सबको गूगल खोल काव्य-पाठ सुनाकर बताता रहा- ये मेरे हरि भैया हैं
सत्यदेव त्रिपाठी।
जिस सुबह दरवाज़ा खटका था, तब तक मैं घर पे अकेला ही रहता था– दीदी मुम्बई से आयी न थी और कल्पनाजी (पत्नी) मुझे यहाँ बसा के चली गयी थीं। और अब यह भी तय है कि हरिरामजी शब्दार्थ के मुताबिक़ बनारस-निवास के मेरे पहले सच्चे ‘अ-तिथि’ ठहरते हैं। सो, बातचीत के दौरान पंडितजी का प्रथम आतिथ्य मिट्ठा-पानी से किया –अभ्यागतों के लिए गाँव का गुड़ मेरा स्थायी पदार्थ है – मुम्बई के घर तक। चाय में इनकी ख़ास रुचि नहीं, लेकिन हरि भइया को हरी चाय (ग्रीन टी) पिलाई… और बातों-बातों में कहा– 9 बजे तक सेविका मुन्नी आयेगी, तो विप्रवर को नाश्ता कराया जा सकेगा। और बड़े सहज भाव से उन्होंने कहा –‘तो फिर मैं नहा लेता हूँ तब तक’… और झटपट कुर्ता निकालने लगे। इस सहजता पर बलिहारी जाऊँ! काशी में ही मिलेगी, लेकिन सबमें नहीं – हरि भैया जैसे खाँटियों में ही। फिर तो कुरते के नीचे स्थित बाँह वाली गंजी और जनेऊ भी नमूदार हुए और मेरी चेतना में ससुप्त चार दशकों पुराना गाँव में अक्सर आने वाला ‘गँवहियाँ’ (अतिथि/रिश्तेदार) जाग गया और लगने लगा कि वही अपने मूल रूप में सामने खड़ा है, जिसे मैं तो अपनी यादों में सँजोए भर रहा, लेकिन हरिरामजी तो बनारस में रहते हुए उस गँवई पाहुने को जीते रहे हैं और आज मेरे लिए साकार कर दिया है –‘तुम्ह प्रिय पाहुने बनु पगु धारे, सेवा जोग न भागु हमारे’। उस सुबह मुन्नी ने क्या बनाया, याद नहीं।
पर यह याद है कि वे कुछ दिनों तक हफ़्ते में दो-एक बार आ जाते थे। और ऐसे में एक दिन मुम्बई से एम.फ़िल. की एक छात्रा (अर्चना झा) अपने कार्य को अंतिम रूप देने के लिए अपनी सास के साथ आके एक लॉज में टिकी और मार्गदर्शन के लिए जिस पहली सुबह घर आके बैठी कि पंडितजी आ गये। हमें बात में मशगूल देख वह लड़की भीतर चली गयी। मैं यही मान रहा था कि दूसरे कमरे में बैठ कर पढ़ रही होगी, लेकिन 20 मिनट के अंदर दो प्लेट में फूल गोभी के पराठे लिए हुए वह प्रकट हुई… मैं आश्चर्यचकित! और यह सुनकर कि उनके आने के दो मिनट पहले यह बालिका इस घर में पहली बार प्रविष्ट हुई है… हरि भइया इतने हैरान कि उनका हाल देखने जैसा था– खन में हँसते, खन में पूछते। खाया कम, उस बालिका का इंटरव्यू लिया ज़्यादा– एक अजनवी घर में कैसे खोजा सारा सामान-बर्तन… आदि, कैसे तय किया बनाना… जैसी तरह-तरह की तफ़तीशें प्रकट हो रही थीं- बच्चों जैसी जिज्ञासाएं व बड़ों जैसा अपार विस्मय बनकर। इसी के साथ भूरि-भूरि सराहना भी माला की सुमिरनी बनकर। याने पूरी गहनता से एक कवि के सारे भाव – इकट्ठे। इसे वे काफ़ी दिनों तक याद भी करते रहे।
