई बंसी बजाके बुलाए…’ और ‘मरण रे, तहूँ मोरे स्याम समान…’। माइक का सही उपयोग भी पांडेयजी ने ही किया। श्रीमती सुप्रिया यादव थोरात ने रबीजी की  छोटी-सी कविता ‘जन्मदिन’ का बहुत ही प्रभावशाली  पाठ किया…।

 

इसी का एक अभिनव आयाम प्रस्तुत हुआ, जब हिंदी के नामचीन नवगीतकार डॉ  अनिल गौड़ ने ‘बतरस’ के आग्रह वश विश्वकवि पर कविता लिखी या पहले की लिखी हुई पढ़ी…। कविता बेहद सुंदर व चित्रमयी है, जिसका गौड़जी ने उतना ही सधा पाठ भी किया। बतौर नमूना एक छोटा बंध – ‘इतना कुछ रचने के बाद भी अशांत/ बहुत कुछ रचने को उद्भ्रांत/ दुखी होते हो अंतिम साँसों के साथ/ कहते हो बहुत से गीत रह गये/अनरचे-अनगाये/ अनथक थे आयाम/ रचना रचना रचना सुबहोशाम’। डॉ अनिल गौड़ ने इस कार्यक्रम में एक विरल योगदान और किया – उन्होंने राष्ट्र गीत ‘जन-गण मन…’ के रचनात्मक कौशल का ऐसा अभूतपूर्व विवेचन किया, जो अन्यत्र दुर्लभ ही क्या होगा – शायद ही किसी के वश का हो वैसे गोता लगा-लगा के काव्य-रतन निकला पाना। राष्ट्र-गान में प्रयुक्त शब्दों, उनके आपसी साहचर्य, पदबंधों की व्यंजना व धवन्यात्मकता, उसमें समायी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासतों की पहचानों एवं गरिमा का ऐसा आकलन दुर्लभ है – उनकी इस मेधा को सलाम…!!

आयोजन का एक आयाम कहानी-पाठ का भी रहा। इसके अंतर्गत ‘हिन्दी ब्लिट्ज’ के पूर्व संपादक व देश के शीर्ष ग़ज़लकारों में एक जनाब राकेश शर्मा ने कवीन्द्र रवीन्द्र की छोटी-सी मार्मिक कहानी ‘कवि का  हृदय’  का बड़ा असरदार पाठ किया।  दूसरी प्रस्तुति के रूप में प्रसिद्ध नाट्य व मीडिया अभिनेत्री श्रीमती शाइस्ता खान ने  रबी ठाकुर की सरनाम कहानी ‘पत्नी का  पत्र’ प्रस्तुत किया, जिसमें स्त्री अस्मिता  के प्रश्न को बड़े क़रीने से उठाया गया है।  कहानी लम्बी है, पर शाइस्ताजी की आवाज़ के जादू व मोहक अंदाज से  श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये…।

कार्यक्रम का अंतिम सोपान नाट्य-प्रस्तुति का रहा।  समर्पित नाट्य अभिनेता श्री विश्वभानु की बड़ी प्रिय कहानी है – रवीन्द्रनाथजी की  ‘पोस्टमास्टर’। यह जानते हुए ‘बतरस’ ने आग्रह किया और इसका मान रखते हुए विश्वा ने ख़ास तौर पर अकेले ही बीस दिनों की अनथक मेहनत से उसे एकल नाट्य प्रस्तुति के रूप में तैयार किया। और छोटे-से सामान्य मंच (स्टेज) पर भी उन्होंने बड़े कौशलपूर्ण जुगाड़ से पेश कर दिया। और कहना होगा कि अपनी आवाज़ व देह-भाषा के बल पर कहानी की मूल संवेदना व  उसके कला-रस को अनुभव-योग्य बना दिया। कहानी जितनी संवेदनशील है, अभिनेता की अदायगी भी वैसी ही भावप्रवण थी। पूरी संवेदनात्मक ईमानदारी से  की गयी विश्वभानु की प्रस्तुति  को सबने दिल खोलकर सराहा भी। यह कहीं भी पेशेवर शो के लायक़ बन पड़ी है, जो होना भी चाहिए और जिसके लिए ‘बतरस’ को भी प्रयत्न करना चाहिए।

नियोजित कार्यक्रमों के इस अंतिम चरण के बाद संचालक शैलेश सिंह ने कविकुल गुरु की एक छोटी-सी कविता का पाठ किया । और सबसे अंत में  आभार के लिए खड़े हुए ‘बतरस’ के चार प्रवर्तकों में से मौक़े पर मौजूद डॉ सत्यदेव त्रिपाठी ने बतरसियों की राय पर प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा पूरा कार्यक्रम अनौपचारिक है, तो धन्यवाद की भी औपचारिकता क्यों रखी जाये? इसके विकल्प के रूप में उन्होंने दूसरा प्रस्ताव यह रखा कि कवींद्र पर हुए इस कार्यक्रम के उपलक्ष्य में, इसी की प्रेरणा व याद में आगे से ‘बतरस’ की गोष्ठी को हमेशा सामूहिक राष्ट्रगान और तदनंतर ‘भारत माता की – जय’ की अँनगूंज के साथ सम्पन्न किया जाये…, क्योंकि राष्ट्रीयता के ऐसे तमाम  आचार, जो दो-तीन दशक पहले जीवन के हर शैक्षणिक-सांस्कृतिक अवसर पर हमारे बीच जीवंत रहकर संस्कार बनते थे, आज बेवजह व बेतरह लुप्त हो गये हैं…! और आज उनकी बड़ी ज़रूरत है।

प्रस्ताव को श्रोताओं ने सहर्ष स्वीकार किया और समवेत स्वर  में राष्ट्र गीत का गायन हुआ तथा इसके बाद ‘भारत माता की – जय’ के घोष से  कार्यक्रम की इति  हुई।

सामूहिक  जलपान के दौरान बहुतों को कहते सुना गया कि बहुत दिनों तक लोग इस अविस्मरणीय कार्यक्रम की  रसमयता एवं इसके बौद्धिक  विमर्श को एक खूबसूरत तोहफे की मानिंद  याद रखेंगे…। और कवीन्द्र की  रसभरी रचनाओं  की मानसिक व भावनात्मक संगति के साथ लोग निज-निज गृहोन्मुख हुए…।