नाटक समीक्षा।
सत्यदेव त्रिपाठी।
जीवन में कई सौ नाटकों के हज़ारों शोज़ देखने के बावजूद ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ जैसा क्लासिक नाटक़ मंच पर न देख पाने की चिर कसक पूरी हुई उस शाम, जब अपने पूर्व नाट्य-छात्र रहे विवेक त्रिपाठी के आमंत्रण पर शो देखने का मौक़ा मिला…। लेकिन कुंदन कुमार के सहाय के साथ नाटक का निर्देशन भी विवेक का ही है, यह तभी मालूम पड़ा, जब अंधेरी (मुम्बई)में स्थित ‘नानक चैम्बर्स’ के ‘बेरी जॉन स्कूल’ वाले प्रदर्शन-कक्ष में पहुँचा और कुर्सी पर रखी निर्देशिका हाथ में आयी। अपने अनकिये के भी बहव: प्रचार व दिखावे वाले इस युग में विवेक का यह गोपन-स्वभाव भी मुतासिर कर गया…। फिर थोड़ी ग्लानि भी हुई कि अपने बच्चे ऐसे महत्त्व के काम को भी छिपाए रख लेते हैं…! वरना कुछ और भी होता…। बहरहाल,
‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ के क्लासिक होने का राज़, जैसा कि नाट्य-रसिकों को प्रायः पता है, क़त्ल के रहस्य पर आधारित होना है। कला-साहित्य की भाषा में इसे ‘सामाजिक क्लासिक’ कह सकते हैं, क्योंकि जब तक संसार में प्राणी हैं, तब तक जैसे रहता है जीवन में प्रेम, उसी तरह रहने वाले हैं – घृणा-ग़ुस्सा व बदले के संहारक भाव और इनके आवेग में क़त्ल जैसे जुर्म भी और कातिल के प्रति कुतूहल-जिज्ञासा भी। माध्यम चाहे पाठ्य हो, या दृश्य व श्रवण…याने साहित्य हो या नाटक-फ़िल्म…, सभी में क़त्ल के रहस्य की खोज एक लोकप्रिय विषय है, जो बार-बार होता रहता है – होता रहेगा…।
किंतु इस नाटक में एक फ़र्क़ है। इसमें ‘कातिल कौन’ की खोज नहीं है, जो प्रायः होती है, बल्कि फ़ैसला यह होना है कि अपने पिता के कातिल के रूप में जो एक किशोरवय लड़का पकड़ा गया है, वह सचमुच अपराधी है या नहीं। इस खोज का विधान यह है कि न्यायालय ने मामले की संवेदनशीलता व न्याय की अंतरिम बैधता के मद्दे नज़र एक पंच-समिति (ज्यूरी) गठित कर दी है, जिसने मुक़दमे की पूरी कार्यवाही देखी-सुनी है और अब उसे एक कमरे में बैठ कर तर्क-प्रमाण के ज़रिए आपसी बात-बहस के आधार पर फ़ैसला सुनाना है। शर्त यह है कि फ़ैसला सर्व सम्मति से होगा…और जब तक न होगा, बहस जारी रहेगी…।
नाटक के शब्दों में कहें, तो यह मामला उस लड़के के ‘क़सूरवार’ या ‘बेक़सूर’ होने पर टिका है। और क़सूरवार-बेक़सूर की खोज के इस खेल के ज़रिए लेखक ने मनुष्य की दमित कुंठाओं, हीन-उच्च भावनाओं, वर्ग-जाति…आदि से उपजे विद्वेषों एवं अन्यान्य प्रतिशोधों, दिखावों, आत्म-प्रचारों…आदि की कथा कही है। समिति के लोग उस मुजरिम बच्चे को अपनी इन्हीं वृत्तियों के अनुसार देखते हैं और मुजरिम के बहाने अपनी इच्छाओं-आग्रहों को पूरा करना चाह रहे हैं। शास्त्रीय भाषा में कहें, तो नाटक की गवाही में दुनिया का सच दृष्टिगत है। लेकिन इसी में एक सदस्य इन सबसे अलग वस्तुगत सच का रहनुमा भी है।
