प्रदीप सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह कारनामा करके दिखाया है जो इससे पहले कोई प्रधानमंत्री नहीं कर पाया था। ऐसा नहीं कि इससे पहले के किसी प्रधानमंत्री ने ऐसी कोशिश नहीं की। ऐसी कोशिश दो प्रधानमंत्री कर चुके हैं एक इंदिरा गांधी और दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव। दोनों नाकाम रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस कोशिश में कामयाब होते हुए दिख रहे हैं बल्कि मैं कह रहा हूं कामयाब हो चुके हैं। जिस तरह का देश में माहौल बना है वह बताता है कि उनको कामयाबी हासिल हो चुकी है।
सवाल यह है कि मैं किस चीज की बात कर रहा हूं। हर प्रधानमंत्री की और केंद्र की हर सरकार की बात कर रहा हूं। ऐसा राज्यों में भी होता है लेकिन अभी लोकसभा चुनाव चल रहे हैं इसलिए बात केंद्र सरकार की। सरकार की कोशिश होती है कि विपक्षी दलों के नेताओं, विपक्षी पार्टियों को कटघरे में खड़ा किया जाए। यानी आम जनता/मतदाता की नजर में उनकी छवि को धूमिल किया जाए। ऐसा करने के लिए तीन बातों का होना आवश्यक है। 1- जो कटघरे में खड़ा करना चाहता है उसकी छवि बेदाग हो। 2- जिसको कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं उसकी छवि पर लोगों को भरोसा ना हो बल्कि संदेह हो। और 3- कटघरे में खड़ा करने वाला व्यक्ति विश्वसनीय हो। यानी उसकी बात पर लोगों को भरोसा हो कि अगर वह बोल रहा है तो सच ही होगा। जब इस तरह का भरोसा हो जाता है तब यह काम आसान हो जाता है।
पहले दो प्रधानमंत्रियों की कोशिश की बात कर ले कि उन्होंने कैसे किया और उसका नतीजा क्या हुआ? पहले इंदिरा गांधी ने कोशिश की। उन्होंने 1975 में विपक्ष के सारे नेताओं को जेलों में ठूंस दिया। आरोप लगाया कि ये विदेशी शक्तियों से मिलकर उनके इशारे पर देश में अराजकता और राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना चाहते हैं। ये हमारी सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं। इसके जरिए देश को अस्थिर करना चाहते हैं। ये वो दौर था जब कांग्रेस पार्टी नारा लगाती थी- इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया। उस दौर में इंदिरा गांधी को लगता था कि उनकी सरकार को अस्थिर करना या सरकार का खतरे में पड़ना- यानी देश को अस्थिर करना- देश को खतरे में डालना।
ऐसे में उन्होंने बिना किसी मुकदमे के विपक्ष के सारे नेताओं को जेल में डाल दिया और उनको अपील, दलील और वकील की सुविधा भी नहीं दी गई। मौलिक अधिकार छीन लिए गए। पूरे देश के लोगों के जीने का अधिकार छीन लिया गया। 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई। उसकी वजह थी इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फैसला। इलाहाबाद हाई कोर्ट में राजनारायण ने एक याचिका फाइल की थी जो इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े थे। उसमें कहा गया था कि इंदिरा गाँधी ने चुनाव जीतने के लिए कदाचार यानी भ्रष्टाचार किया। गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। हालांकि वह तकनीकी रूप से ही थी लेकिन यह बात साबित हो गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द हो गई और चुनाव लड़ने पर रोक लग गई। उसके बाद इंदिरा गांधी को लगा कि अब बचने का एक ही रास्ता है कि इस ट्रैप को पलट दिया जाए। मेरे ऊपर आरोप लगा है तो पूरे विपक्ष को मैं देश के सामने कटघरे में खड़ा कर दूं। लोगों को बताऊं कि दरअसल यह देश को अस्थिर करने की विपक्ष की साजिश है। निशाना मैं नहीं देश है। इसलिए देश को बचाना है। उन्होंने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया और सारे मौलिक अधिकार छीन लिए। नतीजा क्या हुआ? जैसे ही इमरजेंसी हटी जनता ने इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाकर उन्हीं विपक्षी नेताओं को सत्ता सौंप दी जिनको इंदिरा गांधी ने कटघरे में खड़ा किया था, बिना मुकदमा- बिना अपील दलील वकील के- जेल में बंद किया था। मतदाताओं ने इंदिरा गाँधी को बता दिया कि हम आपकी बात पर भरोसा नहीं करते।
