सत्यदेव त्रिपाठी।
नामचीन अभिनेत्री मंदिरा बेदी के पति कौशलराज के मृत्यु-शोक की खबर के साथ अख़बारों में यह भी छपा था कि उनके शव को मंदिरा ने भी कंधा दिया। इसे लेकर सामाजिक माध्यम पर गर्मागर्म चर्चा शुरू हो गयी, जिसकी खबरें दूसरे दिन के अख़बारों में आयीं।
स्त्री को यह सब करने की इजाज़त हमारी परम्पराओं में नहीं है- वह पत्नी हो, मां हो, बेटी हो या पोती हो- याने कोई भी स्त्री यह कार्य नहीं कर सकती। वह सिर्फ़ रो सकती है, बल्कि रोना उसके लिए अनिवार्य है। यह भावुकता के अलावा रवायत भी हैं- रुदालियाँ तो औरतें ही होती हैं। बाक़ी न वह कंधा दे सकती, न श्मशान में पैर रख सकती, न अंत्येष्टि के बाद के किसी श्राद्ध-कर्म में हिस्सा ले सकती। यह सारा कार्य बेटा करे, यही विधान है। चार बेटे हों और सभी मौजूद हों, तो सबसे बड़ा या सबसे छोटा बेटा श्राद्ध-कर्म करे, यह भी विधान है। मृत्यु के समय बेटे कहीं दूर हों तो उसे बुलाने व आने तक शव-दाह को रोककर इंतज़ार करने का चलन है। राम-लक्ष्मण के वन जाने पर जब दशरथ मरे, तो भरत-शत्रुघ्न भी ननिहाल में थे। उनके यहाँ घोड़े से जाकर खबर देने व रथ में उनके आने तक चार-पाँच दिन लगने वाले थे, तो तब तक शव को ख़राब होने से बचाने के लिए तेल में डुबोकर रखने का उल्लेख मिलता है– ‘तेल नाँव भरि नृप तनु राखा’, लेकिन तीन-तीन परिणीता रानियों में से कोई कंधा व मुखाग्नि नहीं दे सकती थी- दबंग कैकेयी भी नहीं।
स्त्री यह कार्य नहीं कर सकती
आधुनिक-वैज्ञानिक युग के बावजूद आज भी इस नियम का पालन लगभग शत-प्रतिशत हो रहा है। बेटा न हो, तो छोटा या बड़ा भाई करे। भाई न हों, तो भतीजे करें, पोते करें …घर में दुर्दैव से कोई पुरुष न हो, तो ख़ानदान-पट्टीदारी का कोई भी करे, लेकिन वह पुरुष हो- कोई स्त्री यह कार्य नहीं कर सकती। मेरे बड़े पिता के मरने के बाद मेरी अनुपस्थिति में खानदान के भाई ने पहला पिंडदान किया, मुखाग्नि दी, जिनसे हमारा अलगाव कितनी पीढियों पहले हुआ, किसी को मालूम तक नहीं। मारकीन की जो नयी धोती पहन के मुखाग्नि दी थी, उसे ओरी पर टांग दिया गया था, जिसे पहनकर दस दिनों के शेष सारे श्राद्ध-कर्म मैंने कराये। यही विधान है, लेकिन घर पर मौजूद मेरी बहनें और मां यह नहीं कर सकती थीं।
नियम शास्त्र का नहीं, लोक का
मेरा क़यास है कि यह नियम शास्त्र का नहीं, लोक का है। और मध्यकाल में जब नारी को पर्दे में रखने की ऐतिहासिक विवशता आयी, तब से शुरू हुआ हो, तो ताज्जुब नहीं। फिर पर्दा-प्रथा के प्रबल अनुयायी मुस्लिम हुकूमत के आ जाने के बाद तो इसमें और कठोरता व दृढ़ता आ गयी होगी। उनके यहां भी मय्यत के साथ श्मशान जाते हुए मैंने स्त्रियों को नहीं देखा है। इससे भी इस रीति को बल मिला हगा। इसीलिए जब कभी ऐसा होता है कि कोई स्त्री ऐसा कुछ कर देती है, तो उसे अपवाद माना जाता है। खबर बनती है। पक्ष-विपक्ष में चर्चाएँ शुरू हो जाती हैं और आज भी ज़्यादातर मत इस चलन के पक्ष में जाते हैं- याने स्त्री-प्रतिभागिता के ख़िलाफ़ होते हैं। कुछ अपवाद ऐसे अवश्य हैं, जब चर्चाएँ कोई और मोड़ ले लेती हैं। मुम्बई में एक बड़े साहित्यकार के मरने पर बेटी ने दाह-संस्कार किया- मुखाग्नि दी, क्योंकि बेटा अमेरिका में था और न आ सकता था, न आना चाहता था। इधर मुम्बई में कुल-ख़ानदान तो होता नहीं। लिहाज़ा बेटी का करना मजबूरी भी था। तो सारी आलोचना बेटे के न आने और आना न चाहने पर टिक गयीं और बेटी के करने की चर्चा गौण हो गयी- उसे बेटे की बेवफ़ाई की आड़ मिल गयी। गाँवों में ऐसा होना आज भी असम्भव है। और ख़ुदा न ख़ास्ता हो जाए, तब तो आज भी उस परिवार व उस श्राद्ध-कर्म का सामूहिक बहिष्कार ही हो जायेगा- न कोई तेरहवीं का भोज खाने आएगा, न किसी को आने देगा।
ऐसी रूढ़ियाँ उनकी वर्ग-शत्रु नहीं
और इन सब बरजोरियों और अमानवीयताओं तथा स्त्री-उपेक्षा, उसे दोयम-तेयम दर्जे की नागरिक के रूप में क़ीलित कर देने की रीतियों-रवाजों के ख़िलाफ़ कोई प्रयत्न भी नहीं हुए, न हो रहे। न कोई आंदोलन, न सामाजिक मुहिम। इस पर कोई कहानी व आलेख …आदि भी शायद ही लिखे गये होंगे। दलित समाज को लेकर मरणोपरांत के सवर्ण-अतिचारों के ख़िलाफ़ तो साहित्य उपलब्ध है, पर स्त्री वहाँ भी नदारद है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य होता है प्रगतिशील साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की ऐसे विषयों के मामले में चुप्पी को लेकर। उन्हें सरकारें दिखती हैं, भाजपाई दिखते हैं, ब्राह्मणवाद दिखता है- याने उनकी भाषा में वर्ग शत्रु। लेकिन इन सबको लेकर भी न कोई मुहिम है, न सामूहिक प्रयत्न हैं, बस रह गयी है फ़ेसबुकी और ग्रुपी हलचलें…, इन आभासी प्लेटफ़ॉर्मों पर फोकट की लफ़्फ़ाज़ी, जिससे न कुछ होना है, न जिसका कुछ होना-हवाना है। लेकिन ताज्जुब है कि मंदिरा का यह मामला उस पर भी नहीं आया। उनके एजेंडे में ऐसे सरोकार-युक्त मामले हैं ही नहीं। इस बड़बोलेपन से बाहर निकलकर वे यदि ऐसे एक-एक मुद्दे को उठाकर कुछ और न करके बहसें ही चलाते, तो भी कुछ मतलब की बात होती। क्योंकि इसके अलावा कुछ करना तो अब उनके वश-बूते के बाहर हो गया है। अब तो उनकी शीर्ष संस्थाएँ मेल पर एक पत्र भर जारी कर देती हैं, जो उनके संपर्कियों-सदस्यों के अलावा किसी तक पहुँचता भी नहीं। लेकिन इस मामले पर यह भी नहीं हुआ, क्योंकि यह सामाजिक जीवन का ऐसा मामला है, जिसमें उनका कोई तथाकथित वर्गशत्रु भी सीधे शामिल नहीं था, जिसके ख़िलाफ़ भंडास निकालनी हो। ऐसी रूढ़ियाँ उनकी वर्ग-शत्रु नहीं हैं। इन्हीं निष्क्रियताओं और काग़ज़ी फ़र्ज़-अदाइयों का परिणाम है कि आज न राजनीतिक मोर्चे पर उनकी कोई औक़ात रह गयी है, न उनके अनुयायियों की कोई जमात ही शेष है। यह उनकी करनी का फल है। मुझे इसका बेहद रंज है।
