हजारों प्रजातियां नहीं दे रही पर्यावरण में कोई योगदान।

18वीं सदी से अब तक दुनिया से पेड़-पौधों की 800 प्रजातियां खत्म हो चुकी है। हजारों प्रजातियां ऐसी स्थिति में आ गईं है कि वो पर्यावरण में कोई योगदान नहीं दे रही हैं। कुछ तो इतनी दुर्लभ हो चुकी हैं कि वो प्रजनन भी नहीं कर पा रहे हैं। इंग्लैंड के रॉयल बॉटैनिक गार्डेन्स के वैज्ञानिकों का मानना है पेड़-पौधों की प्रजातियों के विलुप्त होने का सही रिकॉर्ड न हो पाना भी एक मुसीबत है। अगर डिटेल में स्टडी करेंगे तो विलुप्त होने वाले पेड़-पौधों की संख्या बहुत ज्यादा है।कंजरवेशन रिसर्चर एमीर निक लुघाधा ने कहा ज्यादातर पेड़-पौधों के खत्म होने की प्रक्रिया बेहद शांति से होती है। किसी को पता नहीं चलता। पेड़-पौधों का खत्म होना बेहद चिंताजनक है, क्योंकि हम ये नहीं जानते कि किस प्रजाति का इकोसिस्टम पर किस तरह का असर पड़ रहा है। हमें यह भी नहीं पता होता कि कौन सी पौधे की प्रजाति भविष्य के लिए कितनी फायदेमंद है। पूरी दुनिया में जंगलों का काटा जाना बेहद दुखद है। ये बेहद बुरी स्थिति है।

जंगलों को काटकर मवेशियों को बढ़ाया जा रहा है। पाम ऑयल प्लांटेशन लगाए जा रहे हैं। शहर बसाए जा रहे हैं। इनकी वजह से दुनिया की बची हुई 40 फीसदी प्रजातियां भी खतरे में हैं। ये बात तो दो साल पहले वर्ल्ड्स प्लांट एंड फंजाई रिपोर्ट में बता दी गई थी। बंदर की शक्ल वाले ऑर्चिड और वूडी वाइन्स से लेकर पिक्सी कप लाइचेन और स्पीयरमॉस कार्पेटिंग तक दुनिया में इस समय 4।23 लाख प्रजातियां हैं। ये स्तनधारी जीवों से 78 गुना ज्यादा हैं।

अगर आप पूरी दुनिया के जीवों के वजन को देखेंगे तो सारी ग्रीनरी का वजन 82 फीसदी है। लेकिन पौधे जानवरों की तुलना में पहुंच से ज्यादा बाहर हैं। आप जानवरों के फुटप्रिंट पर नजर रख सकते हैं। लेकिन पौधों के साथ तो ऐसा होता नहीं है। इस वजह से पेड़-पौधों की सिर्फ 15 फीसदी प्रजातियां ही जांची जा सकी हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। इसलिए यह बता पाना मुश्किल है कि इस समय कितनी प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।

सिर्फ प्लांट किंगडन की बात करें तो एंजियोस्पर्म सबसे ज्यादा विभिन्नताओं वाला समूह है। इसमें 3।69 लाख से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं। इसमें जापानीज विस्टेरिया और ईस्टर्न रेडबड ट्री जैसे अलग-अलग रंगीन पौधे भी होते हैं। अगर फर्न और मोसेस की बात करें तो उनमें ही 34 हजार प्रजातियां हैं। कोनिफर्स जैसे डगलर फर और वेस्टर्न हेमलॉक की दुनिया में 1100 प्रजातियां मौजूद हैं। आमतौर पर पेड़-पौधे की दो प्रजातियां हर साल विलुप्त हो जाती हैं।

पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिकों ने दुर्लभ पौधों को बचाने की मुहिम चला रही है। ऐसे गार्डेन्स बनाए गए हैं, जिन्हें पौधों का चर्च कहा जाता है। इन जगहों पर दुर्लभ पौधों को बचाया जाता है। हालांकि पेड़-पौधों को बचाने की मुहिम बहुत बड़ी और व्यापक नहीं है, इसलिए खतरा बरकरार है। साउथ पैसिफिक आइलैंड पर साल 2003 से पहले सेंट हेलेना ऑलिव ट्री पाया जाता था। लेकिन अब नहीं है। वह विलुप्त होने से पहले आखिरी बार 2003 में ही खिला था।

कई सदियों तक वैज्ञानिकों ने सिर्फ 537 पौधों का ही दस्तावेजीकरण किया था। उनका रिकॉर्ड बनाया गया। पिछले 22 सालों के बीच में वैज्ञानिकों ने हर साल 2100 से 2600 नई प्रजातियों का कैटालॉग बनाना शुरू किया। सिर्फ इतना ही नहीं ऐसी प्रयोगशालाएं बनाई गईं जहां पर दुर्लभ और विलुप्त हो रहे पौधों को संभाल कर रखा जा सके। उन्हें पनपने का मौका दिया जा सके। लेकिन पेड़-पौधों के खत्म होने से धरती पर नई तरह की आफत आने की आशंका है। (एएमएपी)