दरअसल इंदिरा गांधी ने विपक्ष के जिन नेताओं को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की, जनता की नजर में उनकी छवि बेदाग थी। और इंदिरा गांधी की छवि दागदार थी। इंदिरा गांधी की छवि को लेकर लोगों के मन में संदेह था। और इलाहाबाद हाई कोर्ट के जजमेंट के बाद जिस तरह से उन्होंने इमरजेंसी लगाई और इमरजेंसी में जो ज्यादतियां हुईं- उन सब ने उनकी छवि को और खराब किया। 1977 में जनता ने अपना फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गई। 1977 से पहले इस बात की कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि इंदिरा गांधी रायबरेली से अपना लोकसभा चुनाव हार जाएंगी और उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ। क्योंकि पहली शर्त पूरी होती थी विश्वसनीयता की। विपक्ष के नेताओं की विश्वसनीयता पर लोगों ने भरोसा किया। यह माना कि वे जो बातें कह रहे हैं वह सही हैं। इंदिरा गांधी की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में थी जिसका नुकसान उनको उठाना पड़ा।
तो किसी भी राजनेता को ऐसा काम करने से पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जनता के बीच में उसके बारे में धारणा क्या है। उसकी निष्ठा को लेकर संदेह है या नहीं- उसकी विश्वसनीयता है या नहीं। इंदिरा गांधी ने इस बात को दरकिनार किया और उसका नतीजा भुगता।
दूसरे प्रधानमंत्री जिन्होंने इस तरह की कोशिश की वे थे पीवी नरसिम्हाराव। आपको याद होगा 1995 का समय। जैन हवाला डायरी कांड हुआ था। एक हवाला ऑपरेटर पकड़ा गया था। सीबीआई छापे में उसके यहां से एक डायरी मिली थी जिसमें बहुत से विपक्षी और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के नाम थे। कि इनको इतना इतना चंदा दिया गया। इसके अलावा कोई सबूत नहीं था। उस डायरी के आधार पर सीबीआई जांच का आदेश हो गया। नरसिम्हाराव को लगा कि 1996 में लोकसभा चुनाव है। उनकी सरकार अलोकप्रिय चुकी थी। उनको लगा कि अगर अपने प्रतिद्वंद्वियों को चुनावी मैदान से ही बाहर कर देंगे, कंपटीशन से ही बाहर कर देंगे तो उनकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी। उनके लिए चुनाव जीतना आसान हो जाएगा। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच हुई। लेकिन उस जांच में कुछ नहीं निकला क्योंकि उस डायरी में नाम होने के अलावा और कोई प्रमाण नहीं मिला।
अब उसके बारे में बहुत सारी बातें कही जाती हैं। कहा जाता है कि सीबीआई ने ठीक से जांच नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने भी नरमी भर्ती। सीबीआई को सख्ती से जांच का आदेश नहीं देकर इन नेताओं को छूटने का मौका दिया। इन नेताओं में एक नाम का जिक्र बहुत जरूरी है। वह आज की और उस समय की राजनीति के फर्क को बताएगा और उनका नाम था भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उनका नाम भी जैन हवाला डायरी में था। जैसे ही उनका नाम आया और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई, उन्होंने ऐसी घोषणा की जो आज तक और कोई नेता कर नहीं पाया है। तब आपको पता चलेगा कि उस समय नैतिकता का पैमाना कैसा था और आज कैसा है? उन्होंने घोषणा की कि वह लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे रहे हैं और तब तक लोकसभा में कदम नहीं रखेंगे जब तक अदालत से इस आरोप से बरी नहीं हो जाते। यह बहुत बड़ा कदम था। अपने देश की अदालतों में मामले कितने लंबे चलते हैं, कब तक चलते हैं, कैसे चलते हैं- यह सबको पता है। उनका पूरा राजनीतिक करियर खत्म हो सकता था। वो राजनीति से हमेशा के लिए बाहर हो सकते थे। लेकिन उनको लगा कि अगर