रेजिनाल्ड रोज़ द्वारा १९५७ में लिखे गये इस अमेरिकन नाटक का नाम ही है – ‘१२ ऐंग्री मेन’। याने मूल नाटक के लिए समिति के १२ लोग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। और असल में नाटक तो इन्हीं का है – मंच पर यही लोग हैं। ये लोग न मुजरिम है, न मक़्तूल; न वकील हैं, न गवाह – और जज भी नहीं हैं, लेकिन फिर भी सभी कुछ हैं यही लोग…,क्योंकि इन्हीं के बात-विमर्श से पूरी कथा हमारे सामने आती है। सारे गवाह-जज-मुजरिम-वकील…वग़ैरह साए शरीक लोग… और पूरा न्यायालय तथा क़त्ल व गवाहों के घर…आदि का समूचा परिवेश एवं उसमें घटित सब कुछ इसी कमरे में बैठे व टहलते हुए इन्हीं बारहो के क्रिया-व्यापारों व संवादों – याने उनके समग्र अभिनय में ही नुमायाँ होता है। कमरे में अभिनय का कोई सहायक साधन (मंचोपकरण) भी नहीं है – याने खाँटी अभिनय ही एकमेव आधार व माध्यम है। इसी से यह नाटक अभिनय की चुनौती है। अभिनय में सर्वांगता की शव-परीक्षा है। और नाट्य की दृष्टि से यही इस नाटक के विधान की सबसे बड़ी ख़ासियत है। इस तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ अभिनेताओं पर टिके होने से इसे एक निराबानी (बिना किसी घालमेल के) व खाँटी नाटक कह सकते हैं। और बारहो सदस्यों की इस प्रमुखता की नाट्य-दृष्टि के चलते ’१२ ऐंग्री मेन’ नाम ही सही ठहरता है।
लेकिन इसके हिंदी-रूपांतरकार व हिंदी में (या शायद हिंदुस्तान में भी) प्राय इसके पहले प्रस्तोता रहे रंजित कपूर, जो अपने विरल व महनीय नाट्यकर्म के चलते एक महान रंगकर्मी व ज़हीन नाट्यवेत्ता के रूप में सरनाम हैं, ने मूल लेखक से आगे की सोची…और नाम दिया – ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’, जो शुरू से अंत तक विषय की मूल प्रवृत्ति बनकर नाटक में समाहित है – याने नाटक इसी ‘रुके हुए फ़ैसले’ से बना है – वे बारहो भी इसी फ़ैसले के लिए हैं…। इसी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं…। फिर इसके साथ नाटक के नाम का बड़ा काम हो गया कि शब्दानुवाद में ‘बारह ग़ुस्सैल लोग’…जैसे नामों के द्रविड़ प्राणायाम से निजात मिली और एक नाट्योचित नाम मिला। इन बारहो के नाम नहीं हैं। इनकी अपनी-अपनी प्रवृत्तियाँ हैं, ये उन्हीं प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि बनकर आये हैं। और इस तरह यह नाटक अंतिम रूप में इन्हीं मानव-प्रवृत्तियों का ही ठहरता है। इन्हीं को उजागर व स्थापित करता है…और तब क़त्ल तथा कातिल की पहचान भी इन्हीं जीवन-वृत्तियों की पहचान का नाटक ही बन कर रह जाती है। और ये प्रवृत्तियाँ ही नाटक को क्लासिक बनाती हैं।
अब यहीं से ‘इमैगो थिएटर ग्रुप’ की इस प्रस्तुति पर आयें…लेकिन उस पर पहले एक छोटा-सा क्षेपक…
