वसंत पंचमी पर विशेष।

सत्यदेव त्रिपाठी।

संपादक मित्रों से बात करने के कई बार बड़े जोखिम होते हैं। अब देखिए, हाल-चाल जानने के लिए फोन किया तो वसंत ऋतु पर कुछ लिखने का प्रस्ताव रख दिया।वसंत एक मौसम है और मौसमी यानी सामयिक मुद्दों पर लिखना-लिखाना पत्रकारिता की प्रासंगिकता है, बल्कि वही उसकी प्रकृति बन गई है। तो वसंत में वसंत पर सामग्री चाहिए। लेकिन मैं ठहरा साहित्य का व्यक्ति। और सामयिकता साहित्य में प्रासंगिक नहीं होती। कालिदास ने सभीछह ऋतुओं पर लिखा ‘ऋतु संहार’ लेकिन हर ऋतु में ही तो उस पर नहीं लिखा होगा। ‘बारहमासा’ की भी परंपरा रहीजो हर महीने में ही तो लिखा नहीं गया होगा। कविता या कोई भी कला मौसम की मोहताज नहीं हो सकती–‘मौसम की मोहताज न कोयल, पैरों की मोहताज न पायल’। लेकिन समय पर काम करने की नसीहत जरूर देता है साहित्य। इसलिए यह भी कहा गया है- का बरखा जब कृषि सुखाने’!कालिदास ने वसंत पर चाहे जब लिखा हो, मैं तोवसंत व वर्षा में ही इन ऋतुओं पर लिखे का सस्वर पाठ करता रहा हूं। बड़ा आनंद भी आता है। यानी इसी प्रकार वसंत में वसंत पर पढ़ना पाठक को भी अच्छा लगेगा।

प्रिये, वसंत में सब कुछ मनोरम है

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साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते वसंत का शोर सुनते-सुनते ही बड़ा हुआ हूं लेकिन इस पर लिखने का ख्याल कभी नहीं आया। शायद इसलिए कि वसंत पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। बात कालिदास की निकल गई है तो मेरे इस प्रियतम कवि, कविकल गुरु को वसंत ही प्रिय नहीं लगी बल्कि उनका प्रेमी कहता है– प्रिये, वसंत में सब कुछ मनोरम है- सर्वं प्रिये चारुतरं वसंते:। फिर पद्माकर का वह कवित्त तो नवीं कक्षा में ही सत्यनारायण बाबू साहब ने रटवा डाला था। शायद एक तंतिया बाबू साहब पर वसंत बच्चों की जुबानी ही आता था। और पद्माकरजी ने सारी कायनात में वसंत को बौराया-बौरायाफिरता हुआ पाया था–‘बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगर्यो वसंत है’।

इस तरह एक वसंत तो यह, जो एक कवि के लिए बौराया हुआ आता है, तो उसके आने पर दूसरे कवि के लिए अखिल प्रकृति सुंदर हो जाती है। लेकिन इन दोनो कवियों के बीच में हुए महाकवि तुलसी, जिन्हें वर्षा-शरद इतनी प्रिय लगी कि कथा में इन ऋतुओं के आने का मौका बनाया और इनका स्वतंत्र वर्णन किया। तुलसीदास भीचाहते तो वसंत के लिए मौका निकाल सकते थे। तब ‘घन-घमंड नभ गरजत घोरा’में‘प्रिया हीन’होने के नाते ‘डरपत मन मोरा’न होता, वरन बौराये वसंत के असर से पूरी प्रकृति पर छाई रूमानियत में प्रिया के प्रति मन में सहज प्रेम उमड़ता।जैसे कालिदास के यहां वसंत के आते ही सभी सहजत: मदमस्त हो जाते हैं,वृक्षों में फूल आ जाते हैं-द्रुमा: सपुष्पं,जल में कमल खिल उठते हैं–सलिल: सपद्मा:, स्त्रियां कामातुर हो उठती हैं–स्त्रिय: सकामा:, हवाओं में सुगंध भर उठती है–पवन: सुगंधि:और मतवाली हवाओं से कामी पुरुषों के मन में प्रिया-मिलन की उत्सुकता पैदा होती है–मंदानिला: कामि-मनसां सहस्रोत्सुकत्वं कुर्वन्ति इतना ही नहीं, सामान्य मनुष्य से आगे बढ़कर वसंत ऋतु की मनोहर हवाएं ऋषि-मुनियों के मन को भी हर लेती हैं–मनोहराणि पवनानि चित्तं मुनेरपि हरंतिआदि-आदि।