दस महीने बादशाहबाग में रहकर मैंने डीएलडब्ल्यू इलाक़े मेंअपना घर ले लिया और रहने चला गया। अब हरि भइया के साथ एक और सुखद संयोग बन गया… मेरे घर के ठीक सामने वाले ठाकुर साहब के स्वर्गीय पिता शिवबंदी सिंह कवि रहे और उससे ज़्यादा कवियों के चाहक रहे। सबसे ज्यादा यह कि हरिरामजी के भाई समान मित्र रहे, जिसका पता पहली ही बार मेरे घर आने पर लगा, जब पूरी कालोनी में मशहूर उस घर की ‘दादी’ को भाभी-भाभी करके पुकारते हुए हरि भैया उनके घर में घुसते चले गये। इस तरह उनके घर आने पर भी हमारे घर आना हो जाने के अवसरों को मिलाकर कविश्री का आना अपेक्षाकृत बढ़ ही गया। कभी नाश्ता-पानी वहाँ होता और गप्पागोष्ठी मेरे घर। दादी बड़ी दिलदार हैं इस मामले में। कुछ भी बनाती हैं, लेके घर आ जाती हैं और सामने बैठके खिला के ही जाती हैं। लिहाज़ा, मेरे घर आने पर भी वहाँ नाश्ता करने की याद आ रही है। हाँ, इस घर में हरिरामजी के अनौपचारिक एकल काव्य-पाठ खूब हुए। उनकी बड़ी सहज अच्छाई यह भी है कि ज़रा सा फ़रमाइश कर देते और हरि भैया सुनाने लग जाते। इसी शृंखला में एक दिन अपना एक सरनाम गीत सुना रहे थे, जो पारम्परिक लोकगीत-सा बन पड़ा है और मैं अपनी रौ में उस वक़्तपहले से खुले रखे हुए अपने लैपटॉप पर लिखने लगा। उनके गाके पूरा होने पर मैंने पढ़के सुना दिया और हरिरामजी इतने प्रमुदित हुए कि कई महीने तक सबको यूँ सुनाते रहे, जैसे मैंने कोई बड़ा चमत्कार या आविष्कार कर दिया हो। उनकी बालसुलभ-चपलता वाले ऐसे भाव मन पर यूँ खुद उठते हैं कि अमिट हो जाते हैं। अब मोह-संवरण नहीं कर पाऊँगा… एक गायक कवि के संस्मरण में अंगऊँ की तरह ही सही, एक गीत तो बनता है- गोकि उन्होंने उस वक़्त लिख पाने के अपने ‘चमत्कार’ को सच साबित करने के लिए तीन सुनाए और मैंने भी लिख के तीनो बारी-बारी से उन्हें सुना दिये, जो यादगार के लिए हैं भी मेरे पास।
प्रस्तुत गीत पिता-बेटी का संवाद है –
अमवा लगइहा बाबा बारी बगइचा, कि निबिया लगइहा दुआर।
पिपरा लगइहा बाबा पोखरा के भिटवां, कि गोइंडे लगइहा बँसवार।
अमवा सयान होइ फरिहैं ये बाबा, निंबिया देहीं जूड छाँह।
पिपरा के डरिया पे परिहैं झलुअवा, बँसवा बिरनवां केबाँह।
अमवा लगइबे बेटी बारी बगइचा, निंबिया लगइबे दुआर।
पिपरा लगइबे बेटी पोखरा के भिटवां, नाहीं लगइबे बँसवार।
काहे न बँसवा लगइबा ए बाबा बँसवा सगुनवां के खान।
सुपली मउनिया से ओडिचा चँगेलिया, सबही जे करेला बखान।
बँसवासे ए बेटी डोलवा फनाला, होइ जाला घर सुनसान।
बिटिया के बाबा से पूछा न कइसन, मँडवा के होला बिहान।
एक और देख लीजिए- दूसरा भी…
अपनैं-अपन करीं केतनी बखान हो… सासु मोरि धरती, ससुर असमान हो… लहुरा देवरवा मोरि अँखिया कै पुतरी, सासुजी के अँचरा कै कोनवाँ परान हो…
जेठऊ त हमरे ससुर के दुलरुआ, गंगा एस निरमल हमरी जेठान हो… ननदी हमार पुनवासी कै अँजोरिया,सइयाँ मोर उगैं जइसे सुरुज बिहान हो… नइहर मोर जइसे जल भर बदरा, मोरे ससुरे वइसैं लहरै सिवान हो…
