ओशो ।
रैदास शूद्र थे और शूद्र होने में कोई पाप नहीं है। सभी जन्म से शूद्र पैदा होते हैं- सभी! ब्राह्मण तो श्रम से कोई होता है, साधना से कोई होता है। ब्राह्मणत्व तो उपलब्धि है, जन्मजात नहीं है। ब्राह्मण कोई वर्ण नहीं है, अनुभूति है। जो ब्रह्म को जाने सो ब्राह्मण। जो हरि से एकरूप हो जाए सो हरिजन।
इसलिए मैं शूद्रों को हरिजन नहीं कहता और ब्राह्मणों को ब्राह्मण नहीं कहता। क्योंकि ब्राह्मण जन्मजात हैं, जन्मजात ब्राह्मणत्व होता ही नहीं। बुद्ध ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। महावीर ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। जीसस ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं, शायद ब्राह्मण शब्द भी उन्होंने कभी न सुना हो। मोहम्मद ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। क्यों? क्योंकि उन्होंने ब्रह्म को जाना। ‘ब्राह्मण’ शब्द का उतना ही अर्थ है ब्रह्म को जाना और ब्रह्म से एकाकार हो गए। न केवल ब्रह्म को जाना, बल्कि जाना कि मैं भी ब्रह्म हूं अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक। जिसके भीतर ऐसा उदघोष उठा कि मैं ब्रह्म हूं वह ब्राह्मण है। इस उदघोष के जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। जिसने ऐसा जाना कि मैं हरि का हूं कि मैं परमात्मा का हूं कि मेरा मुझमें कुछ नहीं, सब उसका है, वह हरिजन है।
महात्मा गांधी से सहमत नहीं
इसलिए मैं शूद्र को हरिजन नहीं कहता। मैं महात्मा गांधी से बिलकुल ही सहमत नहीं हूं। ‘हरिजन’ जैसे अदभुत शब्द को खराब कर रहे हो? पहले ‘ब्राह्मण’ जैसे अच्छे शब्द को खराब करवा डाला, उसको जन्म से जोड़ दिया। अब हरिजन को भी खराब करवा डाला। इतने अदभुत शब्दों को उनकी महिमा से मत उतारो, उनके सिंहासनों से मत उतारो। उन्हें आकाश से उतार कर जमीन की धूल में मत गिराओ।
ब्राह्मण और हरिजन समानार्थी शब्द
हरिजन तो वह है जिसने यह जाना कि मेरे में मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ परमात्मा का है। ब्राह्मण या हरिजन समानार्थी शब्द हैं, पर्यायवाची हैं। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होता है। शूद्र अर्थात जो शरीर से बंधा है। शूद्र अर्थात जो जानता है कि मैं शरीर ही हूं। शूद्र अर्थात जिसे अपने भीतर चैतन्य का अभी कोई अनुभव नहीं हुआ है, जिसने अपने भीतर अमृत के दर्शन नहीं किए हैं। और ब्राह्मण वह जिसने जाना कि मैं शरीर नहीं हूं, मन भी नहीं हूं- मन और शरीर से पार चैतन्य हूं। जिसे साक्षी का अनुभव हुआ है वह ब्राह्मण है।
मैं कहना चाहता हूं कि रैदास भारत के आकाश में ध्रुवतारे की भांति हैं। ब्राह्मण होकर ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो जाना कठिन नहीं है, क्योंकि सारी सुविधा वहां है। राजपुत्र होकर बुद्ध हो जाना कठिन नहीं है, क्योंकि सारी सुविधा वहां है। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के बेटे हैं— सुविधाएं हैं, सुख है, वैभव है। और जब सुख हो, वैभव हो तो सुख—वैभव से मुक्त हो जाने में अड़चन नहीं होती, क्योंकि साफ दिखाई पड़ जाता है कि कुछ सार नहीं है। जिसके पास धन है उसे धन में असारता दिखाई पड़ जाती है।
अब बुद्ध को सारी सुंदर स्त्रियां उपलब्ध थीं। इसलिए जल्दी ही स्त्रियों से ऊब गए— ऊब ही जाएंगे। जो चीज तुम्हारे पास है तुम उससे ऊब जाते हो, तुम भी जानते हो। तुम्हारे पास जो नहीं है उससे ऊबने के लिए बहुत प्रतिभा चाहिए, बहुत प्रतिभा चाहिए। तुम्हारे पास जो है उससे ऊबने के लिए तो कोई प्रतिभा की जरूरत नहीं है। धनी धन से ऊब जाता है, भोगी भोग से ऊब जाता है। जिसको संसार में सब तरह की सफलताएं मिलती हैं वह सफलताओं से ऊब जाता है। यह तो विफल आदमी है जो सफलता से नहीं ऊबता; उसे मिली ही नहीं तो कैसे ऊबे! यह तो निर्धन है जो धन में आशा टिकाए रखता है।
तो अगर जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे और इसलिए एक दिन उन्होंने सारा संसार छोड़ दिया तो कुछ आश्चर्य नहीं है, छोड़ना ही चाहिए। मेरी तो सम्राट की परिभाषा ही यही है कि जो एक दिन सब छोड़—छाड़ दे। उसका अर्थ है कि उसने जान लिया। उसका अर्थ है कि वह सम्राट था। जो पकड़े ही रहे, समझो कि अभी गरीब है, दीन है, दरिद्र है।
लेकिन रैदास अनूठे हैं। गरीब शूद्र के घर में पैदा हुए, जहां न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है- और फिर भी पद—प्रतिष्ठा और धन के पार उठ गए! इसलिए कहता हूं वे ध्रुवतारा हैं।
रामानंद जैसे गुरु, मीरा जैसी शिष्या- दोनों के बीच रैदास की चमक अनूठी