महाराणा राज सिंह ने महज 23 साल की उम्र में मेवाड़ की गद्दी संभाली थी. उन्होंने 28 साल तक मेवाड़ पर राज किया. मुगल उनके नाम से ही कांपते थे. उनका ज्यादातर समय मुगलों से लड़ाई में गुजरा लेकिन कभी हार नहीं मानी। उन्होंने कभी जनता का साथ नहीं छोड़ा. उनके विकास कार्यों की निशानियां आज भी राजस्थान में मौजूद हैं. महाराणा प्रताप के वंशज महाराणा राज सिंह की मौत 22 अक्तूबर 1680 को मुगलों से लड़ते हुए रात्रि विश्राम के दौरान हुई थी. आइए जानते हैं उनसे जुड़े कुछ किस्से।

कहते हैं कि उनके भोजन में किसी अपने ने ही धोखे से जहरीला पदार्थ मिला दिया था. उनकी मौत 51 साल की उम्र में हुई. उन्हें 23 वर्ष की उम्र में मेवाड़ का सिंहासन मिल गया था, जिसे उन्होंने बखूबी संभाला. उनकी बहादुरी के कई किस्से इतिहास में दर्ज हैं. मेवाड़ की जब भी चर्चा होगी तो महाराणा राज सिंह की भी चर्चा जरूर होगी।

औरंगजेब को दी थी चुनौती

औरंगजेब का शासन क्रूरता की हद तक पहुंच गया था. वह मंदिरों को तोड़ने के अभियान में जुटा हुआ था. मंदिर तोड़ना और मस्जिद का निर्माण कराना उसका मकसद बन गया था. इसी क्रम में मथुरा में भी मंदिरों को तोड़ने का सिलसिला चला. केशवदेव और श्रीनाथ जी मंदिर भी इसी क्रम में थे. सूचना मिलते ही हिन्दू चिंतित हो उठे. तब के पुजारी दामोदर दास भगवान का विग्रह लेकर निकल पड़े. वह नहीं चाहते थे कि मुगल सैनिक भगवान को छू सकें. बैलगाड़ी में भगवान का विग्रह लेकर पुजारी और उनके कुछ अन्य साथी इधर-उधर शरण मांगते घूम रहे थे।

कराया मंदिर का निर्माण

औरंगजेब ने एक आदेश पारित किया कि जो इन ब्राह्मणों को शरण देगा, स्वाभाविक रूप से मुगलों का दुश्मन माना जाएगा. उसके आतंक से किसी ने इन ब्राह्मणों को शरण देने की हिम्मत नहीं जुटाई. ये ब्राह्मण महाराणा राज सिंह तक पहुंचे. उनसे शरण की मांग की और महाराणा ने न केवल शरण दी बल्कि यहां तक कह दिया कि एक लाख राजपूत सैनिकों की हत्या के बाद ही मुगल श्रीनाथ जी के विग्रह को छू सकेंगे. वे औरंगजेब के आदेश से बेपरवाह भी थे. मंदिर टूट जाने और भगवान की मूर्ति न मिलने से खफा औरंगजेब को जब यह जानकारी मिली तो वह आगबबूला हो उठा. उधर संरक्षण देने के साथ ही महाराणा राज सिंह ने ब्राह्मणों से मंदिर के लिए जगह चुनने की अपील की. उदयपुर के पास श्रीनाथ जी को मंदिर में स्थापित कर दिया गया. तारीख थी 20 फरवरी 1672. तब से आज तक श्रीनाथ जी का मंदिर नाथ द्वारा के नाम से भक्तों की आस्था का केंद्र है।