भाई, आप इमैगो भले हो, लेकिन नाटक तो हिंदी में करते हो। फिर ‘थिएटर ग्रुप’ क्यों होते हो? ‘इमैगो रंग़ समूह’ क्यों नहीं कह सकते? और यूँ हिंदी नाटक हिंदुस्तान में ही करते हो, तो ‘इमैगो’ भी क्यों हो? इसके लिए इतना तो अच्छा शब्द है – नीलाभ, जिसके सामने पानी भरे आपका इमैगो…!! इति क्षेपक…।
इमैगो की इस प्रस्तुति को देखते हुए बारह पात्रों को आठ कर देने की बात सबसे पहले ध्यान में आयी और गोया सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े…लेकिन साथ ही रंजित कपूर के नाम बदलने का इस्तक़बाल मन में उभरा, जो इस पर भी लागू हो गया, वरना तो इन बच्चों को ‘एट ऐंग्री मेन’ करना पड़ता…! ख़ैर, इस बारह से आठ करने को नाट्य-क्षेत्र में ‘सम्पादन-कला’ नाम से जाना जाता है, जो रंग़कर्म की एक ख़ास प्रवृत्ति के रूप में मान्य व ख़ासी प्रचलित भी है। और कहना होगा कि प्रिय विवेक त्रिपाठी ने आठ करने की कला को ऐसा साधा है (लेकिन अपना नाम यहाँ भी उजागर नहीं किया है – वही गोपन-वृत्ति) कि मूल को न जानने वाला इसे जान तो क्या, सूंघ भी नहीं सकता कि कोई परिवर्तन या सम्पादन हुआ है। इस तरह परिणाम में कोई अंतर नही आया है, प्रभाव में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है, जो इस प्रस्तुति की पहली व बड़ी ख़ासियत है। काश, १२ लोग सुलभ होते…फिर भी नाट्यगुर के लिए यह सम्पादन किया गया होता, तो इस कौशल की क्या ही ज़बरदस्त बात होती…!! पुनः यह कलाकारों के अभाव के चलते होता, तो भी कुछ बात बनती…। लेकिन यह तो ‘योग्य कलाकारों के अभाव’ के कारण हुआ है, वरना आज इस क्षेत्र में काम के इच्छुक ढेरों कलाकारों (फ़िल्म के लिए स्ट्रगलरों) की मुम्बई में आमद है…, जिसके चलते १२ के १५ करने की बात बन सकती है…। फिर भी ऐसा नहीं हो पा रहा…और यही ज्यादा दयनीय व चिंतनीय है…। इसी सबके चलते इस नाटक की यह इतनी कारगर सम्पादन-कला अपने परिणाम में भले ही सराहनीय हो, लेकिन कारण व प्रक्रिया में थिएटर के लिए क़तई माकूल नहीं, बल्कि कामचलाऊ ठहरती है!!
दूसरा अनोखापन इसमें कुल आठ में से पाँच नारी पात्र लेने का है – बल्कि लेने का नहीं, सहज भाव से उनके आने का है। वरना तो नाटक का मूल नाम ‘ट्वेल्व ऐंग्री मेन’ बताता है कि लेखक की संकल्पना में वीमेन जैसा कुछ था ही नहीं…और इतिहास गवाह है कि हामारे यहाँ पहले मंच पर वीमेन होती ही नहीं थीं। स्त्री भूमिकाएं भी नारी वेश में पुरुष ही करते थे। लेकिन उस इतिहास को आज के वर्तमान ने पूरा बदल दिया है, जिसे क्रांतिकारी विकास ही कहा जायेगा…। सो, इसके तहत जिस कार्यशाला के व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) रूप में यह प्रस्तुति तैयार हुई है, उसमें काफ़ी लड़कियाँ थीं… और थीं, तो आज स्त्री-विहीन नाटक में पुरुष की भूमिकाएँ कर रही हैं और नाटक व आज के समय की दृष्टि का शुभ सिला यह भी कि इसमें पुरुष वेश धरने का छद्म भी नहीं रहा…। क्योंकि पंच समिति में स्त्री क्यों नहीं, के अनपूछे प्रश्न का उत्तर बनकर यहाँ वे अपने वजूद के साथ आयी हैं, जो सोच में ज्यादा सही व प्रस्तुति में ज्यादा नाट्यमय बना है। और रंजितजी का दिया नाम ऐसा कालजयी सिद्ध हुआ कि यहाँ भी सध गया, वरना मूल नाम होता, तो ‘मेन’ को बदलना पड़ता। और उस वक्त तोलिखते हुए तो अंदाज़ा भी न रहा होगा कि यह नाम कभी इस रूप में भी सार्थक होगा।
