स्मरण: सुब्रत रॉय सहारा (10 जून 1948 – 14 नवंबर 2023)।

अनिल भास्कर ।

जाना सबको है। सच तो यह है कि हम सब आए ही हैं जाने के लिए। फिर भी सहाराश्री का जाना घंटों अविश्वसनीय लगता रहा। धीरे-धीरे इस सच को स्वीकार करने की तरफ बढ़ा तो सोशल मीडिया पर दो तरह की प्रतिक्रिया देखी। सहारा इंडिया परिवार के अभिभावक के तौर पर सकारात्मक, किंतु उनके व्यावसायिक पक्ष को लेकर नकारात्मक। जनता हूं यह नकारात्मक प्रतिक्रिया दरअसल कम्पनी के लड़खड़ाने और फिर आहिस्ता आहिस्ता गर्त में जाने से जमाकर्ताओं को हो रहे वित्तीय नुकसान की उपज है।

अंततः वह नाकाम साबित हुए, लेकिन…

फिलहाल मैं सहाराश्री की कारोबारी कार्यकुशलता, दूरदृष्टि, तौर-तरीके या उपलब्धियों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि मात्र पांच हजार की पूंजी से सिर्फ दो दशक में एक लाख करोड़ की परिसम्पत्ति और 6 लाख कर्मयोगियों वाले विशाल कम्पनी का निर्माण व्यावसायिक अजूबे से कम नहीं था। अंततः वह नाकाम साबित हुए, लेकिन मालिक के तौर पर कम्पनी और कर्मचारियों के लिए वे जिस तरह समर्पित रहे, वह उनके कद को विराट बनाता है। इतनी विशाल कम्पनी को कम्पनी के बजाय उन्होंने परिवार कहा। सिर्फ कहा ही नहीं, परिवारवाद की अवधारणा को साकार भी किया। बेहद संवेदनशील अभिभावक की तरह छोटे से लेकर बड़े सदस्यों का खयाल रखा। उनके हित और उसकी रक्षा के लिए किसी भी हद तक गए।

उनके मीडिया हाउस की प्रमुख शाखा ‘राष्ट्रीय सहारा’ को मैंने पूरे 14 साल दिए। इन बरसों में ऐसे अनेक मामलों का खुद साक्षात्कार किया जो अपने आप में शानदार किस्से के तौर पर कहे-सुने जा सकते हैं। यहां सिर्फ दो खास बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। पहला, जिस दौर में प्राइवेट सेक्टर में कर्मचारियों को वेतन अगले महीने के पहले और कभी कभी दूसरे हफ्ते मिला करता था, उन्होंने कानून से भी सख्त नियम बनाया कि वेतन हर हाल में उसी माह की आखिरी तारीख से पहले कर्मचारियों के खाते में पहुंच जाए। दूसरे, जब आर्थिक मंदी के दौर में हर तरफ छंटनी की तलवारबाजी चल रही थी, उन्होंने एक-एक कर्मचारी की रक्षा का संकल्प जीया। यह जानते हुए भी कि यह कम्पनी के वित्तीय हितों के प्रतिकूल है, उन्होंने परिवारवाद को सर्वोपरि रखा। ये फैसले एक कम्पनी के मालिक नहीं, किसी परिवार के मुखिया ही ले सकते थे। अपने कर्मचारियों को उन्होंने हमेशा अपने समकक्ष खड़ा किया। या फिर खुद को उनके समकक्ष। इसलिए सभी कार्यकर्ता कहलाए, यूनिफार्म पहने और अभिवादन के लिए एक ही शब्दयुग्म दोहराए-सहारा प्रणाम।

ऐसी भव्यता!

सहाराश्री ने आलीशान ऑफिस बनवाए और हर ऑफिस में कर्मचारियों के लिए कैंटीन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से की, जहां कम्पनी अनुदान की मदद से बेहद सस्ती दरों पर चाय से लेकर लज़ीज़ भोजन उपलब्ध रहता था। जब 1991 में नोएडा से राष्ट्रीय सहारा अखबार के प्रकाशन की शुरुआत हुई तो सेक्टर 11 में भव्य कार्यालय परिसर तैयार किया गया। अपनी भव्यता के लिए यह देशभर के मीडिया जगत में बरसों चर्चा का विषय बना रहा। कालांतर में यह बाकी मीडिया हाउस के लिए भी प्रेरणास्रोत बना और उन्होंने अपने पारंपरिक दफ्तरों को नया स्वरूप देना शुरू किया। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि सहाराश्री ने तमाम उद्योगपतियों को कम्फर्टेबल-एंजोएबल ऑफिस के कॉन्सेप्ट से अवगत कराया। यह अपनी तरह की एक नई कार्यसंस्कृति की शुरुआत थी।

‘बड़े साहब’

