सत्यदेव त्रिपाठी।

अमितजी के पाए के कलाकार को जो करना था, जिसके ‘न होने’ या ‘होने की तरह न होने’ को अब तक हम दर्ज़ कर रहे थे, वे सारी प्रत्याशाएं बिग बी ने पूरी कर दीं अपनी दूसरी पारी में। इसे कालक्रम की सुविधा के लिए 21वीं सदी का उनका सिनेमा कह लें, पर उसे समझने के लिए 2007 में आयी महेश मांजरेकर की फिल्म ‘विरुद्ध’ को लेते हैं, जो बेटे की हत्या के विरुद्ध चलती है और ध्यान में रखें पहले दौर की कोई भी फिल्म– नमूने के लिए एक लीडिंग फिल्म ‘शहंशाह’, जो मूलत: पिता की हत्या के खिलाफ चलती है।


ऐंग्री यंग मैन काल का पूरा सिनेमा पानी भरे

बदला दोनों में है, पर एक में शहंशाह का और दूसरे में आम आदमी का। अब तालियां नहीं, कारगर कार्यवाही चाहिए, जो कोई सामान्य आदमी कर सके। और वह खाल ओढ़कर न शहंशाह बन सकता, न मशीनगन व बम-रिमोट जुटा सकता। न ही सूटेड-बूटेड होकर दनदनाते सबको ध्वस्त करते चल सकता। तो एक देसी पिस्तौल लेकर ढीला-ढाला पैण्ट व लाल रंग का स्वेटर पहने लफड़-लफड़ करते चलता हुआ उस अय्याश पूँजीपति के आवारा छोकरे की ऑफिस जाकर एक निरीह बूढ़ा मिलने का समय माँगता है। अन्दर पहुँचकर बेहद शांति से बात करता है और अपनी ताक़त तथा कोर्ट के विजयी फैसले से सरचढ़ा वह लड़का सब सच सुना जाता है कि कैसे- क्यों उसकी हत्या करायी। बूढ़ा बाप जेब में पड़े कैसेट में सब रेकॉर्ड कर लेता है। अब रेकॉर्ड सुनाकर माफीनामा लिखने की छोटी सी माँग करता है। किंतु उसके इनकार और सुरक्षा बन्दूकधारियों से घिर जाने की हालत में गोली चला देता है। और गॉर्ड की तरफ घूमकर अपने पर गोली चलाने का आह्वान करता है। लेकिन पूरा केस सबको पता है और तब गॉर्ड का एक वाक्य अमिताभ बच्चन की बदले वाली उन सारी फिल्मों पर हर तरह से भारी है– ‘आप को मार दूंगा सर, तो अपने बेटे को क्या मुँह दिखाऊंगा’! कहने की ज़रूरत नहीं कि कैसेट सुनकर जज इन्हें छोड़ देता है व इनके बेटे को निर्दोष घोषित करता है। मुआवज़े के लिए दरखास्त देंगे, पूछने पर बूढ़े का जवाब– ‘जज ने मेरे बेटे को निर्दोष कहा’। यह हिम्मत और यह विशाल हृदयता जिस तरह व्यक्त हुई है, दर्शक तक पहुँची है, जैसा असर छोड़ती है, के सामने ऐंग्री यंग मैन काल का पूरा सिनेमा पानी भरे।

इस दौर में ‘विरुद्ध’ जैसी सरोकार-युक्त व असरकारक फिल्मों में सत्याग्रह, खाकी, रण, आरक्षण, एकलव्य, लक्ष्य आदि के साथ सबसे ऊपर ‘पिंक’, जिसके दीपक सहगल को भूल पाना असम्भव है। लेकिन इस दौर की शीर्ष हैं अभिनय-कला के विरल मानक रचतीं ‘पा’, ‘ब्लैक’, ‘अक्स’… आदि फिल्में। ‘नि:शब्द’ में प्रेम की एक बोल्ड क्लिक है, यही थीम ‘चीनी कम’ में दिलचस्प विनोद के साथ बोल्डनेस का मानक रचती है। परिवार में बोल्ड बाग़वान, बाबुल, भूतनाथ व वक़्त हैं, जिनकी वैचारिकताएं व प्रगतिशीलताएं आज बेहद ज़रूरी हैं।

यह सचमुच शब्दश: ‘काया पलट’

