पुण्यतिथि पर विशेष।
सूर्य प्रकाश सेमवाल।
भारतीय राजनीति में अजातशत्रु माने जाने वाले सार्वकालिक लोकप्रिय राजनेता भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी की तृतीय पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र उनके विराट व्यक्तित्व और श्रेष्ठ कृतित्व का पुण्य स्मरण कर रहा है। देश आजादी का अमृत उत्सव मना रहा है। कोरोना से दो हाथ करने के साथ आत्मनिर्भर भारत वैश्विक नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रगति, उन्नति और समृद्धि की ओर अग्रसर है। अटलजी के सहयात्री और भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक पूर्व उपप्रधानमंत्री 93 वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर अटलजी जैसे अपने वैचारिक योद्धा के दर्शन और रीति नीति को लेकर आगे बढ़ रही सरकार की प्रशंसा कर गौरव महसूस कर रहे हैं।
पचास वर्ष तक विपक्षी राजनीति की धुरी
इस सबके वावजूद नीति, नेता और मुद्दों से वंचित इस देश का विपक्ष भी है जो केवल सरकार के विरोध के नाम पर संसद में गतिरोध और होहल्ला ही नहीं कातिलाना हमलों के अमर्यादित आचरण तक भी पहुँच गया है। ऐसे में अटलजी की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। देश की संसद के अंदर और जनता के हृदय में पाँच दशक से ज्यादा राज करने वाले लोकप्रिय नेता पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी बखूबी समझते थे। पं. नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी की कांग्रेस तक के कालखण्ड में 50 वर्ष तक विपक्षी राजनीति की धुरी और जनमन के स्वर को मुखरित करने वाले अटलजी का आचरण, उनका व्यवहार और उनके भाषण एवं विचार एक दीर्घकालिक लोकतांत्रिक दर्शन का जीवंत दस्तावेज कहे जा सकते हैं। संसद के अंदर नैतिकता और माननीयों का कैसा आचरण हो- अटलजी ने इसकी जो सीख दी है वो भारतीय लोकतंत्र और संसदीय आचरण के लिए सदैव अनुकरणीय रहेगी।
अभी समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र में कॉंग्रेस, तृणमूल, आम आदमी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य विपक्षी दलों से जुड़े सांसदों ने खासकर राज्यसभा में विरोध के नाम पर जो हिंसा, अराजकता और सड़क-छाप व्यवहार दिखाया, अटलजी होते तो अत्यधिक दुखी और निराश होते।
राजनीतिक दलों को चेतावनी
देश की प्रबुद्ध जनता संसद के अंदर वर्तमान दौर में हो रही नौटंकी और स्तरहीन हो गई चर्चा में अनायास और सायास अटल जी को तो याद करेगी ही। परिवार, जाति विरादरी और तुष्टीकरण की राजनीति वालों पर अटलजी सदा भारी पड़े। देश की संसद के अंदर अपनी सोच के अनुकूल और प्रतिकूल तथा देश की जनता के कल्याण से जुड़े हर मुद्दे पर अटलजी ने तथ्यों और तर्कों के साथ सुलझी और परिपक्व चर्चा की। चाहे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ संसद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में साम्प्रदायिक आधार पर हुए चुनावों पर बहस का मुद्दा हो अथवा श्रीमती इंदिरा गांधी के समय देश में कई स्थानों पर हुए दंगों पर बेबाकी से सदन में अपनी राय रखने की बात। अटलजी ने सदैव देशहित में दूरदर्शितापूर्ण विधानों की वकालत की और वोटों के लिए तुष्टीकरण का विरोध। 70 के दशक में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उपस्थिति में ही उन्होंने सारी संसद को चेता दिया था- “सांप्रदायिकता को वोटों का खेल बना दिया गया है। मैं राजनीतिक दलों को चेतावनी देना चाहता हूं कि मुस्लिम संप्रदाय को बढ़ावा देकर अब आपको वोट भी नहीं मिलने वाले हैं”। (14 मई, 1970 को लोकसभा में देश में सांप्रदायिक तनाव से उत्पन्न स्थिति पर चर्चा में भाग लेते हुए)।