अब मूल नाटक पर आयें…, कुशल सम्पादन के साथ इसको खेलने के लिए चुनना ही विवेक की स्तरीय रंग़-रुचि का प्रमाण है। और निर्देशन की सिधाई-सफ़ाई बड़ी कौशलपूर्ण है। और जैसा कि कहा गया – नाटक महज़ किरदारों पर आधारित है, तो उनके लिए कलाकारों के चयन से लेकर उनके नियोजन-संचालन और सबकी संगति बिठाते हुए समाहार तक ले जाना त्रिपाठी के विवेक का ही सिला है। उनकी गहरी सूझ-बूझ से ही सधा है। तो इसकी समीक्षा में भी पात्रत्व व अभिनय की चर्चा ही मुख्य होनी चाहिए। और नाटक में इन पात्रों के नाम नहीं, नम्बर हैं, जो पुन: इनके व्यक्ति नहीं, प्रवृत्ति होने का प्रमाण बनता है। और यह भी इंगित करता है कि नाटक के इरादे में ही इन लोगों की इयत्ता सिर्फ़ इस केस पर विचार करने (के उपादान) भर की है। इसके अलावा उनका कोई वजूद नहीं। यही इस नाटक की दोहरी कला है, जिसके तहत अंत में सिद्ध होता है क़ि सभी लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी मूल प्रवृत्ति से परिचालित हो रहे हैं…और अपने-अपने कारणों से उस आरोपी बच्चे को दो मिनट में क़सूरवार ठहराके निकलना चाहते रहे हैं…। यही नाटक का मर्म है। यही सिद्ध करना नाटककार का मक़सद भी है। लेकिन इस समूह में एक पात्र है, जिसके चलते मामले पर बहस शुरू होती है। और धीरे-धीरे आगे बढ़ाते रहने में बातें सामने आने लगती हैं और देखते-देखते वह पात्र सबका नेतृत्व करने वाले के रूप में स्थापित होते हुए पूरी बहस को एक अंजाम तक ले जाता है और इसी ‘ले जाने’ (नय करने) के चलते वह नायक जैसा बन जाता है – गोकि नायकत्व की कोई कल्पना नाटक में नहीं है – बारहो बराबर हैं। लेकिन इसी नेतृत्व-गुण के चलते शुरुआत हम भी उसी शख़्स से करें …।
सो, इस मुक़दमे के कर्त्ता-धर्ता बनने वाले अभिनेता हितेश कुमार अपनी भूमिका में काफ़ी सही जा रहे हैं – अच्छा निभाते हैं। प्रभाव भी अच्छा छोड़ते हैं…। उन्होंने जाने-अनजाने अपने काम में एक तटस्थता विकसित कर ली है। यह तत्त्व इस भूमिका में निहित भी है, लेकिन वह दिखने भर तक है – तटस्थ होना नहीं है। होने को वहीं तक सीमित रखना है, जहां तक उन्हें चुप रहना है – याने जब तक और पात्र बोल रहे हैं। लेकिन खुद के बोलते-करते हुए तटस्थता को परे फेंक कर उन्हें और तत्पर-चुस्त होना है। फेंकने-ओढ़ने के इस भाव-परिवर्तन को दर्शकों के लिए उजागर करना है, पर यह करने-दिखने को नाटकीय न होकर नाट्यमय होना है, वरना भूमिका फिसल सकती है। कुल मिलाकर हितेश को अपने काम पर और काम करना होगा…। इसके लिए रंजितजी की फ़िल्म में के॰के॰ रैना को ध्यान से देखा जा सकता है – भूमिका को ठीक से निभाने और ठीक उस जैसा हो जाने से बचने के लिए भी। और यह देखना कलागत प्रयत्न हो, नक़ल नहीं।