सहाराश्री को कम्पनी में लम्बे समय तक ‘बड़े साहब’ कहकर भी सम्बोधित किया जाता रहा। दरअसल वह रॉय परिवार में बड़े भाई थे। जयब्रत रॉय छोटे, इसलिए छोटे साहब कहलाते थे। लेकिन मेरा तजुर्बा है कि सहाराश्री वाकई बड़े थे। बहुत बड़े। सिर्फ उम्र में नहीं। ‘बड़ा’ शब्द उनके व्यक्तित्व के हर टुकड़े से ध्वनित होता था। वह हमेशा कहते थे- सपने ‘बड़े देखो और उसे अपनी ज़िंदगी का ध्येय बना लो। कुछ बड़ा करो।’ यह भी समझाते- ‘सपने देखने वाले लोग दो तरह के होते हैं। एक वो जो सपने देखते हैं और आंखें खुलने पर उन्हें पूरा करने निकल पड़ते हैं। दूसरे वो जो सपने देखते हैं और नींद टूटने पर करवट बदल कर दोबारा सो जाते हैं, एक नया सपना देखने के लिए। अब तुम्हें सोचना है कि तुम किस श्रेणी में हो।’ यह नसीहत वह दे सकते थे क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में इस फलसफे को बखूबी जीया था। किताबों की जगह उन्होंने ज़िंदगी को गहरे पढ़ा था। तभी गोरखपुर जैसे गंवई संस्कृति वाले अल्पविकसित शहर में पला बढ़ा यह नौजवान बगैर बड़ी पूंजी और उच्च, तकनीकी या व्यावसायिक शिक्षा के देश का सबसे बड़ा बिजनेस हाउस बनाने का सपना लेकर चल पाया। वर्ष 2000 तक वह सहारा इंडिया को निजी क्षेत्र की सबसे अधिक कर्मचारियों वाली कम्पनी बनाने में सफल भी रहे। लखनऊ में शान ए सहारा की छोटी पारी के बाद 1991 में जब नोएडा से राष्ट्रीय सहारा का प्रकाशन शुरू किया तो देश का सबसे बड़ा मीडिया हाउस खड़ा करने के सपने के साथ। इसके बाद 1993 में जब एयरवेज की दुनिया में पहली उड़ान भरी, तब भी सपना देश की सबसे बड़ी एयरलाइंस बनाने का था। बाद के वर्षों में सहारा इंडिया रियल एस्टेट कंपनी और सहारा हाउसिंग इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन की स्थापना के साथ रियल एस्टेट के कारोबार में उतरे तब भी। एफएमसीजी सेक्टर में प्रोडक्ट डिविजन बनाया तब भी। क्यू शॉप खोले तब भी और सहारा नेक्स्ट का आगाज़ किया तब भी। सहारा इवॉल्स बनाते समय भी सपना सबसे बड़े का था।

अकर्मण्यों की फौज!

यह बात अलग है कि इन बड़े बड़े सपनों को परवान चढ़ाने के दौरान या बाद में वह बुलन्दियों को स्थायी नहीं बना पाए। मगर इस नाकामी की वजह व्यावसायिक दृष्टिकोण की अपरिपक्वता नहीं रही, बल्कि अपने शुरुआती दिनों के साथियों को आगे बढाने की भावनात्मक जिद थी। वह चाहते तो इन उद्यमों के व्यावसायिक प्रबंधन के लिए कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों की टीम आयात कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। बल्कि हमेशा पुराने साथियों पर भरोसा जताया। उन्हें बेहतरी के अवसर उपलब्ध कराए। इसलिए यह कहना उचित रहेगा कि उन्होंने हमेशा व्यावसायिकता के ऊपर भावनात्मकता को तरजीह दी। आप उनके इस बिजनेस फिलॉसॉफी को खारिज़ कर सकते हैं, क्योंकि इसने वित्तीय घाटा ही जना, मगर आपको यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि इसने पूरी कम्पनी को हमेशा भावनात्मक रूप से जोड़े रखा। उस दौर में शायद ही कोई कर्मचारी कभी कम्पनी से पलायन की सोच भी पाता था। यह और बात है कि इस बिजनेस मॉडल में कई अयोग्य और निरे अनुत्पादक भी बरसोबरस पलते रहे। उन्हें नौकरी से निकाला नहीं जा सकता था। जानते हैं क्यों? क्योंकि यह अधिकार 12 लाख कर्मचारियों वाली विशाल कम्पनी में सिर्फ और सिर्फ सहाराश्री के हाथों में सुरक्षित था।

कभी कभी मैं सोचता था कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है भला? अगर कम्पनी को उन्नयन के मार्ग पर अग्रसर रखना है तो अकर्मण्यों की फौज ढोने का क्या फायदा? मगर उनकी सोच अलग थी।  वह कहते- परिवार में सब एक समान कहां होते हैं? फिर भी सबको साथ लेकर चलना ही पड़ता है। तभी परिवार का आगे बढ़ता है। इसी में पूरे परिवार का कल्याण है। आज सोचता हूं तो लगता है वाकई ऐसा कम्पनी मालिक कहां मिलता है दुनिया में? मिल ही नहीं सकता, क्योंकि धन कमाना अलग बात है, कर्मचारियों का समर्पण कमाना अलग बात। इस भौतिकवादी युग में जहां कम्पनी मालिक अपने कर्मचारियों का हद दर्जे तक शोषण करने पर आमादा दिखते हैं, वहां कर्मचारियों के कल्याण के लिए घाटे का सौदा सिर्फ सहाराश्री ही कर सकते थे। आज लाखों सहाराकर्मी अगर मर्माहत हैं, अनाथ महसूस कर रहे हैं तो यह सहाराश्री के जाने के बाद भी उनके जिंदा होने का प्रमाण है।