बेबाक तर्क
देश में आजादी के बाद से ही दक्षिणपंथी दलों और सांस्कृतिक संगठनों पर सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का आरोप लगाया जाता रहा। सुनियोजित तरीके से कॉंग्रेस ने वामपंथियों के सहारे समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित भाव से काम करने वाले सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों पर सदा हमला किया और उनके दुष्प्रचार में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। जब जनसंघ पर सदन में भी ऐसे निराधार आरोपों पर चर्चा हुई तो अटलजी ने बेबाक होकर तर्क के साथ अपनी बात रखी- “भारतीय जनसंघ एक असांप्रदायिक राज्य के आदर्श में विश्वास करता है। जिन्होंने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर लिया, वे हमारे ऊपर आक्षेप करने का दु:साहस न करें। इनकी सरकार मुस्लिम लीग के भरोसे टिकी है और हमको संप्रदायवादी बताते हैं। जो चुनाव में सांप्रदायिकता के आधार पर उम्मीदवार खड़े करते हैं वे हमको संप्रदायवादी बताते हैं। जो भारत को रब्बात के सम्मेलन में ले जा करके अपमान का विषय बनाते हैं वे हमें संप्रदायवादी बताते हैं।” (14 मई,1970)
सांप्रदायिकता से लड़ने का यह तरीका नहीं
अटल बिहारी वाजपेयी सत्तारूढ़ तंत्र के समक्ष सांप्रदायिकता और तुष्टीकरण को बार-बार तर्क के साथ उठाते रहे और देशहित में सच्चाई को बयां करने से कभी नहीं चूके। वे सांप्रदायिकता से लड़ने का ढोंग करने वाले कांग्रेसियों और वामपंथियों को उसी दौर से लताड़ने लगे थे जब साठ के दशक में देश की संसद में युवा जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने प्रवेश किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने उन्हें भावी भारत का प्रधानमंत्री होने की घोषणा यूं ही नहीं की थी। उदारमना अटल देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता के साथ हिन्दू-मुसलमान के साथ समान व्यवहार की पक्षधरता पर जोर देते रहे – “हम न भेदभाव चाहते हैं, न पक्षपात चाहते हैं। हमने संविधान की समान नागरिकता को स्वीकार किया है। भारतीय जनसंघ के दरवाजे भारत के सभी नागरिकों के लिए खुले हुए हैं। लेकिन अगर कोई मुसलमान जनसंघ में आता है तो दिल्ली में उसके खिलाफ पोस्टर लगाए जाते हैं कि वह एक काफिर हो गया है। जो भाषा मुस्लिम लीग बोलती थी मौलाना आजाद और अन्य राष्ट्रवादी मुसलमानों के खिलाफ, आज वही भाषा जनसंघ में आने वाले मुसलमानों के खिलाफ बोली जा रही है। सांप्रदायिकता से लड़ने का यह तरीका नहीं है।” (14 मई,1970)
एकात्मता परिषद मेरे दल के विरुद्ध प्रचार का हथियार