मरणोपरांत के विधानों में पत्नी अछूत क्यों
आज जब मंदिराजी ने वह कर दिया, जो तमाम समाज-चेताओं को करना-कराना चाहिए था, तो भी गलचउर (फ़ालतू की बातें) भर ही हो रही हैं। इस अदनी-सी पर सर्वविदित बात पर भी किसी का ध्यान नहीं जा रहा कि इतने प्रगत युग में अब तो पति की मृत्यु पर पत्नी द्वारा ही ये सारे कर्म करने के प्रस्तावों और पहलों के एलान किये जाएँ, क्योंकि सम्बंधों की प्रगाढ़ता, भावात्मक एकता, व्यावहारिक साझेदारियाँ तो उसी के साथ होती है- चाहे रवाजन, चाहे आदतन, चाहे इरादतन …पर होना तो सिद्ध है। फिर मरणोपरांत के विधानों में उसे अछूत क्यों माना जाए, उसे इससे वंचित-बहिष्कृत क्यों किया जाये! और इसे रीति-रिवाज भर का नाम भी क्यों दिया जाये, यह तो उसके सम्बंधों-सरोकारों की अंतिम हिस्सेदारी है, भावात्मक दाय है।
चर्चा में जीन्स टीशर्ट
टिप्पणियाँ आयीं और गलचउर हुए मंदिरा के जींस- टीशर्ट वाले परिधान पर भी। लेकिन यह गौण इसलिए है कि साड़ी पहनके अर्थी उठाती, तो भी उसे बख्शा नहीं जाता। और अब कामकाजी औरतों के आने-जाने और काम के दौरान साड़ी सम्भालने की अव्यावहारिकता सिद्ध हो चुकी है। खेती में काम करते हुए पहले भी औरतें महाराष्ट्र की औरतों की तरह साड़ी खोंस लेती थीं, झाँसी की रानी की तरह अँचरा (आँचल) गठिया लेती थीं- उसे कछाँड ‘मारना’ कहते थे। जहां तक तन ढँकने का सवाल है, जो कपड़े पहनने का प्राथमिक उद्देश्य है, वह तो साड़ी में भी कुर्ते-पाजामे या सलवार-समीज जैसा नहीं ढँकता। आधा पेट खुला रहता है- बशर्ते वे गाँव की औरतों की तरह सर पे आँचल रखकर पहनें। लेकिन अब तो आधुनिक तरीक़ा ही रवाँ है, जिसे शुरू होने के समय ‘उलटा पल्लू’ वाला तरीक़ा कहा गया था। याने उसमें से तब ग़ैर पारम्परिक या अभारतीय जैसा होने की ध्वनि निकलती थी, जो क़ाबिले ऐतराज था। लेकिन आज सर्वमान्य है। तो उसमें जिस तरह आधा पेट दिखता है और पीछे की तरफ़ कमर पर बंधी सारी में से नितंबो के आकार व उभार दिखते हैं, कसे ब्लाउज़ में से वक्ष नुमायाँ होते हैं …वह सब टीशर्ट-जींस से कमतर नहीं हैं। फिर भी साड़ी को औरतों का राष्ट्रीय परिधान माना जाता है, उसका प्रचलन भारतीयता की पहचान है, उसका पालन होना चाहिए, किंतु ऐसे शोकाकुल माहौल में यह अपेक्षा करना मुनासिब नहीं कि तैयार होके अर्थी में आया जाये। शव-दाह में तैयार होकर आने का विद्रूप देखना हो, तो कमलेश्वर की कहानी ‘दिल्ली में एक मौत’ पढ़ लिया जाये। मृतक-कर्मों में नारी की भागीदारी के मुद्दे पर परिधान की यह चर्चा अप्रासांगिक थी, पर मंदिराजी के मामले में यह भी बात का हिस्सा था, अस्तु इतना अलम्।