उस अवाई में दो साल मैं रहा बनारस– 10 महीने बादशाह बाग में और 14 महीने यहाँ। फिर नौकरी की शर्तों के चलते मुम्बई जाना पड़ा। लेकिन जिन थोड़े लोगों की कमी महसूस होती, उनमें हरिरामजी भी थे। और सुखद संयोग यह हुआ कि जाने किस दैवी विधान से मेरे वापस जाने के बाद हरिरामजी लगातार दो-तीन बार मुम्बई आये। कोई न कोई आयोजन होता, जिसमें आते और फिर एक-एक मित्र-मुरीद के यहाँ एक-एक, दो-दो दिनों करके हफ़्ते-दस दिनों तो रहते। यह मुझे कमोबेस उस चेलाने की याद दिला देता, जिसमें ख़ानदानी गुरुओं की सालानाफेरी लगती और वे एक-एक दो-दो जून अपने अलग-अलग चेलों के घर जूठन गिराके उन्हें आशीर्वाद देते। और मुम्बई तथा इसमें रह रहे हिंदी समाज की इस मामले में तो तारीफ़ करनी पड़ेगी कि ऐसे गुणीजनों के लाभ लेने और उन्हें यथाशक्ति आदर-सम्मान देने में पीछे नहीं रहता। इन आवागमनों के दौरान ढेरों आयोजन होते रहे। मुम्बई की दूरियों व अपने कामों की व्यस्तताओं के बीच दो आयोजनों में अपने शामिल होने की पक्की याद इस वक्त मुझे आ रही है।
एक तो हमारे अभिन्न मित्र शैलेश सिंहजी के विद्यालय सेंट ज़ेवियर्स, जो मेरे विश्वविद्यालय के पार्श्व में ही स्थित है, में शाम को हुआ था। शायद आयोजक था ‘जनवादी लेखक संघ’, मुम्बई। सप्ताह के दिनों में शाम छह बजे के बाद के आयोजन मुंबईकरों के लिए सुभीते के होते हैं। उपस्थिति अच्छी हो जाती है और साहित्य में रुचि-दख़ल रखने वाले लोग आ पाते हैं। उस आयोजन में ‘जलेस’ की निहित प्रकृति के मुताबिक़ मराठीभाषी रचनाकार व साहित्यिक लोग भी थे। लेकिन हरिरामजी के काव्य व संगीतमयता के साथ सुनाने में भाषा-प्रांत-पेशे… आदि की कोई दीवार रह कहाँ पाती है! रही-सही को शैलेशजी की हहासभारी खुली दाद भी गिरा देती है। कुल मिलाकर रात का रंग खूब जमा था। उस आयोजन की अविस्मरणीय याद ख़ास यह है कि उक्त उद्धृत बाबा-बेटी संवाद वाले गीत की अंतिम पंक्ति ‘बंसवा से ए बेटी डोलवा फ़नाला कि होइ जाला घर सुनसान, बिटिया के बाबा से पूछा न कइसन मंडवा के होला बिहान’ सुनाते हुए हरि भइया धार-धार आँसुओं में रो पड़े थे– अहक उठे थे। कवि की उस भावमयता की कल्पना कीजिए, जिसमें गीत लिखने और उसके बाद के दो-चार दशकों के दौरान कई सौ बार सुनाने के बावजूद उस पीड़ा के रेचन का हाल यह कि भरी मजलिस की दुनियादारी के सामने भी आंसू रोके से भी नहीं रुक पाते, तो सृजन के क्षणों के ‘स्पॉण्टेनियस ओवरफ़्लो आफ पावरफुल फ़ीलिंग़्स’ का सोता किस पाताल-लोक की सतह से फूटा होगा…! फिर तो अपने गमछे से आंसू पोंछ और दो घूँट पानी पीके ही पूर्ववत सुना पाये थे।