इस तरह बिग बी ने इस परवर्ती दौर में ऐसी-ऐसी उम्दा फिल्में दी हैं, जिन्हें देखकर उस दौर पर कोफ्त और बढ़ जाती है। यह सचमुच शब्दश: ‘काया पलट’ है। न काया बुढ़ाकर शहंशाही उछलकूद-मारधाड़ के नाक़ाबिल होती, न चयन व काम का यह पलट होता। हाँ, इस उम्र में वही सब करने की मज़ेदार फिल्म ‘बुद्ढा होगा तेरा बाप’ के रूप में आयी। अब इस दौर का यह चयन मज़बूरी का सिला- ‘अशक्ये परमं साधु:, कुरूपा नारि पतिव्रता’ ही है, जिसे चाहें तो ‘जब बूढ़ा होता है कवि, उसकी कविता जवान होती है’, की उदात्तता भी दे दें। क्योंकि चाहे जिस कारण से सही, हमें सरोकारयुक्त और सिने कला को सार्थक करती अच्छी फिल्में मिलीं।

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बिग बी के व्यक्तित्त्व पर एक-दो बातें

प्रदर्शनपरक कला का शीर्ष चाहे भले हो सिनेमा, पर उसका जान-परान तो बसता है थियेटर में, जो कला की जीवंतता, चेतना की सामाजिकता तथा असहमति व विरोध के बिना चल नहीं सकता। अमिताभ बच्चन बचपन में नाटकों में काम करते थे और बच्चनजी की आत्मकथा के हवाले से जब एक बार अचानक बुखार आ जाने से मुख्य भूमिका वाला शो न कर पाये, तो किस क़दर तड़पते रहे। मराठी में श्रीराम लागू, नीलू फुले, सदाशिव आम्रपुरकर व नाना पाटेकर… आदि तथा हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी में नसीरुद्दीन शाह के नियमित रंगकर्म के समक्ष वे साल-दो साल में भी कोई नाटक कर देते और जिस ‘गंगा किनारे का छोरा’ होने को फिल्म ‘डॉन’ ने भुना लिया, उसी के किनारे अपने पूर्वजों के गृहनगर इलाहाबाद से लेकर बनारस आदि शहरों में सालाना एकाध शोज़ कर देते, तो हिन्दी थियेटर, जो आज भी मराठी-बंगला-मलयालम आदि के मुक़ाबले जन सामान्य से बहुत दूर है, हिन्दी प्रदेशों में भी कहाँ से कहाँ पहुंच जाता!

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राष्ट्रीय या सामाजिक मुद्दे पर नज़रिया

इसी तरह एक कलाकार के तौर पर यदि अमिताभ बच्चन के नागरिक-सोच का आकलन किया जाये, तो आज तक किसी भी राष्ट्रीय या सामाजिक मुद्दे पर कभी उनका कोई नज़रिया या कोई ‘से’ (say) याने विचार की कोई थाप-छाप नहीं दिखायी-सुनायी पड़ी। सभी लकीर के फकीर आम आदमियों और नवधनाढ्यों की तरह वे शादी-व्याहों आदि में हाई-फाई खेल-तमाशे व करोड़ों के खर्च करते रहे, मंगला-मंगली के अन्धविश्वास को इस से उस मन्दिर पूजते रहे, परिक्रमाएं व सिद्धिविनायक की नंगे पैर अनथक पद-यात्रायें करते रहे और यह सब करते हुए भी भूल गये अपने आदरणीय बाबूजी को, जो इन दोनों पक्षों को एक ही पंक्ति में जनहित में कैसे नकारते रहे- ‘देवता मेरे वही हैं, जो कि जीवन में पड़े संघर्ष करते, गीत गाते, मुस्कुराते और जो छाती बढ़ाते एक होने के लिए हर दिलजले से…’।

