इजराइल ने एक सप्ताह से गाजा में तबाही मचाया हुआ है. शहर के शहर तबाह कर दिए. अंधाधुंध बच्चे-बूढ़े-महिलाओं की जान ले रहा है. इजराइली सेना पहले सिर्फ हवाई हमले कर रही थी लेकिन अब जमीनी और समुद्री युद्ध भी छेड़ दी है। अरब मुल्कों की भी अब आंखें खुल रही है और आपस में बातचीत भी कर रहे हैं. अरब में सऊदी एक बड़ा खिलाड़ी है, जो इजराइल से संबंध सुधारने में लगा था, लेकिन ईरान से बातचीत के बाद इजराइल के साथ संभावित समझौते पर ब्रेक लगा दिया है।

ग्लोबल न्यूज एजेंसी रॉयटर्स का दावा है कि सऊदी अरब समझौते पर पुनर्विचार कर रहा है. सूत्रों के हवाले से बताया कि इजराइल-हमास के युद्ध ने सऊदी अरब को अपने कदम रोकने के लिए मजबूर किया है. ईरान लगातार अरब मुल्कों से संपर्क में है और उन्हें इजराइल के खिलाफ एकजुट करने की कोशिश में जुटा है. इसी दरमियान ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी ने क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को भी फोन किया और दोनों नेताओं ने फिलिस्तीन के ताजा विवाद पर बात की।

सऊदी-इजराइल के शांति समझौते में होगी देरी

दो सूत्रों के हवाले से रॉयटर्स का दावा है कि इजराइल और सऊदी अरब के बीच होने वाले संभावित शांति समझौते में अब देरी होगी. अमेरिका द्वारा तैयार किए गए अब्राहम समझौते पर करार के लिए सऊदी ने अपनी कुछ डिमांड भी रखी थी, जिसमें रक्षा सहयोग और सिविलियन न्यूक्लियर पावर प्लांट शामिल थे. मध्य पूर्व में शांति कायम करने के नजरिए से अमेरिका भी शर्तों पर राजी था. सऊदी नाटो जैसी सुविधा चाह रहा था, जहां किसी गंभीर परिस्थिति में अमेरिका उसके साथ खड़ा रहेगा. रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका किंगडम को इजराइल जैसी सुविधा देने पर विचार कर रहा था, जहां युद्ध की स्थिति में उसकी तमाम जरूरतें पूरी कर रहा है़।

सऊदी को इजराइल से दोस्ती करने में अब भी दिलचस्पी

सऊदी शासन के करीबी एक सूत्र का कहना है कि [इजराइल के साथ] बातचीत अभी जारी नहीं रखी जा सकती और जब चर्चा फिर से शुरू होगी तो फिलिस्तीनियों के लिए इजराइली रियायतों के मुद्दे को एक बड़ी प्राथमिकता देने की जरूरत होगी – इससे साफ है कि सऊदी को अभी भी इजराइल के साथ संबंध स्थापित करने में दिलचस्पी है. रॉयटर्स सूत्र की मानें तो अमेरिका ने हमास के हमले की निंदा करने के लिए सऊदी पर दबाव बनाया था लेकिन किंगडम ने इसे स्वीकार नहीं किया. मामले से वाकिफ अमेरिकी सूत्र ने इसकी पुष्टि भी की।

बदल रहे थे मिडिल ईस्ट के राजनीतिक समिकरण

रॉयटर्स ने ही एक रिपोर्ट में दावा किया था कि क्राउन प्रिंस को फिलिस्तीन के मुद्दे पर ज्यादा कुछ फर्क नहीं पड़ता और वह अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग स्थापित करके अपने किंगडम की सुरक्षा चाहते हैं. प्रिंस मोहम्मद फिलिस्तीनियों के विरोध करने पर भी इजराइल के साथ संबंध स्थापित करना चाहते थे. माना जा रहा है कि इस बात की खबर खुद फिलिस्तीन को भी लगी. मिडिल ईस्ट में राजनीतिक समिकरण के बदलता देख हमास भी चुप नहीं बैठा और इजराइल पर 7 अक्टूबर को अटैक करने का फैसला किया।

सऊदी अरब और ईरान की दुश्मनी

सऊदी अरब को भी इजराइल युद्ध के फैलने का खतरा लग रहा है. सऊदी-ईरान में पुरानी राइवलरी थी. दोनों मुस्लिम देशों के बीच तनाव उनके अलग-अलग धार्मिक संप्रदायों की वजह से तो थी ही, बाद में क्षेत्रीय विवाद ने दुश्मनी को और हवा दी. ईरान मुख्य रूप से शिया बहुल है और सऊदी अरब मुख्य रूप से सुन्नी देश है. दोनों एक-दूसरे को अपने लिए खतरा मान रहे थे. दोनों ने लेबनान, सीरिया, इराक और यमन सहित विभिन्न अरब देशों में अलग-अलग गुटों का समर्थन किया करते थे. दोनों देशों के बीच आपसी तनाव बढ़ते चले गए, जो इसी साल चीन में जाकर समाप्त कम हुए, जहां शिया-सुन्नी देशों ने जल्द से जल्द संबंध सुधारने की प्रतिबद्धता जताई थी।

कैसे फिलिस्तीन पहुंचे यहूदी?

दरअसल, इजराइल और फिलिस्तीन के बीच विवाद सदियों पुराना है. ये विवाद तब से चला आ रहा है, जब इजराइल नाम का कोई देश ही नहीं था. बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में यहूदियों की काफी बड़ी तादाद थी. लेकिन तकरीबन तमाम देशों में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा था, जिसकी वजह से उन्होंने यूरोप से निकलर फिलिस्तीन पहुंचना शुरू किया. फिलिस्तीन उस वक्त उस्मानिया सल्तनत यानि ओटोमन एम्पायर के तहत आता था. जहां अरब लोग रहा करते थे. इसके अलावा फिलिस्तीन धार्मिक लिहाज से भी बेहद अहम जगह थी, क्योंकि यहां का शहर यरुशलम मुस्लिम, यहूदी और ईसाई. तीनों धर्मों के लिए बेहद मुकद्दस यानि पवित्र था।

यहूदियों ने की अलग देश की मांग

यूरोप से आकर जो यहूदी यहां बसने लगे थे, वो अपने लिए एक नया मुल्क चाहते थे. वो धार्मिक किताबों का हवाला देकर दावा करते थे कि फलस्तीन यहूदियों की जमीन है. इस इलाके में यहूदियों की आबादी बढ़ती गई और फिर अरब लोगों के साथ उनका विवाद और संघर्ष शुरु हो गया. पहले विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य की हार हुई तो फिलिस्तीन का इलाका ब्रिटेन के कब्जे में चला गया. विश्व युद्ध में जीत के बाद फ्रांस और ब्रिटेन ने मिडिल ईस्ट का बंटवारा कर लिया तो इससे यहूदी और अरब लोगों के बीच तनाव पैदा हुआ।

विवाद में क्या है हिटलर की भूमिका ?

अब आपको बताते हैं कि इजराइल फिलिस्तीन विवाद में आखिर हिटलर की क्या भूमिका है. दरअसल पहले विश्व युद्ध के बाद यहूदी बड़ी तादाद में यूरोप छोड़कर अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अमेरिका, फ्रांस और फिलिस्तीन की तरफ जाकर बसने लगे थे. लेकिन जब साल 1933 में एडोल्फ हिटलर जर्मनी का तानाशाह बना, तो यहूदियों के पलायन में सबसे बड़ा इजाफा हुआ. हिटलर के शासन में जर्मनी में यहूदियों पर इतना ज्यादा ज़ुल्म हुआ कि उन्हें मजबूरन मुल्क छोड़कर भागना पड़ा. ज्यादातर यहूदियों ने फिलिस्तीन आने का फैसला किया, क्योंकि वो इस जमीन को अपनी धार्मिक मातृभूमि मानते थे।

यहूदियों को इंसान नहीं मानता था हिटलर

एक वक्त पोलैंड और जर्मनी से लेकर फ्रांस तक में यहूदियों की काफी बड़ी आबादी रहा करती थी. जर्मनी से यहूदियों के पलायन की वजह हिटलर ही था. दरअसल, हिटलर ने यहां एक नस्लवादी साम्राज्य बनाया. उसके लिए यहूदी इंसानी नस्ल का हिस्सा ही नहीं थे. हिटलर के दौर में 60 लाख यहूदियों का क़त्लेआम किया गया, जिनमें से 15 लाख तो सिर्फ बच्चे ही थे. ऐसे में यहूदियों ने वहां से जान बचाकर भागना ही बेहतर समझा. 1922 से 1926 के बीच तकरीबन 75 हजार यहूदी फिलिस्तीन पहुंचे थे, जबकि जर्मनी में अत्याचार बढ़ने के बाद 1935 में यहां पहुंचने वाले यहूदियों की संख्या 60 हजार थी. फिर 1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद यूरोप में जितने भी यहूदी बचे हुए थे. उन्होंने अपना एक देश बनाने के मंसूबे के तहत फिलिस्तीन जाना शुरू कर दिया।