प्रायः सभी तो उस लड़के को कसूरवार मानने के पक्ष में थे, जिससे अलग उसे बेक़सूर देखने को लेकर विचार करने की पहल पर अधिकांश सदस्य भड़कते हैं, कुछेक बिदकते हैं, लेकिन इस इकले एतराज के साथ महज़ सहयोग देने की सदाशयता में खड़े होते हैं – समिति के सबसे बुजुर्ग सदस्य, जिन पर शेष सभी कौकियाते भी हैं। लेकिन बहस के अंतिम चरण पर सबसे निर्णायक सूत्र भी यही बुजुर्ग देते हैं, जिसमें क़त्ल होने की एकमात्र चश्मदीद गवाह औरत की आँख की ख़राबी प्रमाणित होती है और उसकी गवाही के निरस्त होने से लड़के का पक्ष सबल हो जाता है। इस युवा अभिनेता की बजुर्गीयत को साधने के लिए उन्हें एक पाँव से कमजोर बनाया गया है, जो उनके बोलने की धीमी गति को कुछ ढँकता भी था। लेकिन इस प्रस्तुति में इसी पात्र में उस युवक की भूमिका भी शामिल कर दी गयी है, जो चाकू चलाने की सही तरकीब बताकर लड़के को दोषी होने से बचाता है। लेकिन फिर लंगड़ी टांग से चाकू चलाने में वह तेज़ी नहीं आ पाती, जो दरकार है। याने दोनो भूमिकाओं में उम्र व तेवर का आपसी विरोध है। सो, दोनो क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। वो तो विश्वस्त अभिषेक यादव की कायिक उपस्थिति और बुढ़ाई के भाव काफ़ी सँभाल लेते हैं।
इनके ठीक विपरीत जो किसी भी क़ीमत पर बच्चे को फाँसी दिलवाना ही चाह रहे हैं, उनकी भूमिका को लेखक ने गहन मनोवैज्ञानिक रूप दिया है, जिसका बिलकुल अंत में खुलना ही पूरे नाटक को नाटक बनाता है, पर यहाँ तो पहले बताना ही होगा कि वे असल में इस आरोपी बच्चे में अपने बेटे को देख रहे हैं, जो इन्हें हर तरह से सताता है और ये कुछ कर नहीं पाते…!! आज हमारे देश में भी वृद्धों की यह एक बड़ी समस्या बन गयी है – शायद अमेरिका में पहले ही बन गयी रही हो। फिर नाटक विधा की यही सीमा भी है और अलहदा ख़ासियत भी कि कथा साहित्य की तरह इसमें विवेचन की उतनी गुंजाइश नहीं होती, जिसे जाने बिना बेटे के सामने इस बुजुर्ग की मजबूरी की पूरी स्थिति खुलती नहीं, तो सताने-सहने का मामला इकतरफ़ा होकर रह जाता है और पात्रत्व के मनोवैज्ञानिक रूप का परिपाक नहीं हो पाता…। किंतु नाटक अपना मनोवैज्ञानिक परिपाक पूरा करता है – कि वे अपनी इस अवचेतन ग्रंथि से परिचालित होकर इस आरोपी बच्चे को फाँसी दिलाकर बेटे के प्रति अपनी अतृप्त इच्छा की पूर्त्ति, अपनी पीड़ा का शमन चाहते हैं। इसे निभाने वाले अरिजित भट्टाचार्य पूरे नाटक तो बिलकुल सही हैं। बोलने-करने (संवादों-अदाओं) में आरोपी को सजा दिलाने की उनकी मंशा इस केस के प्रति ईमानदार ज़िम्मेदारी दिखती है। लेकिन जब अन्य सभी पात्रों को आरोपी के पक्ष में चले जाने पर टूटते हैं, तो टूटने को नाट्यमय अंजाम नहीं दे पाते। इसके लिए वे भी फ़िल्म में पंकज कपूर को देख तो सकते हैं, पर तरीक़ा अपना निकालना होगा।