छोटे कर्मचारियों का विशेष ख्याल

सहाराश्री विरले कम्पनी मालिक थे, जो सबसे निचले पायदान पर सेवारत कर्मचारियों का विशेष खयाल रखते थे। वह कहते थे- न कोई भूमिका छोटी होती है और न ही कोई इंसान। कम्पनी में हर कोई अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार योगदान करता है। लिहाज़ा किसी का महत्व कम या ज्यादा नहीं होता। मानविकी की इतनी गहरी मीमांसा शायद ही किसी मानवशास्त्री ने की हो। वह अपनी इस सोच-समझ का श्रेय अपने पिता सुधीर कुमार रॉय को देते हुए अक्सर इम्प्लॉई असेंबली में एक वाकया सुनाते थे- “उन दिनों पिताजी गोरखपुर के पास एक शुगर फैक्टरी में ऊंचे ओहदे पर सेवारत थे। एक दिन धोबी कपड़े प्रेस कर घर लाया तो मैंने ( तब कोई दस-बारह साल के रहे होंगे) प्रेस सही न होने पर धोबी को कुछ कड़े शब्द कह दिए। तब पिताजी ने सुन लिया और मुझे डांटते हुए कहा कि तुमने धोबी को उसका काम छोटा समझते हुए छोटा समझ लिया। इसलिए उसे ऐसे कड़े शब्दों से आहत किया। लेकिन क्या तुम उसके जैसा कपड़े प्रेस कर सकते हो? क्या तुम्हें पता है कि कौन सा कपड़ा प्रेस करते समय प्रेस का तापमान क्या होना चाहिए? तुम जानते हो कि प्रेस को गरम कैसे किया जाता है? नहीं न? फिर तुमने यह कैसे तय कर लिया कि वह जो काम करता है वह छोटा है? आसान है?  तुम्हें अपनी गलती के लिए माफी मांगनी चाहिए। मुझे पिताजी की बात समझ आ गई। मैं समझ गया कि दुनिया का कोई काम, कोई हुनर छोटा नहीं होता। लिहाज़ा उसे करने वाला भी छोटा नहीं ही सकता।”

सहाराश्री जब यह वाकया सुनाते तो मन में यही भाव आता था कि शायद अपनी बात में वजन लाने के लिए वह मनगढ़ंत किस्सा सुना रहे हैं। तब हम सहाराश्री की अभिभूत करने वाली विराट जीवनशैली को देखते हुए सहसा उनके किस्से पर यकीन ही नहीं कर पाते थे। फिर वर्ष 2001 (हां, सम्भवतः यही साल रहा होगा) की होली आई। दिल्ली के औरंगजेब रोड स्थित कोठी में सहाराश्री ने होली मिलन का आयोजन रखा। हम सब उस भव्य आयोजन का हिस्सा बने। रंग, गुलाल के साथ छप्पनभोग। उम्दा स्कॉच व्हिस्की, वोदका, रम, जिन के साथ रेड और व्हाइट वाइन भी। सहाराश्री कोठी के पीछे चल रहे आयोजन में स्विमिंग पूल के किनारे सिंहासननुमा चौड़ी कुर्सी पर विराजमान थे। सभी उनसे बारी-बारी मिलते, रंग-गुलाल उड़ाते और फिर खाने-पीने में जुट जाते। इस बीच एक कर्मचारी (शायद सहारा टाइम मैगजीन में सब एडिटर था) सहाराश्री तक पहुंचा और चरण स्पर्श करते हुए वहीं ढेर हो गया। उसने खूब पी रखी थी। सहाराश्री समझ चुके थे। उसका सिर अपनी गोदी में रखकर थोड़ी देर हाथ फेरते रहे। पुचकारते रहे। फिर अपने ड्राइवर को बुलवाया। कहा, इसे घर छोड़कर आओ। साथ में एक सिक्योरिटी गार्ड भी ले जाओ, ताकि रास्ते में कोई परेशानी न हो। सब मेरे सामने घटित हुआ। आंखें खुली रह गईं। याद आया वह धोबी वाला किस्सा। अब उस किस्से की सच्चाई पर रत्तीभर संदेह नहीं रह गया था। अचानक खुद को बौना महसूस करने लगा था। इतना बड़ा आदमी और इतना विनम्र? हम तो जरा सी उन्नति-उपलब्धि पर मचल उठते हैं। औकात से बाहर हो जाते हैं। यहीं मानिए, ज़िंदगी का एक बेहद अहम सबक हमने होली जैसे हुड़दंग वाले दिन सीखा। यह सबक हमेशा मन-मस्तिष्क पर चस्पा रहा और आगे की ज़िंदगी के लिए बहुत बड़ी निधि के रूप में संचित-संरक्षित।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)