ब्रिटेने को मिला देश बनाने का जिम्मा

जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहूदियों के लिए नए देश की मांग उठी, तो इसका जिम्मा ब्रिटेन को मिला. फिर 1947 में यूनाइटेड नेशंस यानि संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को यहूदियों और अरबों के लिए अलग-अलग देश बनाने के लिए वोटिंग कराई. उस वक्त यूएन ने ये भी साफ कहा था कि तीन धर्मों में खास माना जाने वाला यरुशलम एक अंतरराष्ट्रीय शहर रहेगा. यूएन के इस फैसले से यहूदी तो खुश थे, मगर अरब के लोगों में इस फैसले को लेकर काफी रोष था. इसलिए ये प्रस्ताव कभी लागू नहीं हो सका।

यहूदी नेताओं ने इजराइल की स्थापना

1948 में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को छोड़ दिया. ब्रिटेन के फिलिस्तीन छोड़ने के बाद यहूदी नेताओं ने 14 मई 1948 को खुद ही इजराइल की स्थापना का ऐलान कर दिया. संयुक्त राष्ट्र से भी इसे मान्यता मिल गई. जैसे ही इजराइल का ऐलान हुआ, वैसे ही फलस्तीन की तरफ से मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक ने इस इलाके पर हमला बोल दिया. इजराइल- फिलिस्तीन के बीच ये पहला संघर्ष था. इस जंग के बाद अरबों के लिए अलग जमीन तय की गई।

युद्ध में हार के बाद मिला वेस्ट बैंक

फिलिस्तीन के लिए लड़ने वाले मुल्कों की हार हुई, तो अरबों को फिलिस्तीन के लिए छोटी जमीन का हिस्सा हाथ लगा. जंग के बाद अरब लोगों को जो जमीन हाथ लगी, उसे वेस्ट बैंक और गाजा कहा कहा जाता है. इन दोनों जगहों के बीच में इजराइल है. इस तरह से वहां रहने वाले अरब फिलिस्तीनियों के लिए संकट खड़ा हो गया. यहूदी फौजों ने यहां अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया और साढ़े सात लाख फिलिस्तीनियों को भागकर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी. इस बीच यहूदियों और फिलिस्तीनियों में सबसे बड़ा विवाद यरूशलम को लेकर ऊभर कर सामने आया. दोनों यरूशलम पर अपना अधिकार मानते हैं और दोनों ही इसे अपनी-अपनी राजधानी बताते हैं. फिर यरुशलम शहर को पूर्व और पश्चिम में बांट दिया गया. पश्चिमी यरुशलम पर इजराइल का कब्जा था, जबकि पूर्व में जॉर्डन की फौज तैनात थी. ये सब बगैर किसी शांति समझौते के हो रहा था।

फिर हुआ इजराइल- फिलिस्तीन युद्ध

1967 में एक बार फिर फिलस्तीन और इजराइल के बीच युद्ध हुआ. लेकिन इस बार इजराइल ने और भी ज्यादा आक्रामक हमला किया और फिलिस्तीन के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया. उसने वेस्ट बैंक और गाजा दोनों पर कब्जा जमाया. गाजा स्ट्रिप को तो उसने बाद में छोड़ दिया, मगर वेस्ट बैंक को अपने कंट्रोल में ही रखा. ऊपर से पूर्वी यरुशलम भी इजराइल के कंट्रोल में आ गया. फिलिस्तीनी लोग अब वेस्ट बैंक और गाजा स्ट्रिप में रहते हैं. दोनों इलाकों की दूरी लगभग 45 किलोमीटर है. गाजा पट्टी एक 41 किलोमीटर लंबा इलाका है, जिसकी चौड़ाई सिर्फ 6 से 13 किलोमीटर है. गाजा की 51 किलोमीटर लंबी सीमा इजराइल के साथ लगती है. फिलहाल गाजा पट्टी हमास के कब्जे में है। (एएमएपी)