सत्यदेव त्रिपाठी ।

गांव का रमाशंकर राजभर, जो भोजपुरी ठेके में ‘शंकरवा’ है। यूं आता है मशीनी (मैकेनिकल) काम कइयों को, लेकिन वे या तो बाहर हैं या गांव में मटरगश्ती कर रहे हैं। एक शंकर ही है, जो कुछ सीख कर आया है और करना चाह रहा है। वह भी चला गया, तो…?


 

मैं अपने गांव के रमाशंकर राजभर, जो भोजपुरी ठेके में ‘शंकरवा’ है, को जान ही न पाता, यदि ठुंक कर दागदार हो गयी गाड़ी लेके घर न चला गया होता! देखकर भतीजे ने कहा- ‘चाचा, शंकरवा से डेण्ट-पेण्ट करा लीजिए… अच्छा करता है’।

नन्हा-सा गांव और पता तक न चला

पता लगा कि रामकेल राजभर का बेटा है शंकर। और रामकेल तो बचपन का मेरा दोस्त है- हमउम्र। उसके बड़े भाई को हम फौदार (फौजदार) भइया कहते। गांव के हम सभी बच्चे साथ में होलिका बटोरते, कबीर (जोगिड़ा) बोलते, कबड्डी-शूटुर व छिउलर खेलते… और रामकेल हर खेल में मुझसे जबर (बलिष्ठ) पड़ता। भरवट (भार-बस्ती) तो हमारे घर आने-जाने के रास्ते में पड़ती है, फिर भी परदेस (मुबई) रहने और चार किताबें पढ़ने ने इतना अमानवीय कैसे बना दिया कि जन्म के अपनों से इतना बेरुख हो गया। चमटोल-भरवट मिलाकर नन्हा-सा गांव और पता तक न चला कि कोई लड़का ऐसा कौशल सीखकर अपनी ही बजार में नियमित काम कर रहा है!
यही सब गुनते हुए बाजार पहुंच गया। शंकर मिल भी गया- हंसते हुए ‘पण्डित बाबा, पालागी’ किया। कोई काम था नहीं उसके पास। तुरत मेरी गाड़ी पर लग गया। बातचीत में पता लगा कि होश संभालते ही पटियाला भाग गया था, जहां डेण्ट-पेण्ट का काम सीख लिया, पर नार-खेड़ी जिस गांव में गड़ी थी, काम वहीं रहके करना चाहा, सो लौट आया। और यही बात है, जो मुझे भा गयी और साल भी गयी। आईना दिख गया अपना, जो गांव में रहने और अपनी सेवाएं वहीं देने का ख्याल न आया। कैसे कहूं कि हाशिए पर शंकर है! वह तो मुख पृष्ठ पर है। हाशिए पर तो हम हैं। यह तो व्यवस्था का विद्रूप है, हमारी खुदमुख़्तारी है कि हाशिए का उसे बता रहे हैं – ‘ये आपस में जैसे बदल-सी गयी हों, तुम्हारी दुआयें हमारी सदायें…’!

400-500 कमा ही लेता

शायद हममें हिम्मत न थी, न है कि वो खामियाजा भुगत सकें, जो वो भुगत रहा है। कभी दस-दस दिन काम नहीं रहता। जब रहता है, तो भी वो दाम नहीं मिलता और उधारी का लटका अलग, जिसमें कितनी बार तो आधा-तीहा और कभी-कभार अधिकांश भी डूब जाता है। इससे परेशान शंकर पहली ही मुलाकात में कह गया- ‘पण्डित बाबा, वहीं बनरसे में कौनो गैरेज-वैरेज में लगवाय देतेया’ (वहीं बनारस में किसी गैरेज-वैरेज में लगवा देते)। सुनकर कांप गया मैं। पर जवाब न था, न है। उसे क्या मालूम कि पूरी भरवट में, मेरी जानकारी में, ऐसे जज्बे से न कोई आया, न रहा। यूं आता है मशीनी (मैकेनिकल) काम कइयों को, लेकिन वे या तो बाहर हैं या गांव में मटरगश्ती कर रहे हैं। एक शंकर ही है, जो कुछ सीख कर आया है और करना चाह रहा है। वह भी चला गया, तो…?
इसी डर से उसके सवाल का जवाब न देकर पूछने लगा कि तब कैसे चलता है घर? पर वो इससे बेफिक्र था- गांव में कोई न कोई काम कर ही लेता है, पर सबकी तरह दिहाड़ी की दर से नहीं, काम देखकर ठीका कर लेता है और 400-500 तक कमा ही लेता है। डेण्ट-पेण्ट का काम रहा, तो हजार भी हो जाता है, कभी पांच-छह सौ भी रह जाता है। उससे तो जान लिया, लेकिन अपना हिसाब नहीं बताया कि मेरे जिस काम का उसने छह सौ मांगा और मैंने कह के पांच सौ करा लिया, पर यह सब सुनकर दिया छह सौ ही, उसका 1500 और 1800 बनारस वाले मांग चुके थे। इस दर के हिसाब से भी इस ठेकमा बजार में उसे नहीं रहना चाहिए, सोचते हुए गाड़ी लेकर चला गया।