लेकिन लगता है वसंत से तुलसीदासको जरूर कोई कुनह थी। तभी तो उनके यहां वसंत अपने आप नहीं आया।  अलबत्ता‘मानस’ में दो बार बनावटी वसंत लाया गया और दोनों बार अपने महनीय पात्रों (ऋषि नारद व देवाधिदेव शिव) से वसंत को हराकर लज्जित किया गया। तबन रहे कालिदास वरना अपने प्रिय वसंत के साथ ऐसा दुर्व्यवहार होते देख चुप न रहते। लेकिन तुलसीदास ने नकली वसंत में भी काम वही कराया जो कालिदास के असली वसंत में हुआ– कामोद्दीपन। बस उन्होंने कविकलगुरु की तरह एक-एक उपादान में न बताकर इकट्ठे कह दिया–‘सबके हृदय मदन अभिलाषा, लता निहारि नवहिं तरु साखा’। इस प्रकार कालिदास ने जहांस्त्री-पुरुषों की कामातुरता की सीधी चर्चा की, वहींलताओं के प्रति वृक्षों का प्रतीक रखकर तुलसीदासमांसल श्रृंगारिकता को बचा ले गए।लेकिन यहांभी पवन कामाग्नि को बढ़ाने का ही काम करता है–‘बहइ सुहावन त्रिविध बयारी, काम कृसानु बढ़ावन हारी’

यही मस्ती तो मदनोत्सव है

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काव्यों में यह सब यूं ही नहीं है बल्कि यह एक स्वस्थ व लोकप्रिय संस्कृति थी। वसंत की शुरुआत ‘वसंत पंचमी’ से होती थी। इस दिन को ‘मदनोत्सव’ के रूप में मनाने की परंपरा थी। राज दरबारों में बड़ा उत्सव होता था। पूरा शहर सजता था। नृत्य-गान के कार्यक्रम होते थे। यह सब ऐसे लुप्त हुआ कि आज इसके बारे में कम लोगों को ही पता होगा। हमारे बचपन में इस दिन छुट्टी होती थी। होलिका इसी दिन गड़ती थी। फिर डेढ़ महीने पूरे गांव के बच्चे-किशोर इसमें रोज शाम को खर-पत्तियां डालते थे जिसे होलिका माई का भोजन कहा जाता था। इसीलिए कभी नागा  नहीं पड़ने दिया जाता था। माना जाता था कि मां भूखी रह जाएगी। फाल्गुन पूर्णमासी की रात को होलिकादहन होता था। इस पूरे समय में बच्चे हर घर के सामने,खासकर नई दुल्हनों व भाभियों वाले घरों के सामने खड़े होकर ‘कबीर’ या ‘जोगिड़ा’(गालीमय कविता- दोहा छंद में) बोलते थे। यह छूट हमारी संस्कृति देती है। होलिकादहन की सुबह होली का त्योहार होता था। उस दिन पूरा गांव भांग पीता था, रंग खेलता था। यही मस्ती तो मदनोत्सव है। शायद इसीलिए इसे ऋतुराज कहा गया है। उस वक्त बड़े-बूढ़े भी खुलकर कबीर बोलते थे और उसमें कोई बंधन नहीं होता था– न उम्र का, न रिश्ते का, न जाति का। इस समूची संस्कृति का सारा मामला वर्जनामूलक समाज में दो महीने की स्वच्छंदता से बावस्ता है।इसी की काव्यमय अभिव्यक्ति है कालिदास का वसंत वर्णन और उसमें भरा पड़ा श्रृंगार– कामोद्दीपन। इसे साहित्य में वसंतवर्णन का आगार कह सकते हैं लेकिन यह सब लुप्त हो गया। अब तो नाममात्र की होलिका दो-चार दिन के लिए गड़ती है और कुछ बच्चे जाकर जला भी आते हैं। इसके बदले आज के समाज में पाश्चात्य संस्कृति की अंधाधुंध नकल में‘वेलेंटाइन डे’ आ गया है जिसमें वसंत से जुड़ी सारी परंपरा व संस्कृति खो गई है।

साहित्य में यदि वसंत में श्रृंगार रस की निष्पत्ति हो रही है तो उसका स्थायी भाव है प्रकृति, नदियां, बगीचे, फल-फूल, पहाड़आदि। शायद हमारा कोई कवि या मेरा जानीता कोई कवि समुद्र के किनारे न रहा क्योंकि प्रकृति का सबसे वृहदाकार रूप समुद्र वसंतविहार में प्रकृति का उपादान बनता मुझे नहीं दिखता। वे नदी के बाद ताल-तलैया की ओर चले जाते हैं–‘नदी उमगि अंबुधि मँह जाई, संगम करहिं तलाव-तलाई’मगरहम मुंबईवासियों को तो समुद्र के बिना गाढ़ा रोमांस महसूस भी नहीं होताऔर समुद्र वसंत का मोहताज नहीं है। उसमें निहित रूमानियत सदाबहार है। उसके किनारे हम ‘सरले सावन-भरले भादों’ याने किसी भी मौसम में चले जाएं, वैसी ही अनुभूति होती है। उसके किनारे जाने परन तो कविकुलगुरु कालिदास को कामोद्दीपन के लिए वसंत का मोहताज होना पड़ता, न तुलसी को कृत्रिम वसंत की सर्जना करनी होती। हां, वर्षा में जरूर बादलों-हवाओं की संगति पाकरसागर भी ज्यादा जोम पर आकर अधिक उत्तेजक हो जाता है लेकिन वसंत का उस पर कोई खास असरनहीं पड़ता।

