अमित शाह, केंद्रीय गृहमंत्री।
इस फिल्म, फिल्मांकन, डायरेक्शन, आर्ट डायरेक्शन और कलाकारों के अभिनय के बारे में मैं थोड़ा बाद में बात करूंगा। परंतु इस फिल्म के बारे में मैं जरूर बात करना चाहता हूं। मैं इतिहास का विद्यार्थी हूं। भारत के इतिहास को बहुत बारीकी से मैंने पढ़ा भी है और महसूस भी किया है। महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ एक लंबी लड़ाई का ऐसा पड़ाव था जो लगभग 25 सितंबर 1025 से लेकर 15 अगस्त 1947 तक चली। अनेक विदेशी आक्रांताओं ने हमारे मान बिंदुओं- हमारी सीमाओं- हमारी संस्कृति पर- आक्रमण किया और कई बार परास्त भी हुए। लेकिन उनसे आमने सामने की लड़ाई हिंदुस्तान की धरती पर कभी खत्म नहीं हुई। कभी कोई पृथ्वीराज बनकर लड़ा- कहीं कोई भीमदेव बनकर लड़ा- कोई सिंध के राजा दाहिर बनकर लड़ा- कोई अनंगपाल बनकर लड़ा। इन सबने लड़ते-लड़ते सालों की संस्कृति के प्रवाह को- जो हमने विश्व की श्रेष्ठ संस्कृति यहां पर बनाई थी- उसका संरक्षण भी किया और संवर्धन भी किया। जो आक्रांता विश्व भर में कभी पराजित नहीं हुए थे उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि हम गंगा-जमुना के मुहाने पर आकर डूब गए। वे हमें परास्त नहीं कर पाए।
किताबों से ज्यादा प्रभाव फिल्म का
कई बार सैकड़ों इतिहास की पुस्तकें जो स्वाभिमान और जन जागृति नहीं ला सकतीं- एक काव्य ला देता है। इसका उदाहरण ‘पृथ्वीराज रासो’ है जिस काव्य पर यह फिल्म बनी है। कई बार इतिहास के हजारों पृष्ठ किसी महानायक का जो वर्णन नहीं कर सकते- ढाई घंटे की फिल्म उस महानायक को फिर से जनमानस के अंदर महानायक के रूप में प्रस्थापित करती है। इसका उदाहरण फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ है। सम्राट पृथ्वीराज ना केवल मातृभूमि के लिए लड़ने वाले एक योद्धा की कहानी है बल्कि वह हमारी सांस्कृतिक ऊंचाइयों का परिचायक भी है। स्त्री के स्वातंत्र्य की- नारी के सशक्तिकरण (वुमन एंपावरमेंट) की बात करने वालों को सम्राट पृथ्वीराज फिल्म जरूर देखना चाहिए। मर्यादा की चौखट के अंदर महिला की स्वतंत्रता क्या हो सकती है- सम्मान क्या हो सकता है- समान अधिकार क्या हो सकता है- हमारी उन सांस्कृतिक ऊंचाइयों का बहुत ही सुंदरता से चित्रण भाई चंद्र प्रकाश जी (फिल्म के लेखक और निर्देशक) ने किया है। मैं उन्हें बहुत-बहुत साधुवाद देना चाहता हूं।
योद्धा जो एक-एक इंच जमीन पर लड़ा
सम्राट पृथ्वीराज कहानी एक ऐसे योद्धा की है जो अफगानिस्तान से लेकर दिल्ली तक एक-एक इंच जमीन पर लड़ा। ये 900-1000 साल की लड़ाई व्यर्थ नहीं गई है। सन 1947 में हम स्वतंत्र हुए। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि 2014 से जो सांस्कृतिक पुनर्जागरण का एक युग भारत में शुरू हुआ है वह फिर से एक बार भारत को उन ऊंचाइयों पर ले जाएगा जहां पर हम कभी थे। अनेक बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए भारत का गौरव, भारत की महानता, भारत की संस्कृति और हमारा स्वधर्म- आज फिर से उस रास्ते पर चल पड़ा है जो सालों पहले हम पूरी दुनिया को दिखाते रहे। फिल्म की कथा कितनी भी ताकतवर क्यों ना हो- अगर उसका दिग्दर्शक इसके अंदर प्राण नहीं पूरता है तो फिल्म कभी भी कथा नायक के साथ न्याय नहीं करती है। और अगर फिल्म के अभिनेता अभिनेत्री अभिनीत किए जा रहे पात्र को अपने अंदर जीवित नहीं करते हैं तो वे भी कथा नायक के साथ अन्याय करते हैं- कथा नायक को जीवित नहीं कर पाते हैं- कथा नायक को अमर नहीं बना सकते।
अभिनेताओं ने पात्रों को जीवंत किया
मैं बिल्कुल मन से- किसी भी दबाव के बगैर- कह रहा हूं भाई चंद्र प्रकाश द्विवेदी जी ने इस फिल्म को- पृथ्वीराज को- हूबहू फिर से पुनर्जीवित करने का काम किया है। पूरे भारत के अंदर इससे चेतना की जागृति होगी- हमारी सांस्कृतिक ऊंचाइयों की प्रस्तुति फिर से हम एक बार देख पाएंगे। अक्षय कुमार और मानुषी छिल्लर ने भी दो महान पात्रों- जिन्हौने भारत के गौरव, आत्मसम्मान और स्वधर्म के रक्षण के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया था- उनको आत्मसात करके बहुत अच्छी तरीके से पुनर्जीवित कर दिया। सिर्फ एक्टिंग करने से कोई पात्र- और वह भी ऐसे महानायक और महानायिका का पात्र- पुनर्जीवित नहीं होता है। एक्टिंग शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है। जब इस पात्रों को आप जीने लगते हैं तभी इस प्रकार की कथा से इस प्रकार की फिल्म तैयार हो सकती है। दोनों कलाकारों ने अपने अभिनीत पात्रों में जान डालने का काम किया है। मैं दोनों को बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
राजस्थान, दिल्ली के राजाओं की सादगी
मैं विशेष बधाई देना चाहूंगा फिल्म के रचनात्मक कला निर्देशन के लिए- जिन्होंने भी इस फिल्म का आर्ट डायरेक्शन किया है। परदे पर उनका नाम नहीं देख पाया- थोड़ी हड़बड़ी थी और फास्ट भी चल रहे थे नाम… मगर उनको भी साधुवाद देना चाहता हूं। राजस्थान और दिल्ली के राजाओं की सादगी को- जो इतिहास में वर्णित है- उसे बहुत अच्छे तरीके से पुनर्जीवित किया है। उस समय के, उस कालखंड के शस्त्र, परिवेश, सेनाओं की कुटीर से लेकर सेनाओं के रखरखाव की स्थिति- सभी फिर से पुनर्जीवित हो उठा। आर्ट डायरेक्टर को मेरी ओर से बहुत-बहुत बधाई। यह ऐसा क्षेत्र है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है- मगर मैं फिल्म सिर्फ देखने वाला व्यक्ति नहीं हूं दिल की गहराइयों से इसकी अनुभूति करने वाला व्यक्ति हूं। मैं इस फिल्म से जुड़ी पूरी टीम को बहुत बहुत बधाई देते हुए कहना चाहता हूं कि यह फिल्म पूरे देश भर के अंदर फिर से एक बार आत्मगौरव, राष्ट्रभक्ति और स्वधर्म के प्रति अपने अभिमान को फिर से जागृत करेगी- इसे लेकर मेरे मन में कोई संशय नहीं है।
(‘सम्राट पृथ्वीराज’ फिल्म देखने के बाद ये विचार व्यक्त किए)