क्या करें, रहा नहीं जाता

सूरज डूबने के बाद जब घर के लिए निकलने ही वाले थे, शंकर उसी चाय की दुकान पर नुमायां हो गया, जहां हम प्राय: बैठते हैं। पूरी मस्ती में था। जब गाड़ी में बैठने लगे, तो साथ चलने की पेशकश बड़े लिहाज के साथ की। शायद उसकी साइकिल न थी उस दिन। लेकिन बैठते ही जोर का भभका आया- पी थी उसने। उतार देने की गुस्ताखी का मन हुआ- साथ बैठे भतीजे दयाराम भी इसी मूड में दिखे, पर ‘वो कितने सितमगर हैं, खुल जाये, तो अच्छा हो’ की गरज से मैंने चलने दिया। गाड़ी के साथ वो भी शुरू हुआ और पता लगा कि प्राय: रोज ही शाम को पीता है। सौ रुपये तो खर्च होते ही हैं। कभी कुछ अच्छा चिखौना और उसके बाद मटन… आदि का आयोजन किया, तो फिर तीन सौ से अधिक भी चला जाता है। मेरा गुणा-भाग कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही चला कि पांच सौ की औसत कमाई का तीस-पैंतीस प्रतिशत यदि इसी लत के हवाले हो जाता है, तो ऐसे जीवन को हाशिए पर रहना ही है। पिताजी के बाद 15-20 सालों से शंकर भी कमा रहा है, पर अभी ठीकठाक घर तक न बन सका और घर का यही हाल पूरी बस्ती का है- याने पूरी बस्ती ही हाशिए पर है। बाद में किसी दिन होश में रहने पर नशे के लिए मना किया, तो ‘बाबा, क्या करें, रहा ही नहीं जाता…’ की लाचारी सामने आयी।
लेकिन उस शाम तो अपनी यह सदारद भी बतायी कि एक शीशी अपने बड़े पिता (फौजदार), जिनकी अपनी कोई संतान नहीं, को भी देता है और कभी तो अपने साथ बिठाकर पिलाता भी है- मेरी मुरीदी की वजह ‘ये बेबाकी नजर की, ये मुहब्बत की ढिठाई’ भी है। पिता पीते ही नहीं, पर उसके कहे मुताबिक वे किसी देवता की पूजा करते हैं और उसे शराब का चढ़ावा देते हैं- कभी मुर्गा भी चढ़ाते हैं। शंकर भी उस देवता की शक्ति को मानता है और उसे पूरा विश्वास है कि पिता के बाद वह देवता भी उसी तरह वसीयत में उसे मिलेगा और वह पूजा चढ़ायेगा, जैसे उनकी जगह-जायदाद (जो बहुत थोड़ी है) मिलेगी।

उस बुत में वफा है तो सही

एक भाई था शंकर का, जो मर गया। उसकी पत्नी उस जमात के चलन के अनुसार किसी और को चली गयी, पर इसके भाई से एक बेटी थी, जिसे शंकर उठा लाया है- अपना खून कहीं और क्यों पले, की आन और मर्दानगी भी है उसमें।
जी हां, हाशिए की आन भी होती है और बहुत होती है… अब अपना ‘शंकरवा’ चाहे भले रुपये में चार-छह आने बढ़ा-चढ़ाकर ही क्यों न बोलता हो- जैसा कि गांव वालों का मानना है… फिर चाहे वह सब 10-12 आने ही हो, तो भी ‘उस बुत में वफा है तो सही…।


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