राजनीति में शुचिता को, नैतिक मानदंडों को बनाए रखना है तो इस तरह का उदाहरण पेश करना चाहिए और उन्होंने उदाहरण पेश किया। इसीलिए वह 1996 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़े। अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहे। उसके बाद जब बरी हो गए तब 1998 का चुनाव लड़े और फिर लोकसभा में पहुंचे। लालकृष्ण आडवाणी के इस कदम ने उनको जनता की नजर में बेदाग बना दिया। जनता पहले से मानती थी कि वह बेदाग हैं, उनको फंसाने की कोशिश की गई है। जनता ने सीबीआई के उस केस को और उसके अलावा प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव की सरकार के उस आरोप को पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया।
नरसिम्हाराव की कोशिश केवल विपक्ष के नेताओं तक सीमित नहीं थी। उनकी कोशिश अपनी पार्टी के भी बड़े नेताओं तक थी कि उनको भी कटघरे में खड़ा कर दिया जाए। उनकी छवि भी दागदार बना दी जाए जिससे उनके लिए चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाए। चुनाव लड़ें भी तो जीतना मुश्किल हो जाए। लेकिन नरसिम्हाराव को अपने इस प्रयास में सफलता नहीं मिली। 1996 का लोकसभा चुनाव हुआ तो उनकी पार्टी चुनाव हार गई, सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से किसी प्रधानमंत्री ने ऐसी कोशिश की नहीं। 2012 से अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था। देश में भ्रष्टाचार के विरोध में माहौल था। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद से नरेंद्र मोदी का लगातार यह दृढ़ मत रहा है कि भ्रष्टाचार के प्रति उनकी जीरो टॉलरेंस की पॉलिसी होगी। आज भी कहते हैं किसी भ्रष्टाचारी को बचने नहीं दूंगा। तो अब विपक्ष का आरोप है (जो एक समय जो आज का विपक्ष दूसरे दलों के साथ करता था) सरकार विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने, दागदार बताने की साजिश रच रही है। लेकिन उस समय और इस समय में बहुत बड़ा फर्क है। एक- जो कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है यानी नरेंद्र मोदी, उनकी छवि बेदाग है। उसके अलावा उनकी विश्वसनीयता असंदिग्ध है। देश में इस समय और कोई ऐसा नेता नहीं है जिसकी जनता में इस तरह की विश्वसनीयता हो कि जो नरेंद्र मोदी कहेंगे उसी को सही माने। उनकी नीयत पर जनता शक नहीं करती है चाहे वह जीएसटी का मामला हो या नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, कोरोना के दौरान लॉकडाउन का फैसला। जनता ने यह मानकर साथ दिया कि उन्होंने जो कुछ किया है अच्छी नीयत से किया है। हो सकता है उनका फैसला गलत हो। हो सकता है इससे नुकसान हो। लेकिन उन्होंने उस इरादे से नहीं किया है। इरादा सही है, नियत सही है। जनता का हित, देश का हित, समाज का हित- इसी को ध्यान में रखकर नरेंद्र मोदी ने फैसला लिया है।
विपक्ष के जो नेता कटघरे में खड़े नजर आ रहे हैं उनमें से कई ऐसे हैं जिनके खिलाफ मुकदमा उस समय दायर हुआ जब कांग्रेस पार्टी (यूपीए) की सरकार थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और सोनिया गांधी डिफैक्टो प्रधानमंत्री थीं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ नेशनल हेराल्ड का जो केस दायर हुआ है वह उसी समय दायर हुआ है। वे प्रचार करने को भले कहें कि नरेंद्र मोदी परेशान कर रहे हैं लेकिन केस उस समय का है। ये दोनों नेता जमानत पर रिहा हैं, बरी नहीं हुए हैं। दूसरी बात जांच एजेंसियां जिस तरह का प्रमाण जुटा रही हैं और जिन नेताओं के खिलाफ आरोप लग रहे हैं, जांच हो रही है, उनकी जनता में दागदार नेता की छवि है। जनता को उनकी निष्ठा, ईमानदारी पर संदेह है। भले ही उनकी बेईमानी पर अभी विश्वास न हो लेकिन इतना वो मानकर चलती है कि उन्होंने कुछ तो गड़बड़ किया है। उसमें आप आप गांधी परिवार से लेकर केजरीवाल तक सबको शामिल कर सकते हैं।