दूसरा आयोजन भी देर शाम को हुआ था। वह बोरिवली के आगे हाइवे पर शायद किसी बड़े होटेल के प्रांगण में तम्बू-तना विशाल पांडाल था। शायद वह सप्ताह भर चलने वाला कोई साप्ताहिक कला-संगम था। आयोजक संस्था का नाम तो याद नहीं आ रहा है, लेकिन माध्यम बने थे बड़े भाई हृदयेश मयंक, जो हमारे बीच आयोजनधर्मी व्यावहारिकता के शीर्षपुरुष हैं। मुझे वहाँ कवि का परिचय देना था। मैंने क्या कहा था, वह तो भूल गया; पर जोकहा, उसे सुनकर हरिरामजी की उत्फुल्लता और काव्य-पाठ की शुरुआत में उनकी मुतासिरी के निर्मल उल्लेख के शब्द नहीं, भाव अवश्य आज भी आँखों में मूर्त्त हैं।उस भव्य व विशाल आयोजन में दर्शकों की कोई ख़ास श्रेणी (डिज़ाइन) न थी। हर क्षेत्र के लोग थे – भिन्न-भिन्न संस्कारों-पेशों वाले लोग। पर सबको एक श्रेणी में ढालके अपने साथ बहा ले जाने वाली हरिरामजी की चिर-परिचित कला की दृश्यावली वहाँ भी नुमायाँ हो रही थी। एक विरल बात बनी उस दिन…कि पंकज त्रिपाठी तब तक तो हमारी तरह आम आदमी ही थे, पर आज तो सिनेमा व वेबसीरीज के नामचीन अभिनेता हैं। वे अपने ससुर के साथ आए थे। उन दिनों उनकी शिक्षा-संस्कारी पत्नी श्रीमती (शायद मृदुला) त्रिपाठी मेरे अंतर्गत ‘हिंदी रंगमंच के विकास में ‘रंगप्रसंग’ की भूमिका’ विषय पर पीएच. डी. के शोध-कार्य की तैयारी कर रही थीं, जो बाद में स्वास्थ्य के कारणों से शुरू ही न हो पाया। पंकज बिहार के हैं – खाँटी भोजपुरी वाले। उस शाम आयोजन के बाद उनकी तृप्ति और आनंद का उच्छल स्रोत सारे बांध तोड़कर धाराप्रवाह शब्दों में उफन रहा था। देर रात को ही वहाँ से हमारा सबका निकलना हो पाया था।
इस प्रकार मुम्बई से बनारस के दौरान रहे संग-साथ और हुए कवि-सम्मेलनों की चर्चा हुई, लेकिन कवि-सम्मेलन से इतर भी कई-कई आयोजनों में हम मंच पर भी साथरहे औरबहुत बार दर्शक-दीर्घा से भी उन्हें देखा-सुना – कार्यक्रमों की अध्यक्षता व संचालन करते हुए एवं वक्ता के रूप में बोलते हुए भी। इनके कुछ यादगार बिम्ब भी मन-मस्तिष्क बने हैं…, जिन्हें व्यक्त कर देना भी इस स्मरण यात्रा में मौजूँ होगा। कविताओं में जहां उनके आपूरित लोक का आलोक अनिर्वचनीय आभा बिखेरता है, उनके बोलने में वह पीछे हो जाता है। तब उनमें संस्कारी पांडित्य, प्रांजल कवित्त्व एवं अभिजात शालीनता व सलीका देखते ही बनता है। हाथ विविध रूपों में संचालित होते हैं। गरदन सम पर उठती-गिरती है, दाये-बायें घूमती है और आवाज़ में पॉज भी आता है, लेकिन धाराप्रवाह बोलने के दृश्य कम आते हैं। ज़्यादातर सोचते-सोचते बोलना या बोलते-बोलते सोचना होता है, जो उनकी साधी हुई अदा भी हो सकती है, पर गहरी विद्वत्ता की छाप छोड़ती है। संगीत सभाओं में भी हरिरामजी को सुना। उनके संगीत के शिष्य-शिष्याओं में अपने गुरु के प्रति अपार श्रद्धा-प्रेम देखा– मंच पर भी, मंच-परे भी। शिष्यों की श्रद्धाभिव्यक्ति के क्षणों में गुरु को उन्हें सहारते-असीसते, शर्माते-गर्वाते भी देखा है और हर भाव व भंगिमा बस, नयनाभिराम होती है, क्योंकि अंतस्तल से उठी-निकली होती है। शिष्याओं के प्रति उनके इन भावों पर उनके हमउम्र यारों को उन्हें चिढ़ाते तथा इस पर हरि भइया को ज़ुबान से ना-ना करते हुए आँखों में लजाते देखा है।
