सच कहूँ कि वह मंजर न होता, तो यह संस्मरण न होता।
सत्यदेव त्रिपाठी।
हनुमंत नायडू की कविता है – ‘रोना तक भूल गया, मन इतना रोया है’। वही हाल मेरे और पंडित श्री हरिरामजी द्विवेदीजी से मिलने का है – इतना-इतना मिलना हुआ कि जब याद करने चला हूँ, तो यही याद नहीं आ रहा कि हमारी पहली भेंट कब और कहाँ हुई। लेकिन ‘यादों की इस अँधेरी कोठरी’ के अहसास इतनी ग़वाही अवश्य दे रहे कि दो दशकों से कम की बात तो न होगी। इसलिए पहली मुलाक़ात के बदले मैं अपने-उनके सबसे यादगार मंजर से बात शुरू करना चाहूँगा… और सच कहूँ कि वह मंजर न होता, तो यह संस्मरण न होता।
वह यादगार मंज़र वह है, जब हरिरामजी मुम्बई आए हुए थे – जोकि कभी-कभार किसी के बुलावे पर आते रहते थे और जब आते, तो दसेक दिन तो रहते…क्योंकि उन्हें चाहने वाले, उनके मुरीद वहाँ भी कम नहीं हैं, जो सारी व्यवस्था व आवभगत करते हैं। मेरी समस्या यह थी कि मेरे मार्गदर्शन में एक छात्रा (सरिता उपाध्याय) कजरी और फाग के विशेष संदर्भ में भोजपुरी लोकगीतों पर पीएच.डी के लिए शोध कर रही थी, जिसके लिए भोजपुरी क्षेत्रों में जाना, गायकों व गाँवों की गवैया स्त्रियों से मिलना था और त्रासदी यह है कि अपना उत्तर भारतीय समाज आज भी और मुम्बई में रहते हुए भी लड़कियों को अकेले कहीं आने-जाने की छूट नहीं देता। उनकी उच्च शिक्षा को भी इतनी वक़त नहीं देता कि उसके लिए घर-परिवार का ही कोई लड़की को लेकर बाहर जाए। ऐसे में मुम्बई से मिर्ज़ापुर, गोरखपुर या किसी भी भोजपुरी प्रांतर में जाके लोकगायकों आदि से मिलकर प्रत्यक्ष सामग्री-संचयन व संकलन का कार्य होना सम्भव ही नहीं लगता था। और उसके बिना इस-उस किताब से उतारकर डिग्री ले-दे लेने वाले शोध-कार्य का मेरे लिए कोई मतलब न था। ऐसे में हरिरामजी का मुम्बई आना वरदान हो गया। इस मौक़े को लोक लिया मैंने। तबियत अपने राम को थोड़ी अच्छी मिली है। तो सोचा कि अकेले उस बच्ची से मिलवाने का क्या मतलब? पूरे विभाग को लाभ व रस मिले। तो एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय, मुम्बई के अपने विभाग में ‘भोजपुरी लोकगीत’ पर हरिरामजी का व्याख्यान रखा दिया। सरिता से कहा – रेकोर्ड कर लो, याने एक पंथ, दो काज।
उन दिनों एम.ए. भाग-1 व 2 की दोनो कक्षाओं को मिलाकर 80-85 लड़कियाँ होती थीं। एम.फिल., पीएच.डी. मिलाके सौ से ऊपर हो जाती थीं। 150 की क्षमता का हमारा कक्ष था और एकल कार्यक्रम था। स्वागत करते व परिचय देते हुए में मैंने कह दिया कि कजरी से शुरू करें, फिर फाग को लें। जितने तरह की प्रमुख कजरियाँ व फाग होते हैं, उनके लक्षण-पहचान… आदि बताते हुए उदाहरणों को उसी धुन में गाके बताएँगे, तो इन जड़ से कटी बच्चियों के लिए बात स्पष्ट हो सकेगी। फिर इसके बाद समय रहा, तो अन्य प्रकार के लोकगीतों की बात करेंगे। हरिरामजी ने वैसा ही किया। कजरी के पहले ही प्रकार को समझाने के बाद उदाहरण के लिए जो पिहके, तो उस पूरी छठीं मंज़िल के सारे पक्षी फड़फड़ाके उड़े और आहट लेते हुए कक्षा की तरफ़ ताक-झांक करने लगे। मैंने भी आरव पाके दरवाजा खोला, अंदर आने के इशारे किए और अन्य विभागों की बच्चियाँ आने लगीं। दूसरे प्रकार के उदाहरण के