तीसरी बात ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तीनों स्तर के न्यायालयों से इन नेताओं, भ्रष्टाचार के आरोपियों, को कोई बड़ी राहत नहीं मिली है। इनके लिए सबसे बड़ी राहत है जमानत मिल जाना। जमानत को ये इस तरह सेलिब्रेट करते हैं जैसे सारे आरोपों से बरी हो गए हों। जो कानून का थोड़ा सा भी सामान्य ज्ञान रखता है वह जानता है कि जमानत मिलना आरोप से बरी होना नहीं है। दूसरी बात फिर से दोहराना चाहता हूं कि नरेंद्र मोदी की ईमानदारी पर लोगों को जरा भी संदेह नहीं है। इसलिए जिन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई हो रही है उनके प्रति जनता के मन में कोई सहानुभूति नहीं है। विपक्ष के इस आरोप पर लोग भरोसा करने को तैयार नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीतिक बदले की भावना से यह सब कर रहे हैं। उनका मानना है कि वह भ्रष्टाचार से सचमुच लड़ रहे हैं, लड़ना चाहते हैं। लोगों को जल्दी इस बात की है कि मुकदमे का फैसला जल्द हो और भ्रष्टाचार के आरोपी सजा पाएं।
1995 में राजनीति में नैतिकता का एक उदाहरण लालकृष्ण आडवानी ने स्थापित किया था। उसका ठीक उल्टा उदाहरण अरविंद केजरीवाल स्थापित कर रहे हैं कि संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि जेल जाने पर आप मुख्यमंत्री पद पर नहीं बने रह सकते। आपको याद होगा कि नवाब मलिक जो महाराष्ट्र के मंत्री थे और सत्येंद्र जैन जो दिल्ली के मंत्री थे, दोनों का मामला सुप्रीम कोर्ट में गया था कि ये मंत्री हैं, जेल में हैं, फिर भी मंत्री बने हुए हैं। इनको इस्तीफा देने के लिए कहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय भी कहा था यह नैतिकता का सवाल है और ऐसे व्यक्ति को पद पर बने नहीं रहना चाहिए, लेकिन हम कोई निर्देश नहीं दे सकते। इस बारे में कानून बनाने का अधिकार संसद और सरकार को है। सरकार कानून बनाए। संसद कानून बनाए। लेकिन हम ऐसा कोई निर्देश नहीं दे सकते। उसके बाद इन दोनों मंत्रियों का इस्तीफा हुआ था। लेकिन अरविंद केजरीवाल इस बात पर अड़े हुए हैं कि वह जेल से सरकार चलाएंगे।
मुझे अरविंद केजरीवाल का मामला अपने आप में एक उदाहरण की तरह लगता है जो दशकों तक कोट किया जाता रहेगा। एक समय के बाद हम लोगों को अरविंद केजरीवाल को धन्यवाद देना पड़ेगा क्योंकि अब सरकार के सामने ये यह कारण उपस्थित है कि वह संसद से कानून बनाए कि मुख्यमंत्री या कोई मंत्री, अगर वह जेल चला जाता है तो उसके साथ उसी तरह का व्यवहार होना चाहिए जिस तरह से सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों के साथ होता है। अगर वो 48 घंटे से ज्यादा कस्टडी या जेल में रहे तो अपने आप सस्पेंड हो जाते हैं। इसके बारे में कानून अगर बनेगा तो इसका श्रेय अरविंद केजरीवाल को मिलना चाहिए कि उनके कारण यह कानून बनने जा रहा है। संविधान निर्माता जब 1949-50 में संविधान बना रहे थे, तब उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि एक दिन ऐसा आएगा कि कोई मुख्यमंत्री या मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाएगा और कहेगा कि हम जेल में रहकर सरकार चलाएंगे और अपने पद पर बने रहेंगे।
विपक्ष के नेताओं को कटघरे में खड़ा करने का नरेंद्र मोदी का प्रयास इसलिए सफल हो रहा है कि जनता के बीच उनकी विश्वसनीयता है। जो नेता कटघरे में खड़े नजर आ रहे हैं जनता उनको बेदाग नहीं मानती इसलिए उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। मेरी नजर में यही मुद्दा 2024 के चुनाव का नतीजा तय करेगा। अगर लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता के आधार पर वोट देते हैं तो इन नेताओं की राजनीति के लिए बुरे दिन आने वाले हैं। इनका राजनीतिक भविष्य अंधकार में दिखाई दे रहा है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)