रमेश शर्मा।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी बुधवार, 17 जुलाई से आरंभ हो चुके चातुर्मास का भारतीय वाड्मय में विशेष महत्व है। इसका समापन कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की एकादशी को होगा जो इस वर्ष 12 नवंबर को है। मान्यता है कि इन चार माह में भगवान नारायण पाताल लोक में विश्राम करते हैं इसलिये कोई शुभ काम नहीं होते। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि यदि चातुर्मास में कोई पवित्र कार्य नहीं हो सकते तब सनातन परंपरा के सभी बड़े और महत्वपूर्ण त्योहार जैसे गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन, नागपंचमी, ऋषि पंचमी, गणेशोत्सव, जन्माष्टमी, संतान सप्तमी, करवा चौथ, हरियाली अमावस, पितृपक्ष, नवरात्र, दशहरा, दीवाली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि इसी अवधि में क्यों आते हैं। बड़े त्योहारों में केवल होली है जो इस चातुर्मास की अवधि से बाहर है।

यदि कोई शुभ कार्य नहीं हो सकते तो बड़े बड़े त्योहारों की श्रृंखला का प्रावधान इसी अवधि में क्यों किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर हमें इन आयोजनों के विश्लेषण में मिल जाता है। चातुर्मास में जो त्योहार होते हैं, और जिन आयोजन को या कार्यो को निषेध बताया गया है, इन दोनों का विचार करें तो हम पायेंगे कि वर्जित किये गये सभी आयोजन भले दिखने में सामूहिक लगते हों, उनका आयोजन समूह में होता हो पर वे सभी व्यक्तिगत हित के उत्सव हैं, व्यक्तिगत प्रभाव की स्थापना या प्रदर्शन के आयोजन हैं। उन आयोजनों में समाज या राष्ट्र हित निहित नहीं है। लेकिन इन चार माह में जिन त्योहारों का प्रावधान किया गया है वे सब व्यक्ति, परिवार, समाज राष्ट्र और लोक कल्याण के हैं।

व्यक्तिगत हित या व्यक्तित्व के प्रभाव का प्रदर्शन एक बात है और व्यक्ति या व्यक्तित्व का निर्माण बिल्कुल दूसरी बात है। जैसे विवाह, नामकरण, यज्ञोपवीत, नये घर का निर्माण आदि कार्य केवल व्यक्ति या परिवार हित तक ही सीमित होते हैं। इनसे व्यक्तिगत संतोष और सुख तो मिलता है लेकिन परिवार का आंतरिक उत्थान नहीं होता। जबकि दूसरी ओर जिन त्योहारों के आयोजन होते हैं वे सब किसी निजीत्व के प्रदर्शन या प्रसन्नता के लिये नहीं अपितु व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के सशक्तिकरण और समृद्धिकरण के निमित्त हैं। उनका उद्देश्य व्यक्ति को तन से, मन से, बुद्धि से और विवेक बल से समृद्ध बनाना है, परिवार को सशक्त बनाना है,  समाज को संगठित और उन्नत बनाना है और  संपूर्ण राष्ट्र एकता के सूत्र में आबद्ध करना है। त्योहारों के माध्यम से चातुर्मास की इस अवधि में व्यष्टि से समष्टि तक के एकाकार होने की यात्रा होती है।