गायन पर तो पूरी मंज़िल ही इसी ओर उमड़ पड़ी। बेंचेज कसमसा उठीं, तो खड़े होने लगे लोग। देखते-देखते खचाखच भर गया पूरा कक्ष। धीरे-धीरे कुछ अध्यापक भी आ गये थे। तिल रखने की जगह न बची थी। लोग भाषा का भेद भूल गये थे। संगीत में निमग्न हो उठे थे। लय-धुन-स्वर-लहरियों में तिर रहे थे। समाँ बँध गया था। ऐसा मंज़र मुम्बई जैसे व्यस्त नगर में, जहां अपना काम करो और भाग लो, की स्थापित संस्कृति है, इसके पहले कभी देखा न गया था।
पंडितजी के लिए भी यह प्रतिसाद अपवाद व अनूठा रहा। वे इस युवा -बल्कि युवती- मजमे को देखकर रौ में आ गये थे और दो घंटे अबाध गति से चला होगा कार्यक्रम। उसके बाद भी चलता, तो कोई छोड़कर जाने की मन: स्थिति में न होता। हरिरामजी की शारीरिक क्षमता का भी लोहा उस दिन मान गये लोग। उनका ज्ञान-विवेचन-गायन आदि सब उस दिन अपने चरम पर था। इतने प्रकार की कजरियाँ बतायीं, जो अचानक बोलने आने वाले हरिरामजी के अलावा किसी के वश का न होता। उनके एक-एक लक्षण व आपसी अंतरों को इतने क़रीने व विस्तार से समझाने लगे कि पूरी तैयारी के साथ आया कोई प्रोफ़ेसर भी वैसा क्या बताता! फिर यह तो छात्राओं- ख़ासकर उस शोध-बालिका के लिए था। जो बाक़ी लोग भर आये थे, वह तो हरिरामजी के गायन-कला की फ़िदाई थी। उनमें बहुत से गीत स्वयं हरिरामजी के थे। उनके काव्यत्व की सुध भी सबको भूल गयी थी। इस अद्भुत समागम के चर्चे हमारे विश्वविद्यालय में तो बहुत दिनों तक चलते ही रहे– हरिरामजी भी इसे बड़ी मीठी याद की तरह भावभीने ढंग से समय-समय पर सुनाते क्या, बखानते रहे। अवश्य उन्हें वह अनुभव आज भी भूला न होगा। उस शोध-बालिका का काम तो शानदार हुआ ही, हरिरामजी का कैसेट उसके पास आज भी होना चाहिए।
लेकिन इस आयोजन का इसके अलावा भी एक उपसंहार बना, जो हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रेमचंद-साहित्य में सुलभ विविध जीवनरूपों को गिनाने की शृंखला में ‘ईर्ष्यापरायण प्रोफ़ेसरों’ को साकार करता है। उस दौरान हमारी विभागाध्यक्ष किसी अवकाश पर थीं और हरिरामजी के सीमित समय में उनके इंतज़ार का मतलब न था। फ़ोन-सोन करके पूछने की कोई वैधानिक ज़रूरत न थी। लेकिन जब आने पर उन्होंने इस आयोजन की असीम सफलता के झंडे फहरते सुना, तो उनके अंदर वही द्विवेदीजी वाला विशेषण जाग उठा। टिप्पणी आयी– ‘इस गाने-बजाने से विभाग न चलेगा’। लेकिन यह टिप्पणी सुनने वालों की तरफ़ से उनके मुँह पर ही उसी तरह निरस्त कर दी गयी थीं, जैसे मेले-ठेलों में किसी कुँवारी लड़की पर पीछे से टोना मारने वाले काले जादूगर के अक्षत को पलटकर उसी के मुँह पर मारके लौटा दिया गया हो… क्योंकि हरिरामजी का जादू सबके सर चढ़कर बोल रहा था।
यह घटना मेरे काशी विद्यापीठ आने और बनारस में बसने के तीन-चार साल पहले की होगी, क्योंकि इस व्याख्यान के बाद शोध-प्रबंध लिखा गया होगा और जमा करने के बाद की सारी कार्यालयीन औपचारिकताओं के बाद ही मौखिकी हुई होगी, जिसमें मैं बनारस से गया था, जो मुझे अच्छी तरह याद है। और मैं विद्यापीठ में आया 2009 में। और व्याख्यान के लिए बुलाने के पहले से भी मेरा-उनका सम्बन्ध था, तभी तो इस विश्वास के साथ बुला पाया। इस तरह दो दशकों