गरज यह कि जैसे समुद्र मोहताज नहीं वसंत का वैसे हमारा क्लासिक कवि भी जब चाहता है अपने मन के आवेग व कवि-कौशल से कविता में वसंत ला देता है। लेकिन जहां यह तथ्य उनके काव्य-कौशल में छिपा रह जाता है वहीं हमारे आधुनिक युग ने इसे सीधे-सीधे कह दिया है। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी भी वसंत पर लिखने चले, तो शांति निकेतन में गुरुदेव कवींद्र रवींद्र के लगाए शिरीष से लेकर स्वत: उपजी विष्णुकांता (घास) तक में प्रकृति ही स्थायी भाव बनती दिखी। लेकिन वे इस घटाटोप में खोए नहीं वरन दो पृष्ठों में ही साफ-साफनिष्कर्ष दे दिया- ‘वसंत आता नहीं, ले आया जाता है। जो जब चाहे, ला सकता है’हमारे कवियों व समुद्र की तरह। यानी वसंत को मनुष्य की सर्जनात्मकता का प्रतीक बना दिया। उसके अधीन बना दिया। इन्हीं पंडितजी की परंपरा और विधा में हुए दूसरे पंडित विद्यानिवास मिश्र ने तो और सीधे-सीधेकह दिया-‘वसंत आ गया, पर कोई उत्कंठा नहीं’

स्थायी भाव प्रकृति का ही कोई नामोनिशान शेष नहीं

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और आज संपादक के उकसाने पर मैं लिखने बैठा हूं तोदोनो पंडितों में वसंत के ‘आने नहीं, ले आए जाने’ एवं ‘आ जाने पर भी उत्कंठा नहीं’ के रहस्य कुछ और तरह से थोड़े-थोड़े समझ में आ रहे हैं, जो तब न आए थे जब पढ़ा था। क्योंकि वसंत की उपस्थिति के लिए आज लिखते हुए गांव से लेकर बनारस व मुंबई तक के अपने तमाम रहिवासी माहौल को छान रहा हूंकि कुछ अपना अनुभूत लिखा जा सके। तो वसंत क्या, उसके स्थायी भाव प्रकृति का ही कोई नामोनिशान शेष नहीं दिख रहा। और जोड़-घटा रहा हूं तो पता लग रहा है कि जब ये दोनो पंडित ऐसा लिख रहे थे तब हम पैदा होकर होश संभाल रहे थे।

महुए झरने और दुलार भैया के गीत भी वसंत के ही मनुहार रहे

महज 22 घरों के नन्हें से पुरवे की सिवानों में 11 तो विशाल पीपल थे। सबमें देवता बसते थे। आज एक भी नहीं हैं।10 साल पहले गिरे डीह बाबा शायद आखिरी थे जिनके धराशायी चित्र मुंबई आकर भी रुला गए थे। पूरब की ओर विशाल वृक्षों का खूब घना बागीचा था जिसमें 80 फीसदी तो आम थे। हवाओं से झरे आमों से ही पूरे गांव के घरों में चटनी-अचार बन जाते थे। डंडा-पत्थर मार कर तोड़ने की मनाही थी। टपके आम चूसने को भरपेट मिलते थे। चौथी-पांचवीं में पढ़ते समय शहर से वह ठेकेदार मुस्तफा आया और हम छह घर ब्राह्मण-ठाकुरों को पैसे देकर एक महीने में पूरे इलाके को वीरान कर गया था। मेरे बड़के बाबू को मुस्कुराते हुए पैसे थमाना और सिर नीचे किए हुए उनका पैसे थामना मुझे आज भी याद हैऔर गांव का एक तरफ से नंगा हो जाना भी। पश्चिम में पूरा जंगल था जिसमें गांव के सभी लोगों के कुछ-कुछ हिछाए (स्वेच्छा से बांट दिए) पेड़ थे। तीन पेड़ महुए के हमारे थे। हम तीनों भाई-बहन महुआ बीनने अल्लसुबह जाते। उनकी मादक महक और दुलार भैया के अपने महुएतले से उठी पिहक ‘महुआ के कुचवा मदन रस टपके कि बहे पुरवैया झकझोर निरमोहिया, छलकल गगरिया मोर की याद से नाक-कान आज भी सुगंधित हो उठते हैं, मन आनंदित हो जाता है।उस जंगल के उत्तरी सिरे पर पलाश के घने बड़े पेड़ होते थेजिनमें वसंत में खूब लाल-लाल फूल खिलते थे। इन्हीं की प्रेरणा से ही अपने बाबा श्रीयुत हरिहर ‘शर्मा’ त्रिपाठी ने कविता लिखी होगी जिसमें पंक्ति आती है- ‘बन-बन पलासन में आग सों अंगारे लसे, बाह रे वसंत करि कहां पे लुकाइहैंलेकिन हाई स्कूल में पढ़ते हुए जब ऐसी कविताएंसमझने लायक हुए और यह जाना कि महुए झरने और दुलार भैया के गीत भी वसंत के ही मनुहार रहे,तब तक तो वह जंगल भी उसी पट्टा-प्रक्रिया में वीरान हो गया था जिसके लिए अदम ने लिखा है–‘खेत जो सीलिंग के थे, सब चक में शामिल हो गए, हमको पट्टे की नकल मिलती भी है तो ताल में’