किशनगढ़ की राजकुमारी से ऐसे ही शादी

किशनगढ़ के राजा मान सिंह की बेटी राजकुमारी चारुमति की खूबसूरती के चर्चे थे. यह खबर औरंगजेब को मिली तो उसने राजा मान सिंह से उनकी बेटी का हाथ मांग लिया. राजा मान सिंह ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. उन्हें लगा कि अगर नहीं मानेगे तो औरंगजेब किशनगढ़ पर हमला बोल देगा.ऐसे में उन्हें सबसे आसान यही लगा कि बेटी का विवाह कर दिया जाए. उधर पिता की ओर से सूचना मिलते ही राजकुमारी विचलित हो उठी. उन्होंने महाराणा राज सिंह को यह जानकारी देने के साथ ही विवाह का प्रस्ताव भेज दिया. महाराणा राज सिंह तैयार हो गए. उधर औरंगजेब शादी को चल चुका था. उससे पहले महाराणा राज सिंह किशनगढ़ पहुंचे और विवाह कर लिया. इस सूचना के बाद औरंगजेब हमलावर हुआ और मेवाड़ राज्य को काफी नुकसान पहुंचाया लेकिन महाराणा उसके सामने झुके नहीं. वे बराबर लड़ते रहे।

औरंगजेब के इस फरमान का किया विरोध

औरंगजेब ने जजिया कर लगाने का फरमान सुनाया तो महाराणा राज सिंह ने उसका तगड़ा विरोध किया क्योंकि इस कर से हर अमीर-गरीब प्रभावित हो रहा था. उन्होंने मंदिरों को तोड़ने के अभियान का भी विरोध किया था. यह कर हिंदुओं पर ही लगाया गया था और महाराणा हिंदुओं की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए जाने जाते थे.

भगवान में उनकी आस्था देखने लायक थी।

जब श्रीनाथ जी की पालकी निकली तो महाराणा ने खुद कंधा दिया. उनके विरोध की जानकारियां जब औरंगजेब तक पहुंचती तब वह आगबबूला हो उठता और एक नया हमला करने का हुकुम सुना देता. वे शरण में आए लोगों को आश्रय देते. सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार भी. उनकी न्यायप्रियता, प्रजा के प्रति प्यार धीरे-धीरे मशहूर हो चला था. किसी काम से प्रसन्न होने पर वे सोना-चांदी जैसी बहुमूल्य वस्तुएं भी प्रजा पर लुटाने से नहीं चूकते थे।

औरंगजेब के भाई को दी थी शरण

औरंगजेब के आतंक के बावजूद उन्होंने उसके भाई दारा शिकोह को शरण दे दी थी. इस बात की जानकारी मिलने के बाद औरंगजेब और क्रोधित हुआ. वह ऐसा समय था जब दारा शिकोह की मदद में जो सामने आता, उसे औरंगजेब के आतंक का सामना करना पड़ता था. जबकि दारा उसका सगा भाई था लेकिन विचारधारा में एकदम विपरीत. उनकी बनवाई हुई राजसमंद झील और वहाँ लगे प्रशस्ति पत्र आज भी महाराणा राज सिंह के शासन की स्वर्णिम गवाही देते हैं. मंदिर, धर्मशाला, तालाब, कूप जैसी चीजों को बनाने में वे हमेशा आगे रहे. वे सबसे प्यार करते थे लेकिन मुगलों से उनका 36 का रिश्ता था।