के अपने साथ-सहवास का अंदाज़ा अमूमन साबित भी हो जाता है। लेकिन इस बीच यह पक्का है, जिसे साबित करने की ज़रूरत नहीं कि भोजपुरी कविता के सफ़रमैना पंडित हरिराम द्विवेदी अपने बनारस में ‘हरीभैया’ के नाम से जाने जाते हैं, यह बात मुझे बनारस आकर ही मालूम हुई और इसे मैंने पहले पहल सुना बनारसीजीवन के सफ़रमैंना प्रबोध मिश्र के श्रीमुख से, जो पहली बार मुझे काशी विद्यापीठ में ही मिले थे। और जब उनसे यह नाम पहली बार सुना, तो समझ न पाया कि ये ‘हरी भइया’ अपने मूर्द्धन्य कवि हरिरामजी दिवेदीजी ही हैं। सुनकर तुरत यह लगा था कि ‘हरी भइया’ क्यों? ‘हरि भइया’ क्यों न हुए – नाहक ही बनारसी उच्चारण-वृत्ति ने दबाके ‘हरी’ कर दिया! और अब ‘हरि’ और ‘हरी’ के शाब्दिक अर्थभेद को क्या बताना… फिर इसमें कजरी… आदि के टेके में आये ‘अरे रामा नागर नैया जाला काले पनिया रे ‘हरी’ को याद कर लें, तब तो ‘हरी भइया’ कैसे कह सकते हैं? मेरे इसी शब्द-संस्कार ने इस संज्ञा को मंज़ूर न किया। जब कभी जहां कहीं कहा भी है, ‘हरिभइया’ ही कहा।
बनारस आने पर उनसे हुए पहले मिलन की ओर चलें, जो पुनः बनारसी रंगत की लाजवाब शिनाख्त सिद्ध होती है।जब नौकरी करने व रहने के लिए काशी-आगमन की पहली रात ‘मालती होटेल’ और उसके बाद के 7-8 दिनों मुम्बई की अपनी मित्र डॉ. शशि मिश्र के सिगरा स्थित आलीशान बंगले में बिताने के बाद प्रसिद्ध साहित्यकार स्व. पंडित विद्यानिवासजी मिश्र के भतीजे प्रिय उदयन (मिश्र) उर्फ़ ‘मिस्टर’ के सत्प्रयत्नों से दस दिनों के अंदर ही ‘बादशाह बाग’में उनके घर के ठीक सामने के बंगले की तल मंज़िल पर मैं स्थापित हो चुका था। और इसके सप्ताह भर के अंदर ही एक सुबह लगभग 7 बजे के आसपास दरवाजा खटका… तो मैं भौंचक! दिसम्बर का मध्य आ गया था। कुछ ठीकठाक ठंड शुरू हो गयी थी। काशी शहर में प्रकाश उदय व वशिष्ठ त्रिपाठी जैसे गिने-चुनों को छोड़कर अभी कोई इतना अपना न हुआ था कि इतनी सुबह और इतनी ठंड में बिना बताए आकर बेखटके दरवाज़ा खटका दे… और ये दोनो भी शहर के दो छोरों पर रहते हैं, जिससे सुबह-सुबह यहाँ आना आसान नहीं। इस तरह के ढेरों विचार दरवाज़ा खोलने तक के आधे मिनट में आते रहे। और इनके बीच झूलते हुए दरवाज़ा खोला, तो जो नमूदार हुए, वे अपने यही पंडित हरिराम द्विवेदी ही थे। सुखद आश्चर्य का ठिकाना न रहा! कूदके गले मिले, जो अति आह्लाद में उनकी आदत भी है और अदा भी। क़द तनिक छोटा होने से उनका हाथ ऊँचे करना ही कूदना लगता है। मैंने भी सुबह-सुबह ‘अपना तो मिला कोई’ की ख़ुशी में कसके भींच लिया था उनको और फिर ‘अपना कोई मिले तो गले से लगाइए, क्या क्या कहेंगे लोग इसे भूल जाइये’ का दावा भी मन में उभर आया था। हरिरामजी गले से छूटे, तो आवेग के क्षणों में अपनी सहजात प्रकृति (नैचुरल इंस्टिंकट) के अनुसार स्फुट-अस्फुट स्वरों (कुछ फ़रियाते, कुछ लुप्त होते शब्दों) में ख़ुशी व उलाहना एक साथ निकले– ‘तू काशी में आय गइला भैया, बड़ा नींक लगत हौ, बकिनई का बात हौ कि हमैं बतवलेया ना! ऊ त काल्ही सुरेंद्र प्रताप मिल गये, तो पूछा – सत्यदेव त्रिपाठी को जानते हैं आप? मैंने पूछा- वो मुम्बई वाले? उन्होंने कहा हाँ। तो मैंने झट से कहा– ‘बिलकुल जानते हैं – छोटे भाई हैं मेरे’। तब बताया कि वे काशी विद्यापीठ में आ गये हैं – यहाँ का पता भी बताया’– इसके बाद की मसर्रत के क्या कहने – ‘त भइया, मन ना मानल – चल्ल अइली’।