इस बुजुर्ग पात्र का टूटना वस्तुत: उस सुबुद्ध व सधे पात्र का टूटना है, जो बच्चे को क़सूरवार सिद्ध करने का सबसे सबल पक्षधर है। उसके पास बेक़सूर के पक्ष वालों के तर्कों-प्रमाणों का वाजिब तोड़ है। इसलिए बुज़ुर्गवार को अपने बेटे का बदला ले लेने का सबसे बड़ा आसरा उनमे दिखता है। जेली खेरज ने इस भूमिका को बड़ी सफ़ाई व शिद्दत से निभाया भी है – गोकि अपेक्षित सम्भावनाएँ निखर नहीं सकी है – बेशक ज्यादा अभ्यास एवं अधिक शोज़ की दरकार है। नाटक में दो ही पात्र ऐसे हैं, जो पूर्वग्रहों से मुक्त हैं – हितेश व जेली के। इनकी आपसी समक्षताओं के दृश्य तो हैं, लेकिन इसे स्थापित करने पर निर्देशक की उतनी और पैनी नज़र भी नहीं है, जितनी हो सकती थी। फ़िल्म में केके और ज़हीर की समक्षताएँ बड़ी पुरलुत्फ़ बन पड़ी हैं। यहाँ आलेख को सम्पादित करने से भी अवसर घटे हैं। खेरज टूटती हैं उसी चश्मदीद की गवाही के ग़लत होने के पक्के प्रमाण से। और यही नाटक का चरमोत्कर्ष है, लेकिन उनके टूटने के दृश्य में वह जान नहीं आती, जो ग़लत न होने की गलती के अहसास के साथ कशमकश में आते या आ सकती है। और फिर भग्नाश-पस्त पिता (अरिजित) को सांत्वना-सहारा देते हुए नाटक पूरा होता है…।
नाटक ऐसा है कि सभी चरित्र हमेशा एक दूसरे के साथ हैं, तो सामने भी हैं। लिहाज़ा इसकी सहज माँग है कि जब एक पात्र कुछ कह या कर रहा है, तो बाकियों को सजग-सक्रिय रहना है – हर कुछ से वास्ता रखना है। लेकिन इसमें दो के पात्रत्व में ऐसा है कि यहाँ जो कुछ हो रहा है, उससे वे निर्लिप्त भी हैं या उसके प्रति उनमें उलट का भाव भी है। वे इस पूरी बहस को व्यर्थ समझते हैं और अपने पूर्वग्रह के अनुसार लड़के को मुजरिम मान चुके हैं। सो, उसे सजा दिलाने का काम जल्दी से ख़त्म करके भाग जाना है। उनका इस बैठक से कोई सरोकार है ही नहीं…। लेखक से प्राथमिक सवाल है कि इतने ग़ैर ज़िम्मेदारों को ऐसी महत्वपूर्ण समिति में लेने का आधार क्या है? शायद विविध मानवीय प्रवृत्तियों को शामिल करने व विषय-आधारित पात्रों में वैविध्य लाने के लिए यह लेखक की खींचतान है, जिसे सही वितान नहीं मिला है…।
दोनो में एक तो फ़िल्म का टिकट लेकर बैठक में आने से ही अपनी ग़ैरज़िम्मेदारी सिद्ध कर देती है…। लेकिन फ़िल्म का समय ख़त्म हो जाने पर टिकिट फाड़ते हुए ‘ऊधौ का लेना, न माधौ का देना’ दिखाने के बाद अपनेआप बहस में जुट जाने को सरगम ठाकुर ने ठीक-ठीक पकड़ा है और करणीय को कर गयी हैं…। दूसरी का मूल भाव जातीय-वर्गीय विद्वेष का है। सो, उसके लिए आरोपी बच्चे का निम्न जाति से होना ही दोषी होना है। इसके पात्रत्व को मुक़दमे के कार्य-कारणों से कोई मतलब ही नहीं है। इस मानसिकता के बरक्स प्रस्तुति में उसके वर्ण-विद्वेष की भाषा मंच-कला के लिहाज़ से अतिरेकी हो गयी है, जो अर्चना सिंह के निभाने के हाव-भाव व उनके स्त्री होने से कुछ ज्यादा ही धुआँ दे गयी है। इसे कुछ संतुलित (बैलेंस) करके ही नाटक को कुछ ऊँचा उठाया जा सकता है।