भारतीय वाड्मय में कोई उत्सव, कोई त्योहार अथवा कोई परंपरा यूँ ही नहीं होती। उसके पीछे गहरा अनुसंधान होता है, व्यक्ति, समाज प्रकृति और सृष्टि का अध्ययन होता है। और निष्कर्ष से समाज को एकाकार किया जाता है। चातुर्मास के इन प्रावधानों में मानों शरीर विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, मनोविज्ञान,  प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञान ही नहीं अंतरिक्ष विज्ञान के निष्कर्ष को भी समाहित किया गया है। जो बात आधुनिक विज्ञान ने आज कही है उसके निष्कर्ष का क्रियान्वयन भारतीय परंपराओ के प्रचलन अनादि काल से हो रहा है। आधुनिक विज्ञान ने उन्नीसवी और बीसवी शताब्दी जाना कि मनुष्य सहित चींटी से लेकर हाथी तक संसार के सभी प्राणीं एक दूसरे के पूरक हैं। और सृष्टि की नियामक शक्ति प्रकृति है। प्रकृति से समन्वय और संतुलन बनाकर ही धरती पर जीवन समृद्ध और दीर्घ जीवी होगा। यदि प्रकृति का क्षय होगा तो किसी का जीवन नहीं बचेगा। यह बात भारतीय ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले खोज ली थी और इसकी सावधानियाँ ही इस चातुर्मास के आयोजन में है। इसे अनदेखा करके दुनियाँ ने विकास के नाम विनाश का मार्ग पकड़ लिया है। विज्ञान का दंभ भरने वाली दुनियाँ के सामने अब सत्य सामने आया है तो अब मार्ग बदलने की छटपटाहट है। लेकिन भारत ने यह सावधानी और प्रकृति से समन्वय के साथ जीवन के संचालन का प्रावधान सैकडों हजारों साल से कर रखा है। चातुर्मास में होने वाली उत्सव परंपरा में वे सभी सावधानियाँ हैं जिनमें व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र अपना विकास तो करे पर प्रकृति का संरक्षण भी साथ साथ चले।

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हम जानते हैं कि प्राणी को भोजन, पानी  श्वांस और आरोग्य सब प्रकृति से मिलता है। प्रकृति में जितने पदार्थ जिस अनुपात में हैं वे सब उसी अनुपात में मनुष्य देह के भीतर हैं। और यह सभी पदार्थ पाँच तत्वों से बने हैं। ये तत्व धरती, आकाश अग्नि जल और पवन हैं। यदि प्रकृति में इनके अनुपात में परिवर्तन होगा तो इसका प्रभाव प्राणी देह पर भी पड़ता है। इन चार महीने में इन पाँच तत्व के अनुपात में परिवर्तन आता है। यदि सावधानी से इस परिवर्तन के अनुरूप स्वयं को सक्षम न किया तो यह अवधि मनुष्य को रोग ग्रस्त बना देगी। चातुर्मास में भारतीय उत्सवों में न केवल इस अवधि के परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को सक्षम बनाना है अपितु इतना समृद्ध बनाना है कि फिर वर्ष भर तक कोई परिवर्तन व्यथित न कर सकेगा। इन चार माहों की त्योहार परंपरा का नियमन करने पर मनुष्य में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से सक्षमता तो आती ही है इसके अतिरिक्त उसका दृष्टिकोण सकारात्मक और सद्भाव से भरा होगा।