बाबूजी ने राजनीति में जाते हुए भी कहा था– तुम जहाँ (फिल्म में) हो, वहाँ पहले स्थान पर हो। जिस नये क्षेत्र में जा रहे हो, वहाँ शायद सबसे आख़िरी स्थान पर रहो… इस बात को सोच लेना। बावजूद इसके वे गये और बाद में अपने ही कहे मुताबिक बचपन के मित्र राजीव गान्धी के भावात्मक बुलावे से इनकार न कर सके, सो गये। और यह जाना बाबूजी की चेतावनी व मित्र के आवाहन की दोनों दृष्टियों से बहुत सही माना जायेगा, लेकिन फिर छोड़के चले आना! इसके कारणों में यहाँ जाना उचित इसलिए न होगा कि कुछ भी कहना आधिकारिक न होगा। और यहाँ ज़रूरी इसलिए नहीं कि उनके स्वभाव व मान्यताओं के जिस सन्दर्भ में चर्चा हो रही है, उसमें कारण की दरकार नहीं– कार्य से काम चल जायेगा और कार्य तो असन्दिग्ध है– छोड़ आना। याने व्यावहारिक सच यही है कि समस्या जो भी रही हो, उससे टकराने-निपटने की वृत्ति इस शहंशाह में नहीं है। और सिद्धांतत: यह कार्य मध्यम कोटि में आता है– ‘प्रारभ्य च विघ्न-विहिता: विरमन्ति मध्या:’ (कार्य आरम्भ करके छोड़ देने वाला मध्यम है) – भर्त्तृहरि। उत्तम तो वही होता है, जो एक बार शुरू किया, तो फिर लाखों कठिनाइयों से लड़ता है, छोड़ता नहीं… और अमिताभजी ने भागकर अपनी नम्बर एक वाली जगह पर आके सिद्ध कर दिया है कि न उनमें सामाजिक संघर्ष का माद्दा है, न कोई ख़ुदी। फिर तब से लगभग राजनीति-निरपेक्ष होके रहना भी सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर अपने सुख-साम्राज्य में महफूज़ रहने का प्रमाण है। लेकिन बड़े तो क्या, अदने कलाकार व अदने सच्चे मनुष्य का भी कोई स्वाभिमान होता है। आदमी तभी आदमी होता है, जब वह अपने चारो तरफ चलते उन तमाम कुछ से विरोध दर्ज़ करे, जिनसे वह असहमत है। जो ऐसा नहीं करता, वह या तो कायर है या बुद्धिहीन। लेकिन महानायक कभी ऐसा करते नज़र न आये। बाल ठाकरे के कुपित होने पर ए.के.हंगल, जो औक़ात में अमिताभ के सह्स्रांश भी न रहे, विरोध में खड़े हो गये। झुके नहीं और अपना बचाव भी कर गये, लेकिन ‘सरकार’ को लेकर जब अमिताभ से असहमति हुई, तो फिल्म अ-सरकार-क न हो जाये, के डर से उनके घर चले गये और समझौता कर आये। और उसके बाद पारिवारिक सम्बन्धों के हवाले भी देते रहे।

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हाँ, विरोध किया तो आयकर वालों से और कागज़ी, जिसमें अपने नाम-प्रताप से बच भी गये, धन बचा भी ले गये। लेकिन इतने केस अमितजी को ही लेकर आयकर में क्यों हुए, का जवाब फाइलें नहीं, फैसले नहीं, उस जन-मानस में होता है, जो दो ध्रुवों पर खड़ा है। एक है, जो उनकी आरती उसी तरह उतारता है, जैसे विजयकुमार श्रीवास्तव ‘शहंशाह’ की उतारते हैं। वह वर्ग तो अपने इस भगवान (महानायक नहीं) को गलत मान ही नहीं सकता। लेकिन एक छोटा-सा ही सही, दूसरा वर्ग है, जो समझना-जानना चाहता है कि हर मुद्दे पर इतना निरपेक्ष रहने वाला यह शहंशाह सिर्फ़ मनी मैटर में इतना सजग क्यों रहता है। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के एक एपिसोड में एक करोड़ जीतने वाली महिला को चेक देते हुए आयकर विभाग के प्रति उनकी कटुता न छिप ही पा रही थी, न कायदे से खुल ही रही थी।

किंतु अमिताभ के रूप में भारतीय संस्कृति का जो शालीन व परिष्कृत व्यक्तित्त्व इस कार्यक्रम में निखरा है, और जिसने आयोजन को भी जो निखार दिया है, सारी कमाऊ वृत्ति के बावजूद उसका आज की तारीख में कोई सानी नहीं और जिस हिन्दी को आज महरी की भाषा जैसा सिला देश का हर आदमी दे रहा है, उसे जिस सहजता के साथ जो गरिमा देते गये हैं अमिताभ बच्चन, उसकी दुर्निवारता डंके की चोट सिद्ध हो रही है।

यह सब कहना आज शायद ‘अँधेरे में चीख़’ ही सिद्ध होकर रह जाये, पर जिस तरह बिग बी की फिल्म है– ‘डरना ज़रूरी है’, उसी तरह हमारे लिए कभी न कभी यह कहना ज़रूरी ही था। (समाप्त)


पाँच दशकों के महानायकत्व पर ‘दूसरी’ नज़र-1