देश की आजादी के बाद विभिन्न वैधानिक संस्थानों और सरकारी समितियों में किस प्रकार सत्ताधारी तंत्र ने हिन्दुत्ववादी विचारधारा के पोषक संगठनों और लोगों को दरकिनार करते हुए इन संस्थाओं के माध्यम से उन्हें निपटाने की योजना बनाई थी इससे बखूबी परिचित वाजपेयी जी ने राष्ट्रीय एकात्मता परिषद में शामिल लोगों पर भी प्रश्न खड़े किए जो सर्वथा उपयुक्त एवं प्रासंगिक थे- “प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय एकात्मता परिषद का प्रारंभ किया था लेकिन उसे मेरे दल के विरुद्ध प्रचार करने का एक हथियार बनाया गया। मैं चाहता हूं कि राष्ट्रीय एकात्मता परिषद का विस्तार किया जाए।” (14 मई,1970)
…तो मुंह में ताले पड़ जाते हैं
अटलजी आगे सत्ताधारी तंत्र के एकाधिकार और स्वयं प्रधानमंत्री की कृपा पर बनने वाली राष्ट्रीय एकात्मता परिषद के लिए जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्यरत शीर्ष व्यक्तित्वों को स्थान देने की वकालत करते हुए संसद में उस समय जारी व्यवधान पर बेबाकी से राय देते दिखाई पड़ते हैं। आंख मूंदकर मुस्लिम कट्टरवाद पर मौन और आत्मरक्षा में अपनी बात रखने वाले हिन्दू संगठनों को सांप्रदायिक घोषित करने की वोट बैंक नीति पर गंभीरता के साथ उन्होंने जो चेतावनी दी है वह आज भी प्रासंगिक और उतनी ही प्रभावशाली दिखाई पड़ती है-
“राष्ट्रीय एकात्मता परिषद में श्री एस.सी. छागला, श्री हमीद देसाई, डॉ. जिलानी और श्री अनवर देहलवी जैसे राष्ट्रवादी नेता लिए जाएं। प्रधानमंत्री किसको लें, यह प्रधानमंत्री की कृपा पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मैं पूछना चाहता हूं क्या प्रधानमंत्री मुस्लिम संप्रदायवादियों के बारे में कुछ कहने के लिए तैयार हैं। यह बात छिपी हुई नहीं है कि भिवंडी में तामीर-ए-मिल्लत ने वातावरण बिगाड़ा है लेकिन क्या किसी ने तामीर-ए-मिल्लत का नाम लिया। शिवसेना की आलोचना हो रही है, होनी चाहिए… हमें भी लपेटा जा रहा है। लेकिन हम उसकी चिंता नहीं करते हैं। हम प्रधानमंत्री की कृपा से इस सदन में नहीं आए हैं उनके बावजूद आए हैं। इस राष्ट्र की जनता का हम भी प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन जब किसी मुस्लिम संप्रदायवादी संगठन का सवाल आता है तो मुंह में ताले पड़ जाते हैं, सांप सूंघ जाता है। जमाते-उल-उल्मा क्या कर रही है? जमाते-इस्लामी क्या कर रही है? तामीर-ए-मिल्लत ने भिवंडी में क्या किया? लेकिन है कोई बोलने वाला?” (14 मई,1970)
संप्रदायवाद के बढ़ने का कारण
देश में बढ़ती सांप्रदायिकता के प्रासंगिक तत्व अटलजी ने उस जमाने में ही अर्थात इंदिरा जी के सत्तारूढ़ रहते, कांग्रेस के विभाजन के बाद संप्रदायवादियों और वामपंथियों से कांग्रेस के गठजोड़ में ढूंढ निकाले थे- “क्या हर सवाल को राजनीति की कसौटी पर कसा जाएगा? जबसे कांग्रेस का विभाजन हुआ है देश में संप्रदायवादियों और साम्यवादियों का गठबंधन बढ़ गया है और उनको प्रधानमंत्री का वरदहस्त प्राप्त है। यह है संप्रदायवाद के बढ़ने का कारण?” (14 मई,1970)
ऐसे प्रचार से सावधान रहना चाहिए