चातुर्मास की अवधि में उत्सव परंपरा को समझने के लिये तीन विषयों पर ध्यान देना होगा। एक मनुष्य की संरचना का रहस्य, दूसरा प्राणियों एवं वनस्पति का जीवन में उपयोगिता और तीसरा पुराणों में वर्णित कथाओं का संदेश। यदि कथाओं के रहस्य को समझेंगे तो पायेंगे कि उनमें प्रथम दोनों विन्दुओं के निष्कर्ष का समाधान है। इसके लिये हम मनुष्य को समझें। मनुष्य का व्यक्तित्व दो प्रकार का होता है। एक जो दिखाई देता है और दूसरा जो दिखाई नहीं देता। जैसे चेहरा हाथ पैर त्वचा, माँस हड्डियाँ हृदय, लीवर किडनी आदि सब देख सकते हैं पर मन, भाव विचार  वृत्ति, विवेक, ज्ञान, मेधा, प्राण शक्ति आदि दिखाई नहीं देते। जैसे शरीर के रोग होते हैं वेसे ही मन, प्राण चित्त वृत्ति भाव आदि भी रोग ग्रस्त होते हैं। जिस प्रकार शरीर की व्याधियाँ और रोग मनुष्य के मन, वचन विवेक विचार वृत्ति सबको प्रभावित करतीं हैं उसी प्रकार मन, भाव  विचारों की व्याधियाँ भी शरीर को प्रभावित करते हैं और इन सबका प्रभाव मनुष्य के जीवन ही नहीं वरन् पूरे वातावरण पर प्रभाव डालता है परिवार पर पड़ताहै  समाज पर पड़ता है और देश भर भी पड़ता है। व्यक्ति के स्वास्थ्य का प्रभाव उसकी प्रगति, उसके कार्य और कार्य की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। इसलिये भारतीय वाड्मय में शरीर के साथ मन बुद्धि ज्ञान विवेक के स्वास्थ्य और आत्म शुद्धि पर भी ध्यान दिया गया है। मनुष्य देह में मुख्यतया पाँच आयाम होते हैं।  एक शरीर जो भोजन अर्थात अन्न से आकार पाता है इसे “अन्नमय कोष” जिसे शरीर कहते हैं। दूसरी चेतना जिससे शरीर सक्रिय रहता है इसे “प्राण मय कोष” कहते हैं। तीसरा मन जिसके संकेत पर प्राण शक्ति सक्रिय होकर शरीर को संचालित करती है इसे “मनोमय कोष” कहते हैं। चौथा ज्ञान जिससे उत्पन्न विवेक मन की इच्छाओं को संतुलित करता है इसे “ज्ञानमय कोष” कहते हैं। और अंत में आत्मा आत्मा जिसका संबंध परमात्मा (यूनीवर्स की इनर्जी) से होता है, इसे आत्ममय कोष कहते हैं। चातुर्मास के इन चार माहीनों में मनुष्य को चींटी से हाथी तक सभी प्राणियों, वनस्पति में नन्ही दूव से लेकर विशाल वट और पीपल वृक्ष तक और अंतरिक्ष के सभी गृहों के साथ समन्वय करके जीवन को समृद्घ बनाने का रहस्य छुपा हुआ है। ये चातुर्मास प्राणी के  प्रकृति से एकाकार होने की महत्वपूर्ण अवधि है। यदि मनुष्य इस महत्वपूर्ण कालखंड में व्यक्तिगत उत्सव और कार्यों तक सीमित रहेगा तो कैसे स्वयं समुन्नत करेगा, इसलिए देव शयन की अवधारणा स्थापित कर मनुष्य को व्यक्तिगत प्रसन्नता के आयोजन से ऊपर उठकर,  व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान और साधना से जोड़ा गया है। आधुनिक विज्ञान भी अनुसंधान के बाद भारत की इस परंपरा के प्रावधान से आश्चर्यचकित है कि यदि इन चार माह में निर्देशित चर्या के अनुकूल जीवन जिया जाय तो प्राणी पूरे वर्ष भर निरोग रहेगा, सशक्त रहेगा और आत्म विश्वास से भरा रहेगा। उसमें अद्भुत रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी, परिवार, समाज और राष्ट्र एक सूत्र में बंधा रहेगा।

दूसरा विषय पुराण कथाओं का आता है। पुराणों के अनुसार चातुर्मास में देवशयन परंपरा का आरंभ सतयुग में राजा बलि के समय हुआ था। राजा बलि महर्षि कश्यप के वंशज और पुराण प्रसिद्ध हिरण्यकषिपु के प्रपौत्र थे। मान्यता है कि भगवान नारायण ने वामन अवतार में राजा बलि से धरती माँगकर उन्हें पाताल भेजा और स्वयं चार माह उनकी रक्षा का वचन दिया। इसलिए भगवान इन चार महीने की अवधि में धरती पर नहीं रहते अतएव कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।

हमें पुराण कथाओं के कथानक और उनमें वर्णित घटनाक्रम में नहीं उलझना चाहिए।  इन कथाओं में संदेश होता है। ठीक वैसा संदेश जैसे कबूतर का चित्र दिखाकर “क” पढ़ाया जाता है या एप्पल का चित्र दिखाकर  “A” समझाने का प्रयास होता है। वैसे ही पुराण कथाओं में प्रतीकों का जीवन दर्शन है, मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने के सूत्र हैं। हमें उन सूत्रों को ही समझना चाहिए। चातुर्मास के तीज त्योहारों के माध्यम से जो क्रम निर्धिरित किया गया है वह अद्भुत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)