महाराणा और अकबर के बेटों में जंग

राम वल्लभ सोमानी की किताब, हिस्ट्री ऑफ मेवाड़ के अनुसार, साल 1599 में शहजादे सलीम ने मेवाड़ पर चढ़ाई शुरू की. मुगलों की ताकत मेवाड़ से काफी ज्यादा थी. इसका उन्हें फायदा हुआ. और उन्होंने कई राजपूत थानों पर कब्ज़ा कर लिया. हालांकि जंगल और पहाड़ियों में युद्ध करने से मुग़ल सेना बचती रही. वहां राजपूत उन पर सवा बैठते थे. महाराणा से धीरज धरते हुए लड़ाई को लम्बा खींचा. और एक बार फिर हारे क्षेत्रों को वापिस हासिल कर लिया. शहजादा सलीम में धीरज नहीं था. वही शहज़ादा सलीम जिन्हें बाद में मुग़ल बादशाह जहांगीर के रूप में जाना गया. उन्होंने मेवाड़ में सर खपाने के बजाय बंगाल जाने का फैसला किया. हालांकि जल्द ही वहाँ से उनकी वापसी हुई।1603 में सलीम पहले से भी ज़्यादा बड़ी मुग़ल फौज लेकर मेवाड़ की ओर रवाना हुए. अकबर का मेवाड़ विजय का ख़्वाब पूरा करने का ये आख़िरी मौका था. इस बार सलीम के साथ कई कच्छवाहा सरदार भी थे. महाराणा सलीम के आने का इंतज़ार कर रहे थे. ऐन मौके पर पता चला कि मुग़ल फौज फतेहपुर में ही रुक गयी है. ये वो दौर था, जहां से मुगलिया सल्तनत में ‘तख़्त या ताबूत’ की कहावत शुरू होती है।

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मेवाड़ कैम्पेन के दौरान सलीम के दिल में बगावत घर कर चुकी थी. वजह थी उनका अपना बेटा, खुसरौ मिर्ज़ा. अकबर चाहते थे कि सलीम के बजाय खुसरौ बादशाह बने. इतिहास गवाह है कि उनके संबंध अपने बेटे सलीम से तनातनी भरे थे. सलीम को ये बात हरगिज़ गवारा नहीं थी. मेवाड़ जाते हुए भी उनकी एक नजर आगरे पर लगी थी। फतेहपुर पहुंचने के बाद उन्होंने मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय अकबर को सन्देश भिजवाया कि जंग के लिए कुछ और फौजी दस्ते और रक़म भेजी जाए. अकबर ने सलीम की मांग नहीं मानी तो वो इलाहबाद की ओर निकल लिए. और अकबर का आखिरी मेवाड़ कैम्पेन धरा का धरा रह गया. दो साल बाद, अकबर की मृत्यु हो गई. सलीम गद्दी पर बैठे. अब उनका नाम जहांगीर था।

जो पिता नहीं कर पाया, वो बेटे ने किया

तख्तनशीं होते ही जहांगीर ने सबसे पहले मेवाड़ के घुटने टिकाने की सोची. तुज़ुक-ए-जहांगीरी में वो लिखते हैं,
“मेरे पिता के समय में भी कई बार राणा पर सेनाएं भेजी गई थीं किंतु उसने हार नहीं खाई थी. बादशाह बनते ही मैंने अपने बेटे शहजादे परवेज़ को एक बड़ी फौज, भारी खज़ाने और कई तोपों के साथ भेजा”.जहांगीर ने कई नामचीन सरदारों को परवेज़ के साथ भेजा. बादशाह ने परवेज़ से कहा था, अगर राणा मिलने और मातहत में रहना स्वीकार कर ले तो मुल्क को मत बिगाड़ना. जहांगीर को लगा था, इतनी बड़ी सेना देखकर महाराणा अमर सिंह संधि के लिए तैयार हो जाएंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महाराणा ने अपने पिता की तरह छापामार हमले किए. एक लम्बी लड़ाई के दौरान मुग़ल सेना ने मेवाड़ की जमीन को रौंद डाला लेकिन महाराणा को पकड़ने में नाकाम रहे।

महाराणा अमर सिंह

इस नाकामी से जहांगीर इतने नाराज हुए कि उन्होंने परवेज़ को युवराज पद से ही हटा दिया. इसके बाद जहांगीर ने एक और चाल चली. उन्होंने महाराणा अमर सिंह के चाचा सगर सिंह को मेवाड़ के मुग़ल कब्ज़े वाले हिस्सों का सरदार बना दिया. चाल ये थी कि ऐसा करते ही मेवाड़ के सरदार अमर सिंह को छोड़कर सगर सिंह के साथ आकर मिल जाते. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मेवाड़ के सरदार वफादारी निभाते रहे।