‘लेकिन इतनी सुबह-सुबह’!’ मेरे कुतूहल पर बोले –‘मैं तो रोज़ ही सुबह 5 बजे गंगा-किनारे पहुँच जाता हूँ। वर्षों-वर्ष से यह नियम है मेरा। बस, वहीं से आज इधर पलट आया, नहीं तो फिर दिन में समय कब मिले, न मिले…’। मुझे यह तो पता था कि सालों-साल से वे तट पर इतना टहलते हैं, गंगामैया की गोद में इतना रहते हैं कि देखने वाले उन्हें गंगा-किनारे का निवासी भी मानते हैं। उस सुबह मालूम हुआ कि महमूरगंज के अपने निवास लालकोठी से वे रोज़ सुबह चलके गंगातट आते हैं और वहाँ काफ़ी देर टहलते-रहते हैं। गंगा पर लिखा उनका खंड काव्य ‘जीवनदायिनी गंगा’ इन्हीं भोरहरी यात्राओं और जल-तट-प्रांतर के सहवास तथा उसके प्रति पंडितजी के अनन्य मोह व गहन संवेदना का सुपरिणाम है।
जब हरिरामजी अपने घर ‘लालकोठी’, जिसके सामने के ‘स्पेंसर’ में मैं अब हर महीने घर का सामान लेने जाता हूँ, की चर्चा कर रहे थे, तब मैं वह लालकोठी देख चुका था- उनके घर जा चुका था। ठीक याद है कि रथयात्रा पर चल रहे ‘विद्याश्री न्यास’ के कार्यक्रम में मैं मुम्बई से आया था। एक सुबह हम चार-पाँच लोगों को लेकर हरिरामजी अपने घर गये थे। पूरे परिवार से मिलना, हाल-अहवाल जानना हुआ था। चाय के साथ पकौड़ी का गरमागरम नाश्ता हुआ था। बाहर से बिखरे, पर अंदर से एकजुट उस घर-परिवार को देखकर मुझे बचपने के अपने गाँव कामाहौल बड़ी शिद्दत से याद आया था, जब पूरा गाँव एक दूसरे के साथ परिवार के-से अपनेपन के साथ रहता था, जहां सारे भाव-अभाव बेमानी हो जाते – बची-बनी रहती अटूट पारस्परिकता, जिसमें होता है एक दूसरे के लिए कुछ भी कर देने, वार देने का मानवीय जज़्बा- भारतीय परिवार का आदर्श, जिसके मूर्त्त दर्शन हमें बाबा तुलसी के काव्य में होते हैं। वही यहाँ इस शहर में, जो अपने विशेषण ‘बनारसी’ के साथ ठगों-गुंडों तक को भी विश्व-प्रसिद्ध लियाक़त दे देता है, उसी शहर-ए-काशी में दशक भर के अपने बनारस-निवास में मैंने ऐसे और परिवार भी देखे हैं, जो शहर में रहकर भी लोकजीवन के आदर्श-उत्सर्ग को जी रहे हैं। उस सुबह बहुत उत्फुल्ल होकर, बहुत सुकून लेकर आने की याद मुझे अब भी है।
लेकिन यह संधान नहीं हो पा रहा कि मुम्बई के विभाग का व्याख्यान पहले हुआ था या यह कवि-गृह-गमन! लेकिन पुन: यह तय पाया जा रहा है कि आदरणीय हरिरामजी के साथ की अवधि अवश्य ही इस गृह-गमन से पहले की है। यदि सम्मेलन में यह पहली मुलाक़ात होती, तो उस दिन उनके घर जाने की बात न बनती। लेकिन प्रथम मिलन की याद अब भी नहीं आयी! तो प्रश्न उठता है- जो याद नहीं, क्या उसका अस्तित्त्व ही नहीं! और यथार्थ-चिंतन अस्तित्त्व न होने की बात ही मानता है, लेकिन अपना पारम्परिक भारतीय दर्शन तो स्मृतियों व संज्ञानता से परे के सब कुछ को भी अस्तित्वमान मानता है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण ईश्वर है, तमाम देवी-देवता हैं। फिर यहाँ तो हरिभइया का होना-करना-कहना आदि सबकी ठोस गवाही भी है और ऐसी गवाहियों को कोर्ट भी मानता है।