और बड़े हुए तो शहर (आजमगढ़-जौनपुर) आने-जाने लगे। सड़क के दोनों ओर विशालछतनार वृक्ष होते थे। उनकी छांव में हल्की बयार भी हवा के झोंके की तरहऐसा तर किएरहती कि साइकिल पर डबल सवारी भी 35 किलोमीटर चलाने में पसीना नहीं आता था। आते-जाते राही किसी भी वृक्ष तले छाया में बैठ-लेट के सुस्ता लेते थे। अब वहां चार-छहमार्गी महामार्ग बन गए हैं, एकदम निचंट। दूर-दूर तक अफाट बिछी कांक्रीट की सड़कें। कहीं पत्ते-पौधे के निशां तक नहीं। किनारों पर पेड़ लगाने की योजना भी नहीं।बीच में डिवाइडर पर छोटे-छोटे वृक्ष लग रहे जिनमें न छाया होगी न फल। आज का समय कितना वसंतविरोधी हो गया है! और यह सड़कों पर ही नहीं चहुं ओर हो रहाहै। प्रकृति का आगार है हिमालय। आप जाकर देखिए, वहां भी जिस तरह पहाड़ कट रहे हैं और उस काटे पत्थरों से नदियां पट रही हैं, देश की सीमाएंजिस तरह नंगी हो रही हैंकि दिल दहल जाता है।और आज चहुं ओर ऐसा ही बहुत कुछ!तो क्या सब कुछ ऐसे ही हो रहा है!

ऐसे में बेचारा वसंत आए भी तो कहां। उसके आश्रय व आधार ही उजह (निर्मूल हो) गए। तभी तो आधुनिक कवि रघुवीर सहाय को वसंत आने का पहला पता कलेंडर से लगा एवं दफ्तर की छुट्टी से प्रमाणित हुआ वसंत पंचमी का दिन।आज के यांत्रिक-तकनीकी युग को इस उजहने से कोई उज्र नहीं। वातानुकूलित गाड़ियों में आज वृक्षों के छांव की दरकार नहीं। हिमालय से लेकर समुद्र तक अखिल सृष्टि में छाया पद्माकर का ‘बगर्यो वसंत’ आज मोबाइलों-कंप्यूटरों में आबाद है। इसी में प्रमुदित है यह युग। और हमारा वह भारतीय मदनोत्सव वाला वसंत आज इन्हीं गैलों में खो गया है।और हम कालिदासीय लोग कविकल गुरु की जानिब से झींक रहे हैं, उनके ‘चारुतरं’ के बदले अपनी प्रिया से ‘सर्वं प्रिये ‘चारुहीनं’ वसंते:’कहने को बाध्य हैं–कह कर गम गलत कर रहे हैं।

हां, इस बेकली में एक आश्रय है मेरे लिए भी-चचा गालिब का। उनके लिए ‘मदिरा की धार में ही सारी उमंगें समाई हैं।चाहे भले एक आलम के लिए नई-नई हरियाली लिए हुए वसंत आया हो’–एक आलम पे है तूफानि-ए-कैफियते-फस्ल, मौज-ए-सब्जा-ए-नौखेज से ता मौजै शराब।पर क्या करें मौज़े शराब में भी बह नहीं सकते। ब्राह्मणत्व ने उस लायक भी नहीं रखा!

(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)