नाकाम कोशिशें

1605 से 1615 के बीच जहांगीर ने लगातार मेवाड़ की तरफ लश्कर भेजे. साल 1608 में 2000 बन्दूकचियों के साथ महाबत खां ने हमला किया. महाराणा के आदेश पर इस बार मोर्चा संभाला एक बहादुर राजपूत सरदार मेघसिंह ने. महाबत खां की हार हुई. महाबत के बाद अब्दुल्ला खां आया. उसे कुछ सफलता मिली. जिससे खुश होकर बादशाह ने उसे पांच हजारी मनसबदार बना दिया. साल 1611 आते-आते उसके भी पांव उखड़ गए और उसे गुजरात भेज दिया गया। अगला नंबर आया पहाड़ी राजा बासु का. लोककथाओं के अनुसार राजा बासु के मेवाड़ से अच्छे रिश्ते थे. और एक बार महाराणा अमर सिंह ने एक पुरोहित के हाथों मीराबाई की पूजी हुई एक मूर्ति भी दान में दी थी. इसके बावजूद जहांगीर के कौल पर बासु ने मेवाड़ फ़तेह की कोशिश की. यहां भी नतीजा सिफर रहा. आख़िरी मौका मिला मिर्जा अजीज कोका को. इस बार भी इतिहास ज्यों का त्यों रहा। लगातार मिल रही नाकामी से जहांगीर खिसिया गए थे. अंत में उन्होंने कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया. तुज़ुक-ए-जहांगीरी में वो लिखते हैं,
“हर काम का एक वक्त होता है, जब होना होता है, तभी काम होता है. मुझे ख़याल आया कि आगरा में मुझे कोई काम नहीं है और मेरे गए बिना मेवाड़ का काम ठीक से नहीं होगा. मैंने राणा को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए आगरा से अजमेर जाने का फैसला किया।

आख़िरी जंग

पिछली बार जब जहांगीर ने मेवाड़ पर हमला किया था, वो शहजादे थे. इस बार वो अपने शहजादे खुर्रम को साथ लेकर आए थे. आगे जाकर उनका नाम शाहजहां पड़ा. जहांगीर ने पिछली बार हार का मुंह देखा था. लेकिन इस बार वो हार बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. इसलिए सावधानी बरतते हुए उन्होंने खुर्रम को आगे भेजा और खुद अजमेर में रुक गए. इस बार मुग़ल सेना पिछले सभी हमलों से ज्यादा ताकतवर थी. मुग़ल सल्तनत के मातहत आने वाले सभी राजा, सरदार साथ में भेजे गए थे. मुगलों की तैयारी पूरी थी. छापामार हमलों से बचने के लिए मोर्चे बनाए गए. और महाराणा की राजधानी को चारों ओर से घेर लिया गया. मेवाड़ के लिए ये अपने अस्तित्व को बचाए रखने की आखिरी जंग थी।

मुग़ल बादशाह जहांगीर

खुर्रम ने अपनी सेना को चार हिस्सों में बांटा और मेवाड़ पर हमले का आदेश दिया. मुग़ल सेना चावण्ड की तरफ बढ़ी और राजधानी को अपने कब्ज़े में ले लिया. खुर्रम में एक-एक कर उत्तरी मेवाड़ के सारे थाने कब्ज़ा लिए और महाराणा को दक्षिण में सीमित कर दिया. महाराणा ने रात में होने वाली छापामार युद्ध का सहारा लिया. लेकिन इस तरह जीतने की संभावना न के बराबर थी. ज्यादा से ज्यादा वो मुग़ल सेना को नुकसान पहुंचा सकते थे. मेवाड़ के जमींदार मुगलों की कैद में जाते जा रहे थे. वहां उन्हें शर्मिंदा किया जाता. दो साल तक लड़ाई यूं ही चलती रही. अंत में जब राजपूत सेना की जान के लाले पड़ने लगे, कुछ सरदारों ने अपने तई खुर्रम के पास संधि प्रस्ताव भेजा. जहांगीर को मुंह-मांगी मुराद मिल गई थी। (एएमएपी)