मंच व मंच के बाहर के उनके परिधान अलग होते हैं। मंच पर भी अध्यक्ष हुए तो कुरता सिल्क का आवश्यक हो जाता है। यदि कार्यक्रम संगीत का हुआ, तो सिल्क पर भी बेल-बूटे आ जाते हैं। सिल्की सदरी गाढ़ी-रंगीन हो जाती हैं, जो मौसमानुसार सूती-ऊनी तो होती ही है। माथे के टीके का चंदन गाढ़ा और कुछ बड़ा हो जाता है। धोती शफ़्फ़ाक चुन्नटदार हो जाती है और छजते पैताने पर सजते जूते ‘पम्पशू’ हो जाते हैं। ऐसे सजे-बजे हरिरामजी के मंच की तरफ़ जाते हुए चलने में ऐसा भाव विराजता है, जिसे कवि ने कविता-कामिनी के रूपक में ‘कालिदासो विलास:’ कहा है। ऐसे में उनका नाटा क़द वामनावतार की गरिमा से युक्त और गाढ़ा-सांवला रंग कृष्णाभिराम लगने लगता है। मंच पर अध्यक्ष बने बैठे हरिरामजी में पद-अवसर की शालीन ठसक व्यक्तित्त्व की विनम्र गुरुता बनकर ‘जथा नवहिं बुध विद्या पाये’ का भान कराती है, जो अध्यक्षीय वक्तव्य में गम्भीरता का काम्य पर्याय हो जाती है। कुल मिलाकर कार्यक्रम के पहले उनके वेश-भाव को देखकर ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वे क्या होंगे – अध्यक्ष, वक़्ता, कवि या श्रोता। वैसे काशी के आयोजनों में हरिरामजी का सिर्फ़ श्रोता बनकर रह जाना उनके व्यक्तित्त्व को सुहाता (शोभता) नहीं। सो, बनारस को भी भाता नहीं। ऐसे मौक़े बिरले ही रहे, जब वे श्रोता भर हों। फिर उन कार्यक्रमों में हरि भाई देर तक टिकते नहीं। उपस्थिति दर्ज कराके, मिल-जुल के निकल लेते देखे जाते हैं –और आज इतना भी क्या कम है?
इन दिनों उम्र और कोरोना के चलते उनका उस तरह आना कम हो गया है, पर स्नेह तनिक भी कम नहीं हुआ है, न होगा – ऐसा विश्वास उनके व्यक्तित्त्व ने ही दिया है। यह लिखते हुए गाँव में बैठा हूँ, जहां आबाल-वृद्ध सभी भोजपुरी भाषा से बने-बढ़े व इसी संस्कृति में कमोबेस पगे हैं। तो लिखने के दौरान गंवई चलन में जो भी आते रहे – पड़ोसियों से लेकर घर-ख़ानदान के लोग – ख़ासकर भाभियों-बहुओं-पोतियों-बेटियों… सबको गूगल से खोलकर कवि का काव्य-पाठ सुनाता रहा और बताता रहा कि ये मेरे हरि भैया हैं। इन्हीं के साथ बितायी अपनी यादों को लिख रहा हूँ। सुनकर उनकी नज़रों में अपने कुछ बड़ा होने का अहसास भी होता रहा। इसी को कहते हैं – नदी क काछा, बड़े क पाछा…, जिसका सुख लेता रहा। दो दिन इन्हीं यादों में तिरने का भी बड़ा मज़ा आया। जब सबको बताया कि ये 85 साल के हैं, तो सभी विस्मित होते रहे इस उम्र में इनके सधे-मधुर गायन से… और मेरे मन में यही कामना उठती रही – अपने हरि भइया दीर्घायु हों और ऐसे ही प्रसन्न मन गाते रहें! (समाप्त)