नवीन जोशी।
हमारे उस्ताद और दाज्यू, जाने-माने वयोवृद्ध कथाकार शेखर जोशी 10 सितम्बर 2022 को अपने 90वें जन्मदिन पर उत्साहित थे और खूब सक्रिय भी। बच्चों ने उनका जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाया। फिर एक महीना भी नहीं बीता कि 4 अक्टूबर को उन्होंने देह से मुक्ति पा ली। चंद रोज से वे गाजियाबाद के अस्पताल में थे और बड़े कष्ट में थे। अस्पताल जाते हुए भी अपने शीघ्र प्रकाश्य कथा-समग्र के आवरण चित्र के बारे में संजय (अपने बड़े बेटे) से पूछ रहे थे। लिखने और संकलनों की कई योजनाएँ बना रहे थे।
इस आयु में भी वह लेखन में सक्रिय रहे। यद्यपि आंखों की असाध्य बीमारी ने यह काम बहुत मुश्किल कर दिया है। एक विशेष आकारवर्धक शीशे से वे नया लेखन पढ़ने की कोशिश करते थे और इसी तरह थोड़ा-थोड़ा लिख भी लेते थे। साहित्यिक लेखन से उनके अद्यतन रहने का ताजा उदाहरण यह था कि अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से समानित गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ का अंग्रेजी संस्करण (जो उनकी पोती ले आई थी) न केवल ‘उलटा-पुलटा’ एवं उसका क्थासार जाना- बल्कि गीतांजलि श्री और डेजी रॉकवेल के बारे में जानकारी भी हासिल कर ली थी। गीतांजलि श्री को बधाई देते हुए उन्होंने यह भी पूछा कि जब डेजी रॉकवेल ने वर्षों पहले भीष्म साहनी के ‘तमस’ का अंग्रेजी अनुवाद किया था, तो वह पुरस्कार समिति के संज्ञान में क्यों नहीं आया?
‘राजे खत्म हो गए’
बहरहाल, शेखर दाज्यू ने पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ नाम से 1952 या 53 में लिखी थी। दूसरे विश्व युद्ध में हमारे पहाड़ों से हजारों युवा फौज में गए थे। उन दिनों कुमाऊं मोटर ओनर्स यूनियन की मोटरें फौजियों से इतनी भरी रहती थीं कि आम सवारियों को जगह नहीं मिल पाती थी। जब उनकी उम्र करीब दस साल रही होगी तो एक दिन गांव से पैदल अल्मोड़ा जाते हुए उन्होंने जगह-जगह मोटर के इंतजार में फौजियों को खड़े देखा। उनको विदा देने के लिए उनके परिवार की बहुत सी महिलाएं भी वहां थीं। पुरुष कम दिखाई देते थे। जैसे ही गाड़ी आती, फौजी बक्सा पकड़कर चट से गाड़ी के अंदर बैठ जाते लेकिन जैसे ही गाड़ी चलती थी, तो पीछे जो रुलाई फूटती थी, वह इतनी दर्दनाक होती थी कि उनके बाल मन में वह अमिट रह गई। गांवों में बहुत-सी विधवाएं भी वे देखते थे। उस कहानी में एक बुढ़िया है जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। वह इस भ्रम में है कि बेटा ज़िंदा है और आएगा लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आए हुए हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की। लोग दही लेने के लिए बुढ़िया के पास पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हाँडी उनको दे दी और कहा- अच्छा, राजे आए हैं! कभी मेरा राजा भी आएगा। नैरेटर कहता है कि मैंने उससे कहा नहीं लेकिन राजे तो खत्म हो गए हैं। शेखर जी की यह कहानी तब ‘समास’ पत्रिका में छपी थी लेकिन उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। वे इस पहली कहानी को अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘कोसी का घटवार का बीज मानते थे। उनकी दूसरी कहानी ‘आदमी और कीड़े’ को धर्मयुग की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। वह भी किसी संग्रह में नहीं है।
‘दाज्यू’ कहानी से मिली बड़ी प्रसिद्धि
तीसरी कहानी ‘दाज्यू’ ने शेखर जोशी को कहानीकार के रूप में बड़ी प्रसिद्धि दिलाई। आज भी उसकी चर्चा होती है। उसे लिखे जाने का भी रोचक किस्सा है। 1951 से 1955 तक वे दिल्ली में आयुध कारखाने की ट्रेनिंग के दौरान रहे। पहाड़ी की नराई लगती थी। एक इतवार को अखबार में ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ की बैठक की सूचना छपी थी। वे साइकिल लेकर वहां पहुंच गए। वहां होटलों में काम करने वाले पहाड़ी लड़कों की बैठक चल रही थी। हुआ ये था कि कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी को पता चला था कि ये पहाड़ी लड़के दिन में होटलों में काम करने के बाद शाम को सस्ते होटलों में जाकर बिगड़ रहे हैं, जबकि बड़े प्रतिभावान हैं। कामरेड जोशी ने इन लड़कों को एकजुट करने और उनकी रुचि का परिष्कार करने के लिए ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ नाम से सांस्कृतिक संस्था बनवा दी। बाद में ब्लिट्ज के सम्पादक हुए नंद किशोर नौटियाल उस समिति के एक मासिक बुलेटिन का सम्पादन करते थे। शेखर जोशी भी उससे जुड़ गए और टिप्पणियां लिखने लगे। जब उसका वार्षिकांक निकालने की योजना बनी तो नौटियाल जी ने शेखर जोशी से एक ऐसी कहानी लिखने को कहा, जिसमें पात्र होटल वर्कर हों। तब ‘दाज्यू’ कहानी लिखी गई। पीसी जोशी ने वह कहानी पढ़ी और प्रभावित हुए। बाद में 1955 में इलाहाबाद जाने पर वहां के साहित्यकारों के बीच उन्होंने ‘दाज्यू’ पढ़ी जिसे खूब सराहना मिली। तभी उपेंद्र नाथ अश्क ने ‘दाज्यू’ कहानी अपने ‘संकेत’ संकलन में प्रकाशित की। फिर तो उनकी ख्याति फैलती गई और उन्होंने एक से एक कहानियां हिंदी साहित्य को दीं, जिनमें मजदूरों और कारखानों के जीवन पर ‘उस्ताद’, ‘बदबू,’ ‘मेण्टल’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘आशीर्वचन’, ‘हेड मासिंजर मंटू’ उनकी प्रसिद्ध कहानियां भी हैं। श्रमिकों पर यादगार कहानियां लिखने वाले वे अकेले थे। साथ-पैंसठ साल पहले लिखी गई उनकी कहानियां आज भी जगह-जगह उद्धृत की जाती हैं। यह उपलब्धि विरल है। ‘कोसी का घटवार’ तो गुलेरी जी की जग प्रसिद्ध कथा ‘उसने कहा था’ के समकक्ष ठहराई जाती है।
बड़ी इच्छा थी कि शेखर दाज्यू के रचनातरत रहते हम उनकी जन्म शताब्दी मनाएं। पर नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था।
(लेखक साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)