एक बेहद ढुलमुल पात्र भी है, जो विचार-विमर्श के दौरान दोनो पक्षों से सहमत-असहमत होते हुए कसूरवार से बेक़सूर व फिर क़सूरवार के रूप में अपना मत दो-तीन बार बदल भी लेता है और साथियों के आक्रोश तथा दर्शकों के उपहास का पात्र बनता है – शायद इस किरदार के पीछे लेखक की यही मंशा भी रही हो। लेकिन असम प्रांत से होने के कारण हिंदी से ख़ासी अनभिज्ञ वागेश्वरी की संवाद याद करने की अपेक्षित तैयारी भी नहीं है और इनके किरदार के ढुलमुलपन के सही उपयोग, जिससे हास्य पैदा हो, पर प्रस्तोता की नज़र भी नहीं है। इन्हें श्रम व रियाज़ की बड़ी ज़रूरत है, लेकिन वे विश्वस्त इतनी हैं कि अटकती ज़रूर है, लेकिन पूरा भटकती नहीं – निभा देती हैं।
समूह की संचालक बनी त्विशा शर्मा अपनी भूमिका में छजती हैं, जिसका मतलब है कि पात्रत्व का चयन एकदम सही है। लेकिन ये अपने काम से काम की तरह तटस्थ दिखती हैं, लेकिन उन्हें काम पूरा कराने का काम मिला है। सो, उन्हें अपनी भूमिका में प्रस्तुति के साथ और अधिक जुड़ना-जुटना, याने इतना सरोकारयुक्त होना होगा कि वे सदन को सचमुच किसी फ़ैसले तक ले जाना चाहती हैं…की बात बने, जिसके लिए उन्हें कुछ अधिक संवाद व समय भी देना होगा…।
आठो कलाकारों को मंच पर एक पंक्ति में यूँ बिठा दिया गया है, जैसे कोई सेमिनार होना हो। हालाँकि नाटक शुरू होने पर वह सेमिनारी अहसास तिरोहित भी हो जाता है। फ़िल्म में तो उपयुक्त गोल मेज़ सभा है, जो कैमरे के कारण लहक जाता है, लेकिन इसी कारण नाटक बुझा-बुझा हो जायेगा…फिर भी अर्धवृत्त या कोई और आकार देने की सोचना ही होगा…।
निर्देशक की हिम्मत है कि उसने नये-नवचों के साथ ऐसा नाटक कर-करा लिया…। कहने की बात नहीं कि इस नाटक में संभावना व उर्वरता बहुत-बहुत है। यह रंजितजी की तरह फिर किसी के जीवन का मानक नाट्यकर्म (सिग्नेचर वर्क) हो सकता है। लेकिन इस प्रस्तुति को वैसा जीवन देने के लिए जान देकर काम करते हुए अपना भी एक जीवन देना होगा…। ऐसी तैयारी के बाद कुछ जानकारों, नाट्यरुचि-सम्पन्न लोगों के बीच ट्रायल शोज कर-कर के उस पर अनवरत सामूहिक विमर्श रखके सुझाव लिये-दिये जायें और उन पर अमल करते हुए, बार-बार बदलते-सुधारते हुए, जी-जाँगरतोड़ कोशिश व अभ्यास करते-कराते हुए इस तरह तैयार किया-कराया जाये कि उस स्तर का बन जाये…। लोग अन्य काम करते रहें…पर अंगऊँ की तरह इस पर लगातार मेहनत होती रहे, तो काम बड़ा है – बीहड़ है, पर असम्भव नहीं…। आमीन…!!