महाराष्ट्र के भिवंडी में हुए दंगों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जनसंघ के अध्यक्ष और सदन के नेता अटल जी ने 14 मई, 1970 को संसद में एक लंबी चर्चा में निरुत्तर कर दिया था। आज संसद में असहिष्णुता के नाम पर मोदी सरकार को घेरने के बहाने जो काम कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष ने किया और दोनों ही सदनों के दो-दो सत्र होहल्ला में स्वाहा कर दिए उसकी भनक मानो अटल जी को चार दशक पूर्व से ही प्रतीत होती दिखाई पड़ रही थी। भारत के वामपंथी नेताओं और कांग्रेस पर क्षुद्र मानसिकता का पोषक होने की खुली घोषणा करते वे नहीं चूके- “हमें देश के भीतर काम करने वाले पाकिस्तानी तत्वों पर नजर रखनी होगी और कम्युनिस्ट पार्टी के उस हिस्से पर भी नजर रखनी होगी जो चीनपरस्त है और चीनपरस्त होने के कारण आज पाकिस्तान परस्त हो रहा है। मुझे खेद है कि कलकत्ता के दंगों के संबंध में जो बातें कही गईं वे एकतरफा हैं और एकतरफा बातें यह बताती हैं कि हम ऐसा प्रचार करना चाहते हैं जो प्रचार न तो सत्य पर आधारित है और न राष्ट्र के हितों के लिए काम में आ सकता है। ऐसे प्रचार से हमको सावधान रहना चाहिए।” (13 फरवरी, 1964 को राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव देते हुए)
सत्ता में बैठे रहने की लालसा पर कटाक्ष
भारतीय लोकतंत्र की विडंबना देखिए जहां एकतरफा बातों और दुष्प्रचार से कुछ लोगों के इशारों पर पूरे देश की संसद को अटलजी के समय भी बाधित किया जाता रहा और आज भी क्षुद्र राजनीति के लिए विपक्ष में रहकर यह अवरोध, गतिरोध एकदम हिंसक तांडव तक पहुँच गया है।
केवल कुर्सी को महत्त्व और देश को पीछे रखने की सोच वाली मानसिकता तथाकथित अभिव्यक्ति के खतरे के साथ-साथ असहिष्णुता के माहौल को रचने में सारी ऊर्जा लगती आई है। देश की जनता के हितों का हनन कर संसद में हो रहे विपक्ष के इस हिंसक तांडव से जनता को छलावा और धोखा ही मिलता है। आजादी के बाद से ही शुरू हुई सत्ता में बैठे रहने की इस लालसा पर अटलजी मानों कटाक्ष करते दीखते हैं-“हमें इन दंगों को पार्टी का चश्मा उतारकर देखना होगा और मैं चाहता हूं कि कामरेड डांगे चश्मे को उतारकर इन दंगों को देखें। मुझे खुशी है कि उन्होंने अपना चश्मा उतार लिया- दलगत स्वार्थों को अलग रखकर इस पर विचार करना होगा, वोटों की चिंता को छोड़कर राष्ट्र को बचाने की चिंता करनी होगी।” (14 मई,1970)
किसी के पाप पर पर्दा डालने की आवश्यकता नहीं
सांप्रदायिकता को अलग-अलग रूप से व्याख्यायित करने वालों को उलाहना देते हुए अटलजी ने इसे भावी पीढ़ियों के लिए नुकसानदायक बताते हुए सदन में जनता की अपेक्षा पर खरी उतरने वाली भूमिका निभाने का आह्वान किया – “क्या हम देश की एकता का विचार करके नहीं चल सकते? यह बहस इस बात को स्पष्ट करेगी कि यह सदन, इस सदन में जिन दलों को प्रतिनिधित्व मिला है वे दल और उन दलों के प्रवक्ता इस महत्वपूर्ण समस्या पर कैसा दृष्टिकोण अपनाते हैं। हमें सच्चाई का सामना करना होगा। सच्चाई कितनी भी कठोर हो, कितनी भी भयानक हो, उसका उद्घाटन करना पड़ेगा। आज लाग-लपेट से काम नहीं चलेगा, किसी के पाप के ऊपर पर्दा डालने की आवश्यकता नहीं है।” (14 मई,1970)
कुल मिलाकर देश की संसद के अंदर और जनता के हृदय में छह दशक से ज्यादा राज करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी बखूबी समझते थे। अटलजी के संसद की महत्ता को प्रमाणित करने, गरिमा बढ़ाने वाले इन विचारों को यदि आज का विपक्ष थोड़ा भी आत्मसात कर ले तो देश की जनता का भी भला होगा और इन सत्तालोलुप दलों को अपने पुराने कृत्यों के पश्चाताप का अवसर भी मिल जाएगा।
(लेखक केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में कंसल्टेंट हैं)